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Uttarakhand

हाइड्रम सूखे, ऑपरेटर भूखे!

पर्वतीय क्षेत्रों में ऊंचाई वाले इलाकों में खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए नदी, नाली या पानी के स्रोत से पानी को अपलिफ्ट कर पहुंचाने के उद्देश्य से हाइड्रम योजनाओं की शुरुआत की गई थी। मकसद था कि खेती किसानी को बढ़ावा मिले। राज्य बनने से पहले प्रदेश में हाइड्रम योजनाओं की संख्या 673 थी लेकिन देखरेख के अभाव में करीब 150 योजनाएं अनुपयोगी हो गई। 520 के आस-पास जो योजनाएं बची थी उसमें से भी वर्तमान में 274 योजनाएं बंद हो चुकी हैं। जो हाइड्रम बचे हैं उनकी भी देखरेख नहीं हो रही है

प्रदेश में कृषि के दो आधार हैं मैदानी एवं पर्वतीय। मैदानी क्षेत्रों में सिचांई नहरों एवं नलकूपों से होती है तो पहाड़ों में छोटे नहर (गूल) और हाइड्रम का प्रयोग सिंचाई के लिए किया जाता है। ऐसा नहीं है कि प्रदेश में सिंचाई योजनाएं नहीं बनी। यहां योजनाओं की भरमार है लेकिन ये जमीन की प्यास बुझाने में विफल रही हैं। प्रदेश में लघु सिंचाई की 20 हजार से अधिक योजनाएं हैं। जिनके निर्माण में सरकार अब तक 1 हजार 800 करोड़ से भी अधिक धन खर्च कर चुकी है। इसके अलावा 30 हजार किलोमीटर लंबी गूलों का जाल है। लेकिन प्रदेश में सिंचाई की स्थिति यह है कि जहां मैदानी क्षेत्रों में 2.86 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि संचित है तो वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में यह आंकड़ा 0.43 लाख हेक्टेयर पर ही सिमटा हुआ है। पर्वतीय क्षेत्रों में खेतों को सिंचित करने के लिए जो हाइड्रम योजनाएं बनाई गई थी वह एक-एक कर दम तोड़ रही हैं तो वहीं इन हाइड्रम को संचालित करने वाले ऑपरेटर भी भूखे मरने की नौबत में पहुंच चुके हैं।

पर्वतीय क्षेत्रों में ऊंचाई वाले इलाकों में खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए नदी, नाली या पानी के स्रोत से पानी को अपलिफ्ट कर पहुंचाने के उद्देश्य से हाइड्रम योजनाओं की शुरुआत की गई थी। मकसद था कि खेती किसानी को बढ़ावा मिले। राज्य बनने से पहले प्रदेश में हाइड्रम योजनाओं की संख्या 673 थी लेकिन देखरेख के अभाव में करीब 150 योजनाएं अनुपयोगी हो गई। 520 के आस-पास जो योजनाएं बची थी उसमें से भी वर्तमान में 274 योजनाएं बंद हो चुकी हैं। जो हाइड्रम बचे हैं उनकी भी देखरेख नहीं हो रही है। कई हाइड्रम योजनाओं को उनकी फिजिबिलिटी देखे बिना ही शुरू कर दिया गया। अब हालत यह हैं कि हाइड्रम योजनाओं के नाम पर सिंचाई विभाग में सिर्फ बजट खपाने का काम होता है।

तस्वीर यह है कि सुदूरवर्ती जनपद पिथौरागढ़ में 111 हाइड्रम योजनाओं में से 83 बंद चल रही हैं। लघु सिंचाई विभाग इन योजनाओं का संचालन कर पाने में असमर्थ है। नाचनी क्षेत्र में सिंचाई के लिए बनाए गए हाइड्रम क्षतिग्रस्त चल रहे हैं। वहीं भुजगढ़ नदी के बालछा गांव में बनी हाइड्रम योजना समय-समय पर क्षतिग्रस्त रहती है। पिथौरागढ़ ही नहीं चंपावत में भी यही हाल हैं। चंपावत के ऐड़ीसेरा गांव में 2010-11 में लघु सिंचाई विभाग द्वारा हाइड्रम पम्पिंग योजना बनी लेकिन यह सफल नहीं हो पाई। आए दिन खराबी आती रहती है, जबकि इस गांव की 300 नाली कृषि भूमि सिंचाई के लिए इस पर निर्भर है। सिंचाई के अभाव में गांव की आधी जमीन बंजर पड़ी हुई है। ग्रामीण हाइड्रम को ठीक करने की मांग करते रहे हैं। लाखों रुपयों की यह योजना में किसानों को तो फायदा नहीं हुआ, वहीं सरकारी धन का जो दुरुपयोग हुआ वह अलग। मैदानी इलाकों ऊधमसिंह नगर एवं हरिद्वार को छोड़कर अन्य 11 जिलों में हाइड्रम योजनाएं हैं। लेकिन इनकी मरम्मत और रखरखाव के लिए लघु सिंचाई विभाग को नाममात्र का ही बजट मिल पाता है। विधानसभा चुनावों में भी इसको लेकर सवाल उठाए जा चुके हैं लेकिन स्थितियों में कोई बदलाव नहीं आ पाया है।

कई हाइड्रम योजनाएं बजट के अभाव में भी ठप पड़ी हुई हैं। कहने को तो प्रदेश के सिंचाई मंत्री सतपाल महाराज पूरे पांच साल कहते रहे कि सिंचाई की हाइड्रम योजनाओं की मरम्मत एवं रखरखाव के लिए राज्य सेक्टर से बजट दिया जाएगा। बंद योजनाओं को चालू करने के लिए कई विकल्पों पर विचार हो रहा है। लेकिन बंद पड़े हाइड्रमों को खोलने के लिए 1485 लाख रुपए का जो बजट चाहिए था वह सरकार नहीं दे पाई। वहीं इन हाइड्रम को संचालित करने वाले ऑपरेटर को उनकी मजदूरी नहीं मिल पा रही है। जो पैसा इन ऑपरेटरों को मिलता है वह भी बेहद कम है। प्रदेश में इन ऑपरेटरों की संख्या करीब 500 के आप-पास है। पहाड़ के खेतों में सिंचाई के लिए गूल से पानी उपलब्ध कराने के लिए लघु सिंचाई विभाग हाइड्रम तकनीक से पानी पहुंचाता है। इसे चलाने के लिए जो ऑपरेटर नियुक्त हैं उन्हें 40 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी मिल रही हैं यानी 12 हजार रुपए महीना में वह काम करने को मजबूर हैं।

अब सवाल यह है कि आज के महंगाई के दौर में वह काम चलाएं भी तो कैसे? अकेले कुमाऊं में सिंचाई के साधन पर नजर डालें तो 47.57 प्रतिशत भाग पर नलकूप एवं 39.07 प्रतिशत भाग पर नहरों, और 9.15 प्रतिशत भाग पर कुओं, 7.2 प्रतिशत भाग पर अन्य साधनों से सिंचाई की जाती है। प्रदेश में 650 से अधिक टयूबवेल, पीने के पानी एवं 900 के आस-पास सिंचाई के लिए हैं। काली, कोसी, गौरी, सरयू, मंदाकिनी, अलकनंदा, यमुना, भागीरथी, भीलांगना जैसी नदियों के बाद भी प्रदेश की कुल कृषि भूमि का 13 प्रतिशत हिस्सा ही सिंचित है। सवाल यह कि जब सिंचाई के अभाव में खेत ही बंजर पड़ने लगे तो फिर कैसे किसानों की आमदनी दोगुनी हो पाएगी?

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