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Uttarakhand

कैसे बदलेगी उच्च शिक्षा की तस्वीर

उत्तराखण्ड के 13 सरकारी डिग्री कॉलेज ऐसे हैं जो अभी तक राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (नैक)का मूल्यांकन नहीं करा पाए हैं जिसके चलते विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान से राज्य सरकार को मिलने वाला अनुदान रुका हुआ है। ऐसे में उच्च शिक्षा में बेहतर रिजल्ट और क्वालिटी एजुकेशन को लेकर सवाल उठने लगे हैं

प्रदेश के 13 सरकारी डिग्री कॉलेज अभी तक राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (नैक) का मूल्यांकन नहीं करा पाए हैं। जबकि इन्हें इस मद में दो साल पहले धन दिया जा चुका है। नैक मूल्यांकन न कराने की वजह से सरकार को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) एवं राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (रूसा) से समय पर अनुदान नहीं मिल पा रहा है। ऐसे संस्थानों में प्रदेश के बाजपुर, सितारगंज, सोमेश्वर, टनकपुर, चौबट्टाखाल, कोटद्वार, लक्सर, चुड़ियाला, नरेंद्रनगर, डोईवाला, नई टिहरी, कर्णप्रयाग डिग्री कॉलेज शामिल हैं। नैक मूल्यांकन के अलावा भी राज्य की शिक्षा व्यवस्था में कई विसंगतियां व्याप्त हैं जो प्रदेश के उच्च शिक्षा की राह की गुणवत्ता में बाधक बनी हुई है।

प्रदेश सरकार डिग्री कॉलेजों के नैक मूल्यांकन पर इसलिए बल दे रही है ताकि रूसा के तहत मिलने वाली धनराशि से इनका बेहतर ढांचा खड़ा किया जा सके। रुसा के तहत कम सुविधा वाले कॉलेजों का सुधार किया जाता है। इस योजना के अंतर्गत 10 ऐसे मॉडल डिग्री कॉलेज बनाए जाने हैं जो आधुनिक सुविधाओं से लैस होंगे। इसमें 120 करोड़ रुपए खर्च किए जाने हैं। इस तरह हर डिग्री कॉलेज पर 12 करोड़ रुपए खर्च होने हैं। रूसा परियोजना के तहत हल्द्वानी, काशीपुर, रानीखेत, डाक पत्थर, टनकपुर, द्वाराहाट, सामेश्वर, पुरोला, लक्सर, थलीसैंण डिग्री कॉलेज मॉडल कॉलेजों के रूप में विकसित होने हैं। इसका प्रस्ताव केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय को भेजा गया है। रूसा के नोडल अधिकारियों का कहना है कि रूसा परियोजना के तहत शामिल कॉलेजों में हॉस्टल समेत कई सुविधाओं को जुटाया जाना है। पूर्व में रूसा परियोजना के तहत चंपावत जनपद के डिग्री कालेज, देवीधूरा, हरिद्वार जनपद के मीठीबेरी डिग्री कॉलेज, ऊधमसिंहनगर के किच्छा डिग्री कॉलेज के साथ पौड़ी के पैठाणी में आधुनिक कैंपस एवं हॉस्टल का निर्माण किया जा रहा है।

प्रदेश के विश्वविद्यालयों को आगे बढ़ाने में कर्मचारियों की कमी भी एक बड़ी बाधा के रूप में खड़ी हुई है। उत्तराखण्ड विश्वविद्यालय कर्मचारी महासंघ निरंतर यह मांग करता रहा है कि प्रदेश के विश्वविद्यालयों में रिक्त चल रहे हजारों कर्मचारियों के पदों पर तत्काल भर्ती हो। अगर रिक्त पदों पर नजर डालें तो कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल में 35, सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय, अल्मोड़ा में 45, वीरचंद्र सिंह गढ़वाली उद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय में 279, आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय, देहरादून में 72, चिकित्सा शिक्षा विवि, देहरादून में 64, दून विश्वविद्यालय में 65, तकनीकी विश्वविद्यालय में 19, संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार में 08, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी में 20, गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं औद्योगिकी विश्वविद्यालय में 550 कर्मचारियों के पद खाली हैं। प्रदेश के विश्वविद्यालयों की सच्चाई यह है कि अलग राज्य बनने के बाद प्रदेश में विश्वविद्यालयों व कॉलेजों की संख्या में तो वृद्धि हुई लेकिन यह गुणवत्ता में पिछड़ गए हैं। आर्थिक संसाधनों के अभाव में भी इनका ढांचा खड़ा नहीं हो सका। इस सब का असर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ा। प्रदेश में इसकी बुनियाद 22 साल बाद भी मजबूत नहीं हो पाई है। विश्वविद्यालय श्रेष्ठ शिक्षकों, अच्छी प्रयोगशालाओं को आज भी तरस रहे हैं। प्रदेश में वर्तमान में 35 राजकीय एवं निजी विश्वविद्यालय हैं। इसमें 5.27 लाख युवा उच्च संस्थानों में पंजीकृत हैं। इसमें से 1.30 लाख प्रदेश के अन्य राज्यों से तो 27 हजार विदेशी छात्र-छात्राएं इन विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत हैं। सवाल यह उठता है कि इतनी बड़ी तादाद में शिक्षा लेने वाले विद्यार्थियों के भविष्य की खातिर तमाम सरकारी प्रयास धरातल पर क्यों नहीं उतर पा रहे हैं?

ऐसा नहीं है कि प्रदेश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए हैं लेकिन ये धरातल में नहीं उतर पा रहे हैं। हाल ही में विश्वविद्यालयों में शैक्षिक सुधार के लिए न्यूनतम 180 दिन पढ़ाई सुनिश्चित की गई। स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर पर सेमेस्टर सिस्टम लागू किया गया। लेकिन विश्वविद्यालयों की जिस आंतरिक प्रशासनिक व्यवस्था को चुस्त- दुरुस्त होना था वह नहीं हो पाई। आज भी विभिन्न परीक्षा कार्यक्रम एवं परिणामों की घोषणा समय पर नहीं हो पाती। सालाना शैक्षणिक कैलेंडर भी समय पर तय नहीं हो पाता। अंकतालिकाओं में गड़बड़ी सामने आती रहती है। किसी न किसी मांग को लेकर छात्र साल भर आंदोलित रहते हैं। शोध के मामले में विश्वविद्यालय पिछड़ रहे हैं, इनकी गुणवत्ता को लेकर सवाल उठते रहे हैं। विश्वविद्यालयों में नकेल कसने एवं उच्च शिक्षण संस्थानों में सुधार लाने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कई तरह के कदम उठाए हैं। यूजीसी के नए नियम के अनुसार अब अगर किसी भी संस्थान ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तो उसकी ग्रांट बंद कर दी जाएगी। खराब प्रदर्शन करने वाले संस्थानों में भी वह शिकंजा कसने जा रही है। अब संस्थानों की कैटेगरी भी तय करने का प्लान है। यूजीसी द्वारा विभिन्न मदों में दी जाने वाली ग्रांट के खर्च को मॉनीटर करने के लिए ऑडिट करने का निर्णय भी लिया गया है। इसके अलावा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने एकेडमिक परफॉर्मेंस इंडेक्स (एपीआई) स्कीम बनाई है। जिसके अनुसार देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में कार्यरत अस्सिटेंट प्रोफेसर के लिए 18 घंटे थ्योरी एवं 6 घंटे ट्यूटोरियल प्रति सप्ताह अनिवार्य होगा। एसोसिएट प्रोफेसर के लिए 16 घंटे थ्योरी और 6 घंटे ट्यूटोरियल एवं प्रोफेसर के लिए 14 घंटे थ्योरी अनिवार्य है। इसे पदोन्नति का आधार भी बनाया गया है। हालांकि इसका विरोध भी हो रहा है। समग्र शिक्षा, टीचर्स ट्रेनिंग, नैक जैसे सुधारवादी कदम भी उठाए गए हैं। राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (रूसा) के जरिए उच्च शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए पैसा दिया जा रहा है। नैक की अच्छी ग्रेडिंग वाले उच्च शिक्षण संस्थानों को स्वायत्तता प्रदान की गई है। डिग्रियों का फर्जीवाड़ा रोकने के लिए नेशनल एजुकेशनल डिपॉजिटरी (एनएडी) की स्थापना की गई है, जहां शिक्षा से जुड़े सभी दस्तावेज अंकतालिका, प्रमाणपत्र को डिजिटल रूप प्रदान करना है। ऐसे सभी विश्वविद्यालयों के लिए एम्बेला एक्ट बनाने के लिए कमेटी का गठन करने, ऑनलाइन दाखिले की व्यवस्था, कुल सचिव की शैक्षिक योग्यता कम से कम एक प्रोफेसर के बराबर करने, ड्रेस कोड लागू करने के प्रयास तो हुए हैं लेकिन बावजूद इसके उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में परिवर्तन नहीं आ पा रहा है।

क्या है संबद्धता नीति : नए डिग्री कॉलेजों एवं विषयों की संबद्धता को नीति बनाई गई है। उसके अनुसार इन नियमों का पालन होना जरूरी है। अस्थाई-स्थाई संबद्धता की प्रक्रिया के तहत नए कॉलेजों में राजकीय के लिए 10 हजार रुपए एवं अन्य महाविद्यालयों के लिए 50 हजार रुपए प्रक्रिया शुल्क होगा। एक निरीक्षण समिति होगी जिसमें विश्वविद्यालय संस्था से मिले प्रस्तावों के संतोषजनक पाए जाने के बाद विश्वविद्यालय के कुलपति निरीक्षण समिति गठन करेंगे। समिति में कुलपति से नामित एक विषय विशेषज्ञ, संबंधित संकाय के डीन अथवा समकक्ष शिक्षाविद्, संबंधित विभाग की ओर से जिला स्तर पर नामित उपनिदेशक या प्राचार्य हांगे। कॉलेज या विषय, पाठ्यक्रम की संबद्धता के स्थाई संबद्धता प्रदान करने की प्रक्रिया अस्थाई संबद्धता की तर्ज पर होगी। आवेदक महाविद्यालय या शिक्षण संस्थान को 5 वर्षों के स्थान पर 10 वर्षों के लिए प्रस्तावित विकास परियोजना प्रस्तुत करनी होगी। कॉलेज के सुचारू संचालन को विकास एवं भावी योजनाओं पर विचार-विमर्श को स्टाफ एवं चयनित छात्र- छात्राओं की एक विकास परिषद गठित होगी। कॉलेज का नैक से मूल्यांकन अनिवार्य होगा। निर्धारित मानकों का उल्लंघन करने अथवा निर्देशों का अनुपालन नहीं करने या शिकायत प्राप्त होने पर जांच समिति की जांच के बाद सक्षम प्राधिकारी को संबद्धता समाप्त करने की संस्तुति की जाएगी।

क्या हैं भूमि एवं भवन मानक
नगर निगम क्षेत्र में न्यूनतम दो एकड़ और अन्य क्षेत्र में न्यूनतम पांच एकड़ भूमि होनी चाहिए। भवन मानकों के अंतर्गत प्रत्येक व्याख्यान कक्ष 900 वर्गफुट, पुस्तकालय कक्ष 4000 वर्गफुट, प्रयोगशाला 1000 वर्ग फुट, विभागाध्यक्ष कक्ष 500 वर्गफुट, प्राचार्य कक्ष 500 वर्गफुट, कार्यालय कक्ष 500 वर्ग फुट, अभिलेखागार कक्ष 200 वर्गफुट, भंडार कक्ष 200 वर्ग फुट, परीक्षा कक्ष 600 वर्गफुट होना चाहिए। लेकिन प्रदेश में कई ऐसे डिग्री कॉलेज हैं जो टिनशेड में चल रहे हैं। जहां ये मानक काम नहीं करते। नगर निगम क्षेत्र में 2 एकड़ भूमि होनी चाहिए। अन्य क्षेत्र में 5 एकड़ भूमि होनी चाहिए। पर्वतीय क्षेत्र में 1 एकड़ भूमि होनी चाहिए। इसके अलावा कक्षों के आकार, पदों की संख्या, प्रत्येक विषय में छात्रों की संख्या एवं सेक्शन में अधिकतम संख्या के मानक भी तय हैं। यूं तो शिक्षण संस्थान गैर लाभ वाली श्रेणी में आते हैं। ऐसी स्थिति में इन मानकों को पूरा किया जाना जरूरी है। महाविद्यालयों के लिए जो मानक तय किए गए हैं उसमें क श्रेणी के तहत 3000 से अधिक छात्र, ख श्रेणी में 2999 तक छात्र एवं ग श्रेणी में 1000 तक छात्र होने चाहिए। इन्हीं श्रेणियों के आधार पर महाविद्यालयों में गैर शैक्षणिक पदों का निर्धारण किया गया है। शैक्षणिक पदों पर प्रत्येक विभाग में कम से कम पांच सहायक प्रोफेसर, एक एसोसिएट प्रोफेसर एवं एक विभागाध्यक्ष की तैनाती अनिवार्य मानी गई है। ग श्रेणी में कम से कम 55 कार्मिकों की तैनाती आवश्यक है।

ये हैं ग्रेंडिंग के मानक
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में उच्च मानकों पर खरे उतरने वाले संस्थानों को ए ग्रेड दिया जाता है। बेहतर शिक्षण व्यवस्था के कार्यों में जुटे संस्थानों को बी ग्रेड दिया जाता है। नए खुले विश्वविद्यालयों को सी ग्रेड दिया जाता है। एक विश्वविद्यालय में 34 विभाग होने चाहिए। अमूमन 29 ही हैं। एक विश्वविद्यालय में शिक्षकों के 432 पद होने चाहिए औसतन 220 हैं। सभी 432 शिक्षकों को पीएचडी धारक होना चाहिए। विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में साढ़े तीन लाख किताबें होनी चाहिए। कॉलेजों में शिक्षक- छात्र अनुपात 1ः20 का होना चाहिए।

 

प्रदेश सरकार राज्य में उच्च शिक्षा की बेहतरी के लिए लगातार काम कर रही है। प्रदेश के सभी 35 राजकीय एवं निजी विश्वविद्यालय ज्ञान संसाधन साझा करेंगे। इस तरह से सभी विश्वविद्यालयों को एक मंच पर लाने वाला उत्तराखण्ड पहला राज्य बनेगा। पर्वतीय क्षेत्रों में 200 छात्राओं को पीएचडी करने के लिए प्रति छात्रा 5000 रुपए छात्रवृत्ति दिए जाने की व्यवस्था की जा रही है। सिविल सेवा में जाने की तैयारी करने वाले प्रतिभावान छात्र-छात्राओं के लिए सुपर-20 कोचिंग शुरू की जा रही है।
डॉ. धन सिंह रावत, उच्च शिक्षा मंत्री, उत्तराखण्ड

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