उत्तराखण्ड में केदारनाथ विधानसभा उपचुनाव का परिणाम कई मायनों में स्पष्ट राजनीतिक संकेत की ओर इशारा तो करता ही है, भारतीय जनता पार्टी के अंदर चल रही उस सुगबुगाहट की आंच को भी इस परिणाम ने ठंडा कर दिया है जो मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की कुर्सी खतरे में है जैसी अफवाहों का बाजार गर्म किए हुए थी। बदलाव की ये बातें भाजपा के ही एक वर्ग की महत्वाकांक्षाओं का नतीजा थीं। लोकसभा चुनाव के बाद हुए मंगलौर और बद्रीनाथ के उपचुनावों में भाजपा की पराजय ने इन कयासों को हवा दी थी जिसमें भारतीय जनता पार्टी का वो तबका शामिल था जिसको लगता था कि 2007 और 2017 की तरह अब प्रदेश में नेतृत्व बदलाव हो सकता है। गौरतलब है कि 2024 लोकसभा चुनाव के बाद उत्तराखण्ड में भाजपा भीतर राजनीतिक समीकरणों में बड़ा बदलाव हुआ है। खासकर केंद्रीय नेतृत्व के नजदीकी भाजपा नेता अनिल बलूनी के सांसद चुने जाने बाद खेमेबंदी तेज हुई है और कई विधायकों ने अपनी निष्ठा भी बदली है। गढ़वाल-कुमाऊं के मुद्दे को हवा देकर जो राजनीतिक जमीन तलाशने की कोशिश की गई, केदारनाथ उपचुनाव में भाजपा की जीत ने इन सभी पर एक झटके में विराम लगा दिया है
केदारनाथ विधानसभा की जीत पुष्कर सिंह धामी को तो मजबूत करती ही है साथ में सरकार व संगठन के बीच बेहतर सामंजस्य की तस्वीर पेश करती है। भाजपा के एक पदाधिकारी की मानें तो केदारनाथ चुनाव में भाजपा ने विपक्षियों को तो हराया ही साथ ही उन लोगों को भी हतोत्साहित किया है जो केदारनाथ के परिणाम नकारात्म होने पर अपनी सक्रियता नेतृत्व बदलाव के लिए बढ़ा देते।
महाराष्ट्र, झारखंड विधानसभा चुनावों के परिणामों के हल्ले के बीच उत्तराखण्ड के केदारनाथ विधानसभा उपचुनाव में भाजपा की जीत भले ही राष्ट्रीय मीडिया में उतनी जगह नहीं बना पाई हो लेकिन इससे भाजपा की इस जीत का महत्व कम नहीं हो जाता। खासकर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के लिए ये चुनाव किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं था। इस उपचुनाव में उन पर दोहरा दबाव था। मंगलौर और बद्रीनाथ उपचुनावों में भाजपा की हार ने भाजपा के भीतर ही कई महत्वाकांक्षी नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी की अंदरूनी राजनीति में एक नई पटकथा लिखने की तैयारी शुरू कर दी थी। इस रूप में धामी को विपक्षी कांग्रेस से तो लड़ना ही था साथ में अपनी पार्टी के ही अंदर अपने विरोधियों से भी लड़ना था जो केदारनाथ की हार में अपना भविष्य तलाशने की कोशिश करते। केदारनाथ विधानसभा क्षेत्र की बात करें तो 2002 में उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद हुए पहले विधानसभा चुनावों में आशा नौटियाल ने जीत हासिल की थी। 2007 के विधानसभा चुनावों में भी आशा नौटियाल केदारनाथ से विधायक बनीं। 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की शैलारानी रावत ने आशा नौटियाल को हरा दिया 2016 में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने वाले विधायकों में शैलारानी रावत भी थी। 2017 में शैलारानी रावत कांग्रेस के मनोज रावत से चुनाव हार गई थीं। 2022 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने केदारनाथ से शैलारानी रावत को फिर से अपना प्रत्याशी बनाया। 2022 में शैलारानी रावत केदारनाथ से विधायक चुनी गईं। 2024 में शैलारानी रावत के निधन के बाद केदरानाथ विधानसभा सीट पर उपचुनाव में प्रत्याशी चयन में भाजपा के अंदर भी खासी गहमा गहमी रही। एक तो बद्रीनाथ सीट पर हार का दबाव साथ ही पार्टी के अंदर कई दावेदारों ने चुनौतियां खड़ी कर दी थीं। खासकर दिवंगत विधायक शैलारानी रावत की पुत्री ऐश्वर्या रावत और लोकप्रिय चेहरे कुलदीप रावत की दावेदारी ने पार्टी को सांसत में डाल दिया था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के केदारनाथ के प्रति गहरे लगाव ने केदारनाथ की सीट को और प्रतिष्ठापूर्ण बना दिया था। हालांकि आशा नौटियाल को प्रत्याशी घोषित करने के बाद मुख्यमंत्री धामी और संगठन स्तर पर ऐश्वर्या रावत और कुलदीप रावत को तो साध लिया गया लेकिन असली चुनौती कांग्रेस से ज्यादा, पार्टी के अंदर के उस वर्ग से थी जो हल्की सी चूक के इंतजार में था। भाजपा का संगठन तो था ही लेकिन इस उपचुनाव की कमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अपने हाथ में ले किसी भी चूक की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। दरअसल मंगलौर और बद्रीनाथ के उपचुनावों की पराजय ने भाजपा संगठन के साथ मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को सतर्क कर दिया था। जुलाई में केदारनाथ विधायक शैलारानी रावत के निधन के बाद से ही भाजपा संगठन और सरकार की सक्रियता केदारनाथ में बढ़ गई थी। कैबिनेट मंत्रियों सतपाल महाराज, रेखा आर्या, सुबोध उनियाल, सौरभ बहुगुणा और गणेश जोशी को मुख्यमंत्री धामी ने केदारनाथ में सक्रिय कर दिया था। जुलाई माह के अंत में गौरीकुंड-केदारनाथ पैदल मार्ग पर अतिवृष्टि के बाद जो हालात हुए थे उसके रेस्क्यू अभियान को मुख्यमंत्री धामी व्यक्तिगत रूप से मॉनिटर कर रहे थे।
शैलारानी रावत की मृत्यु के बाद से ही धामी सरकार और भाजपा का संगठन चुनावी मोड़ में आ गए थे उस चुनावी मोड़ की गति चुनाव होने तक कम नहीं पड़ने दी। अयोध्या और बद्रीनाथ की पराजयों ने भाजपा की मूल राजनीति पर चोट कर दी थी शायद केदारनाथ की जीत उसके लिए जरूरी थी। हालांकि एक सीट के हारने/जीतने से भाजपा सरकार की स्थिरता पर कोई कसर नहीं पड़ने वाला था लेकिन इसके परिणाम भाजपा की अंदरूनी राजनीति में गहरे होते। शायद पुष्कर सिंह धामी की मुख्यमंत्री के रूप में चुनौतियां बढ़ जाती। शायद मुख्यमंत्री को इसका भान था इसलिए उन्होंने अपनी कैबिनेट के उन पांच सहयोगियों पर भरोसा ज्यादा किया वनिस्वद केदारनाथ विधानसभा के निकट के मंत्रिमंडल सहयोगी पर। ऐसा नहीं है कि उत्तराखण्ड में पुष्कर सिंह धामी की कुर्सी पर अन्य लोगों की नजर नहीं है। प्रचंड बहुमत वाली भाजपा सरकार में सतही तौर पर भले ही सब शांत नजर आ रहे हों लेकिन 2007 और 2017 के समय मुख्यमंत्री बदलने के उदाहरणों के मद्देनजर जिसमें भाजपा ने दो-दो बार मुख्यमंत्री बदले थे, उस दोहराव की उम्मीद में कई नेता महत्वाकांक्षा पाले हुए हैं।
उत्तराखण्ड के पांच सांसदों में से तीन सांसद तो खुद को मुख्यमंत्री पद की दहलीज पर खड़ा पाते हैं। हालांकि धामी कैबिनेट में उनके एक सहयोगी भी इस दौड़ में पीछे नहीं हैं। इस बार केंद्रीय नेतृत्व के खास कहे जाने वाले अनिल बलूनी के सांसद चुने जाने के बाद गढ़वाल में राजनीतिक सुगबुगाहट तेज हुई है। अगस्त माह में कुमाऊं-गढ़वाल का मुद्दा कोई अकारण नहीं उठा होगा। वर्ना 24 वर्षों के बाद गढ़वाल- कुमाऊं मुद्दे को हवा देने का कहीं कोई औचित्य नजर नहीं आता। हालांकि राजनीतिक दल क्षेत्रीय व जातिगत संतुलन साधने के लिए पदों का बंटवारा जरूर कर देते हैं। इस बार देखें तो भाजपा में कुमाऊं-गढ़वाल जैसे असंतुलन की सी कोई बात नहीं है। क्षेत्रीय व जातिगत संतुलन में गढ़वाल क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कम नहीं है। मुख्यमंत्री कुमाऊं से हैं तो प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट गढ़वाल क्षेत्र से आते हैं। इस वक्त संसद के उच्च सदन राज्यसभा में कल्पना सैनी (रूड़की) नरेश बंसल और महेंद्र भट्ट एक प्रकार से गढ़वाल का प्रतिनिधित्व करते हैं। धामी कैबिनेट में वर्तमान में 7 मंत्री हैं जिसमें डॉ. धन सिंह रावत, सतपाल महाराज, गणेश जोशी, सुबोध उनियाल और प्रेम चंद्र अग्रवाल गढ़वाल क्षेत्र से ही आते हैं। अगर विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खण्डूड़ी को भी शामिल करें तो वो भी गढ़वाल क्षेत्र का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। इस प्रकार जाहिर है कि कुमाऊं-गढ़वाल के विभाजन की राजनीति शायद ही किसी की महत्वाकांक्षा को पूरा करे। शायद इसका जवाब केदारनाथ की जनता ने बेहतर तरीके से दे दिया है। केदारनाथ की जीत के जरिए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने विपक्ष और अपनी पार्टी के अंदर की उस लॉबी को करारा जवाब दे दिया है जो उन्हें अस्थिर करने का प्रयास कर रही थी। }
इस चुनाव में देखने में आया कि विपक्षी कांग्रेस के निशाने पर भाजपा कम मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ज्यादा थे। केदारनाथ उपचुनाव ने कांग्रेस को भी संदेश दिया है कि धर्म आधारित राजनीति में आप भाजपा को मुकाबला करने में पीछे ही रहेंगे। केदारनाथ धाम के नाम पर दिल्ली में केदारनाथ धाम स्थापित करने के विरोध में निकाली केदारनाथ यात्रा को कांग्रेस ने अपनी जीत का आधार मान लिया। वो अपने चुनाव अभियान में केदारनाथ मंदिर से बाहर नहीं आ पाई। लेकिन जब ये मुद्दा कमजोर पड़ा तो उसके हाथ मुद्दों से खाली थे। कांग्रेस शायद ये समझ नहीं पाई कि केदारनाथ मंदिर के अलावा कई जनसरोकारी मुद्दों पर भी जनता आपको सुनना चाहती है। कांग्रेस ने जब केदारनाथ मुद्दे पर यात्रा निकाली थी तो उसकी अंदरूनी सियासत उसी वक्त शुरू हो गई थी। जब मंदिर पर आपकी यात्रा सियासत वाली हो तो जरूरी नहीं आप भाजपा की तरह सफल हो जाएं। कांग्रेस अध्यक्ष करन माहरा उस यात्रा के जरिए कांग्रेस के लोगों को एकजुट नहीं कर पाए। टिकट वितरण में घमासान ने उसकी राह और भी कठिन कर दी। करन माहरा और गणेश गोदियाल की तकरार, साथ-साथ कांग्रेस के अंदर की गुटबाजी कांग्रेस को चुनाव में खड़ा नहीं कर पाई।
कांग्रेस को लगा था कि बद्रीनाथ उपचुनाव की तरह वो केदारनाथ में भी भाजपा को पटखनी दे देगी लेकिन उसके अंदर की लड़ाई कांग्रेस के लिए वो राजनीतिक जमीन नहीं बना पाई। कांग्रेस भले ही ऊपर से एकजुटता का दावा कर रही थी लेकिन टिकट बांटने में, पर्यवेक्षक नियुक्त करने में जो तस्वीर सामने उसने इस एकजुटता के दावे की पोल खोल दी थी। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा भले ही कहें ‘भाजपा से नहीं अपनों से हारे’, पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत भले ही कहें ‘केदारनाथ में कांग्रेस नहीं, उत्तराखंडियत हारी’ लेकिन ये सब अपनी कमियां छुपाने के लिए वक्तव्य हैं। क्योंकि कांग्रेस में आत्मचिन्तन कर सबक लेने की परंपरा नहीं है। हरीश रावत उत्तराखंडियत को कैसे परिभाषित करेंगे। वोट मांगने वाले भी उत्तराखण्डी और वोट देने वाले भी उत्तराखण्डी फिर उत्तराखण्डियत कैसे हार गई? कांग्रेस को अपनी पराजय के कारण खुद ढूंढ़ने होंगे। उसे अपना संगठन जमीन पर ढूंढ़ना होगा जो नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और आपसी लड़ाई में कहीं खो गया है और नकारात्मक प्रचार जनता को प्रभावित नहीं करता वो आपसे विकल्प चाहती है सिर्फ हवाई बातें नहीं। फिलहाल केदारनाथ उपचुनाव का परिणाम मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के लिए राहत भरी खबर लेकर आया वहीं उनके पार्टी के अंदर एक लॉबी को निराश कर गया। उम्मीद है अब उत्तराखण्ड भाजपा में उन अफवाहों पर लगाम लगेगी जो उत्तराखण्ड की राजनीति में अस्थिरता ला रही थीं।