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Uttarakhand

शिक्षा व्यवस्था का भयावह सच

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे ‘बेडौल अक्षर अधूरी शिक्षा की निशानी हैं।’ उत्तराखण्ड में तो पूरी शिक्षा व्यवस्था ही बेडौल हो चली है। हालात इतने विकट हैं कि लगभग आठ हजार करोड़ शिक्षा मद में प्रतिवर्ष खर्च होने के बावजूद राज्य के सरकारी स्कूलों में शौचालय और पीने के पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं का टोटा है। प्रयोगशाला और पुस्तकालयविहीन स्कूलों के भवन जर्जर हो चले हैं। बीते बाइस बरसों में सैकड़ों स्कूल इस बदइंतजामी का शिकार हो बंद हो गए हैं। राज्य सरकार इस कुव्यवस्था को दुरुस्त करने के बजाय प्राइवेट स्कूलों को आगे बढ़ाने की नीति बनाने में जुटी है। सरकारी स्कूलों की बदहाल स्थिति पर ‘दि संडे पोस्ट’ की खास-खबर का आधार शिक्षा विभाग की एक ऐसी आंतरिक रिपोर्ट है जिसे पढ़ने का समय और इच्छाशक्ति सरकारी तंत्र के पास है ही नहीं

एक कहावत है कि ‘अपने उजड़े हुए घर की फिक्र नहीं दूसरों के लिए चिंता में मरे जा रहे’ कुछ ऐसा ही उत्तराखण्ड की स्कूली शिक्षा में भी हो रहा है। जहां एक ओर राज्य में स्कूली शिक्षा बदहाली के कगार पर जा पहुंची है तो वही सरकार अब राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में प्राइवेट स्कूलों को खोले जाने लिए सरकार भूमि से लेकर सभी मूलभूत सुविधाएं देने का वादा कर रही है। शिक्षा मंत्री धनसिंह रावत ने शिक्षा निदेशालय में नीजी स्कूलों के संचालकां के साथ हुई बैठक में यह निर्णय लिया है। दूसरी तरफ तमाम तरह के दावे करने के बावजूद प्रदेश के सरकारी स्कूलों की स्थिति गिरती ही रही है। स्कूली शिक्षा बदहाली के कगार पर होने के बावजूद सरकार इस पर ध्यान देने के बजाय स्थानांतरण और शिक्षा नीति पर ही ज्यादा फोकस कर रही है।

अलग उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद नीति नियंताओं से जनता ने यह उम्मीद रखी थी कि अब उनके बच्चों को बेहतर स्कूली शिक्षा के लिए शहरों में पलायन नहीं करना पड़ेगा लेकिन बीते बाइस वर्षों में स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं हो पाया है। इतना जरूर है कि अनेक स्कूलों में भवन आदि का तो निर्माण किया गया लेकिन बुनियादी सुविधाएं और स्कूली शिक्षा को बेहतर बनने के लिए जरूरी सुविधाओं की कमी निरंतर जारी रही है। यह भी गौर करने वाली बात है कि जब राज्य बना था तो इसकी आबादी महज 75 करोड़ के आस-पास थी जो कि इन 22 वर्षों में बढ़कर सवा करोड़ के लगभग हो चुकी है। इस बढ़ती आबादी के चलते स्कूलों की संख्या में भी इजाफा होना चाहिए था लेकिन पलायन की मार के चलते गांव के गांव खाली होते चले गए जिसके चलते 22 वर्षों के भीतर राज्य के 1,245 स्कूल या तो छात्रविहीन हो चुके हैं या उनको बंद कर दिया गया है। सबसे ज्यादा आश्चर्य इस बात का है कि पहाड़ी जिलों के साथ साथ मैदानी जिलो में भी सरकारी स्कूल तेजी से बंद होते जा रहे हैं। राज्य के प्राथमिक शिक्षा विभाग के आंकड़ों को देखें तो जहां पर्वतीय जिलां के 1104 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक यानी जूनियर हाईस्कूल खाली पड़े हैं या उनको बंद कर दिया गया है तो वहीं 3 मैदानी जिलां में 95 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूल खाली हो चुके हैं।

पहाड़ी जिलां में खाली या बंद पड़े स्कूलों की संख्या विभागीय आंकड़ों के अनुसार जिला रूद्रप्रयाग में 45, पौड़ी 265, पिथौरागढ़ में 131 टिहरी में 190, नैनीताल में 46, बगेश्वर में 49, अल्मोड़ा में 201 तथा चमोली में 115 एवं चंपावत में 37 और उत्तरकाशी जिले में 71 हो चुकी है। जबकि मैदानी जिलां में देहरादून में 78, उधमसिंह नगर में 7 और हरिद्वार जिले में 10 स्कूल ऐसे हैं जो बंद हो चुके हैं या इनमें छात्र संख्या शून्य है।

पौड़ी सबसे बदहाल
पौड़ी जिला राज्य का सबसे ज्यादा राजनीतिक तोर पर मजबूत और शिक्षा और रोगजार के क्षेत्र में अग्रणी जिला है। इस जिले में 265 स्कूलों का बंद हो जाना अपने आप में चोंंकाता है। राज्य बनने के बाद अंतरिम सरकार में पहले शिक्षा मंत्री तीरथ सिंह रावत बने थे तो पहली निर्वाचित सरकार में पहले शिक्षा मंत्री नरेंद्र सिंह भंडारी भी पौड़ी जिले से ही थे। मौजूदा धामी सरकार में शिक्षा मंत्री धनसिंह रावत भी पौड़ी जिले से विधायक हैं। इसके साथ ही चार-चार मुख्यमंत्री, बीसी खण्डूड़ी, रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, त्रिवेंद्र रावत, तीरथ सिंह रावत भी पौड़ी जिले ने ही प्रदेश को दिए हैं। इन सबके बावजूद 22 वर्षों में पौड़ी जिले में इतनी बड़ी संख्या में स्कूल बंद हुए हैं।
इसी तरह से सांस्कृतिक और बौद्धिक नगरी अल्मोड़ा जो कि ब्रिटिश शासन से ही उत्तराखण्ड की शिक्षा और बौद्धिक संपदा का हब माना जाता रहा है, में 201 विद्यालय बंद होना सरकार और शिक्षा विभाग को कटघरे में खड़ा करता है।

जर्जर भवनों से जानमाल का खतरा
‘दि संडे पोस्ट’ के पास उपलब्ध सरकारी आंकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं। प्रदेश के कुल 14042 स्कूलों में से 541 स्कूलों के भवन जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। जबकि 77 स्कूल भवन हीन है। विभाग के अनुसार इसका मुख्य कारण यह है कि 69 स्कूल वन भूमि पर संचालित किए जा रहे हैं जिसमें वन अधिनियम के चलते ऐसे स्कूलों के भवनों का निर्माण नहीं हो पा रहा है। साथ ही स्कूलों में भूमि के विवाद चल रहे हैं जिसके कारण इन स्कूलों के अपने भवन नहीं है। स्कूल भवनों के आंकड़ों में मैदानी जिलों के 240 स्कूलों के भवन जीर्ण-शीर्ण हो चुके हैं जिनमें देहरादून में 55 हरिद्वार में 155 तथा ऊधमसिंह नगर में 30 ऐसे विद्यालय है जिनके भवन क्षतिग्ररूत हो चुके हैं। जबकि पर्वतीय जिलों में अल्मोड़ा में 69, बागेश्वर में 14, चमोली में 15, नैनीताल में 8 तथा पौड़ी में 51, पिथौरागढ़ में 14 एवं रूद्रप्रयाग में 25, टिहरी में 80 और उत्तरकाशी जिले में 11 ऐसे विद्यालय हैं जिनके भवन जीर्ण-शीर्ण हो चुके हैं। गौर करने वाली बात यह है कि देहरादून जिला जहां प्रदेश की राजधानी के अलावा सरकार और शिक्षा विभाग का पूरा अमला मौजूद रहता है, में 55 ऐसे विद्यालय हैं जिनके भवन तत्काल मरम्मत मांग रहे हैं। साथ ही हरिद्वार जिला, जो कि राज्य का सबसे ज्यादा विकसित जिला माना जाता है, इसमें भी 155 जीर्ण-शीर्ण विद्यालय है। इसी तरह से राज्य के हाईस्कूल और इंटर कॉलेजों का हाल भी बदहाल है। राज्य में कुल 2318 स्कूल हैं जिनमें 24 ऐसे विद्यालय है जिनके अपने भवन नहीं है। जिनमें देहरादून जिल में 3 और हरिद्वार में 4 एवं 2 पिथौरागढ़ तथा उत्तरकाशी जिले में 11 ऐसे विद्यालय है जिनके अपने भवन ही नहीं है।

स्वच्छ भारत अभियान को पलीता
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को राज्य का स्कूली शिक्षा विभाग पलीता लगा रहा है। स्वच्छ भारत अभियान को आरंभ हुए चार वर्ष हो चुके हैं लेकिन अभी तक राज्य के 1238 स्कूलों में छात्रों के लिए शौचालयों की सुविधाएं तक नहीं है। यही नहीं, 1012 स्कूलों में छात्राओं के लिए पृथक शौचालयों की भी सुविधाएं नहीं है। हैरत की बात है कि स्वच्छता के लिए जनजागरण और शौचालयों के लिए प्रेरित करने के कार्यक्रमों में राज्य के संबंधित विभाग स्कूली छात्र-छात्राओं द्वारा रैलियां आदि निकालते हैं लेकिन उन्हीं छात्र-छात्राओं के स्कूलों में शौचालयों की सुविधा राज्य का विद्यालयी शिक्षा विभाग नहीं दे पा रहा है।

प्राथमिक विद्यालयां में बुनियादी सुविधाओं की बाबत शिक्षा विभाग की आंतरिक रिपोर्ट में बताया गया है कि आज भी 11,580 प्राथमिक विद्यालयां और 943 उच्च प्राथमिक स्कूलों विद्यालयों में छात्रों के लिए शौचालय नहीं है। 884 विद्यालयों में छात्राओं के लिए पृथक शौचालय नहीं हैं। 875 स्कूलों में पीने के पानी की सुविधा नहीं है। 1968 स्कूलां में बिजली की सुविधा नहीं है। 91 स्कूलां भवनहीन है। 5022 स्कूल भूमिहीन है। 4130 स्कूलां में पुस्तकालय की सुविधा नहीं है। 5957 स्कूलां में खेल के मैदान ही नहीं हैं। 2443 स्कूलों में इंटिग्रेट कम्प्यूटर ट्रेनिंग लैब की सुविधा नहीं है। 2020 स्कूलां में कम्प्यूटर ऐडेड लर्निंग लैब की सुविधा नहीं हैं। 3265 स्कूलां में दिव्यांग छात्रों के लिए रैम्प की सुविधा नहीं है। माध्यमिक शिक्षा के भी कमोवेश यही हाल है। हाईस्कूल और इंटर कॉलेज विद्यालयां में 292 स्कूलां में छात्रों के लिए शौचालय नहीं है। 128 विद्यालयां में छात्राओं के लिए पृथक शौचालय नहीं हैं। 125 स्कूलों में पीने के पानी की सुविधा नहीं है। 78 स्कूलां में बिजली की सुविधा नहीं है। 24 स्कूलां भवनहीन है तो 414 स्कूल भूमिहीन है। 462 स्कूलां में पुस्तकालय की सुविधा नहीं है। 1103 स्कूलां में खेल के मैदान ही नहीं हैं।

प्रयोगशाला का भारी अकाल
452 स्कूलां में इंटिग्रेट कम्प्यूटर ट्रेनिंग लैब की सुविधा नहीं है। 286 स्कूलां में कम्प्यूटर ऐडेड लर्निंग लैब की सुविधा नहीं हैं। 1898 स्कूलां में भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला की सुविधा नहीं है। 1912 स्कूलों में रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला की
सुविधा नहीं है। 1944 स्कूलां में वायोलॉजी विज्ञान की प्रयोगशाला की सुविधा नहीं है। 1330 स्कूलां में दिव्यांग छात्रों के लिए रैम्प की सुविधा नहीं है। माध्यमिक शिक्षा में 1944 स्कूलों में बायोलॉजी की प्रयोगशाला नहीं होना सरकार की अपने राज्य में चिकित्सक पैदा करने की नीति पर ही गंभीर सवाल खड़े कर रही है। राज्य में चिकित्सकों की भारी कमी के चलते स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल होती जा रही है। राज्य सरकार राज्य के छात्रों को बेहतर मेडिकल शिक्षा देने का दावा तो कर ही है लेकिन इस दावे की बुनियाद ही कमजोर दिखाई दे रही है। मेडिकल की शिक्षा के लिए बायलॉजी सबसे जरूरी भाग होता है लेकिन 1944 सरकारी इंटर कॉलेजों में इसकी प्रयोगशाला तक नहीं होने से छात्रों के सामने मेडिकल की शिक्षा पाने का सपना ही ध्वस्त होता नजर आ रहा है। यही हाल विज्ञान की शिक्षा को लेकर है। सरकार छात्रों को विज्ञान से जोड़ने का दावा तो करती है लेकिन राज्य के 1898 स्कूलां में भौतिक विज्ञान और 1912 स्कूलों में रसायन विज्ञान की प्रयोगशालाओं की सुविधा तक नहीं है। यह अपने आप में ही सरकार के छात्रां को वैज्ञानिक बनाने के दावों पर प्रश्न चिन्ह् खड़ा कर रहा है।

स्कूलों में बेहतरी पठन-पाठन के लिए छात्रों को पुस्कालय की सुविधाएं तक मुहैया नहीं हो पाई है। प्राथमिक और उच्च प्राथमिक के 4130 स्कूलां में पुस्तकालय की सुविधा नहीं है और हाईस्कूल एवं इंटर के 462 स्कूलां में पुस्तकालय की सुविधा राज्य का विद्यालयी शिक्षा विभाग नहीं दे पाया है। ‘हर घर जल हर घर नल’ का नारा और योजना राज्य में चल रही है, बावजूद इसके राज्य के स्कूलों में पीने का पानी तक नहीं मिल पा रहा है। आज भी राज्य के 1 हजार स्कूलों में पीने का पानी तक की सुविधाएं विभाग नहीं दे पाया है। स्वच्छ पेय जल की तो बात ही दूर है जब पीने का पानी तक नहीं मिल पा रहा है। यही नहीं विभाग अपने बजट में कई ऐसे मामलों में खर्च करने का दावा कर रहा है लेकिन उन दावों पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं। विकास खण्ड शिक्षा अधिकारी और उपखण्ड शिक्षा अधिकारी कार्यालायों के निर्माण और उनके रखरखाव पर स्कूली शिक्षा विभाग 74 करोड़ 92 लाख खर्च करने का आंकड़ा बता रहा है जबकि हकीकत में अभी तक सभी खंड शिक्षा अधिकारियों के कार्यालयों का निर्माण तक नहीं हो पाया है। ज्यादातर कार्यालय या तो सरकारी स्कूलों के भवनों में चल रहे हैं या समग्र शिक्षा के लिए बनाए गए भवनों में ही चलाए जा रहे हैं।

इसी तरह से क्षेत्रीय निरीक्षण के नाम पर भी स्कूली शिक्षा विभाग 42 करोड़ 15 लाख रुपए सालाना खर्च कर रहा है। जबकि हकीकत में क्षेत्रीय निरीक्षण के लिए सरकारी विभागों को आवंटित वाहन 18 वर्ष से भी ज्यादा पुराने हैं जिससे वे जीर्ण-शीर्ण अवस्था में आ चुके हैं। हरिद्वार जिले के क्षेत्रीय निरीक्षण के लिए मिले वाहनों को निष्प्रयोजन कर दिया गया है। हैरत की बात यह है कि कुछ समय पूर्व शिक्षा विभाग ने क्षेत्रीय निरीक्षण के लिए वाहनां की सुविधा वापिस लेने निर्णय लिया था जिसका भारी विरोध होने लगा तो यह आदेश वापस ले लिया गया।

माखौल बना शिक्षा का अधिकार कानून
कुछ वर्ष पूर्व ‘हिंदी मीडियम’ नाम की फिल्म आई थी। जिसमें नायक इरफान खान अपने पुत्री का एक विख्यात प्राइवेट स्कूल में एडमिशन करवाने के लिए फर्जी तरीके से गरीब बनता है और अपनी पुत्री का आरटीई के तहत बड़े स्कूल में एडमिशन करवाने में सफल हो जाता है। यह फिल्म शिक्षा के अधिकार अधिनियम की असल हकीकत समाने लाने में कामयाब रही। कुछ इसी तरह से उत्तराखण्ड में भी हो रहा है जिसमें बड़े पैमाने पर फर्जी तरीके से निर्धन बनाये गए बच्चों को एडमिशन दिया जाता रहा है। हैरानी की बात यह है कि सरकार और विभाग इन मामलां पर कार्यवाही करने की बजाये चुप्पी साधे रहा।

2009 शिक्षा का अधिकार अधिनियम देश में लागू होने के साथ प्रदेश में भी आरंभ हुआ। इसके तरह प्राइवेट स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें गरीब और निर्धन बच्चों के लिए सुरक्षित की गई। इन सभी बच्चों का शिक्षा आदि का खर्च राज्य सरकार और केंद्र सरकार द्वारा वहन करने का प्रावधान किया गया। शुरुआती दिनों में यह योजना बहुत बेहतर समझी गई लेकिन बाद में इस योजना में बड़े पैमाने पर फर्जी तरीके से एडमिशन के मामले उजागर होने लगे। इस अधिनियम की आड़ में सक्षम और धनवान लोगो के द्वारा फर्जी आय प्रमाण पत्र बनवाकर अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में एडमिशन करवाने लगे जिस से आज इस अधिनियम पर ही सवाल खड़े होने लगे हैं।

उत्तराखण्ड जन मोर्चा के रघुनाथ सिंह नेगी ने शिक्षा के अधिकार के तहत बड़े पैमाने पर विभागीय अधिकारियों और प्राइवेट स्कूलों के संचालको के साथ मिली भगत का गंभीर आरोप लगाते हुए मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री को इसकी शिकायत करते हुए इस पूरे मामले की विजिलेंस जांच करवाने की मांग की है। नेगी ने सरकार की शिक्षा नीति पर कहते हैं कि ‘विगत चार वर्ष से आरटीई (राइट टू एजुकेशन) के तहत किए गए एडमिशन में व्यापक धांधली की गई है। गरीब बच्चों को एडमिशन नहीं दिया गया है जबकि सक्षम लोगों के बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में फर्जी तरीके से एडमिशन दिलवा देते हैं। यही नहीं, बंद पड़े और एक-एक कमरों के प्राइवेट स्क्ूलों को भी आरटीआई के तहत एडमिशन का कोटा दिया गया है। कई स्क्ूल तो विभागीय अधिकारियों के रिश्तेदारां के हैं जिनको मिलीभगत कर के आरटीई में शामिल किया गया है। वही जो प्राइवेट स्कूल ईमानदारी से कम कर रहे हैं उनको आरटीई में शामिल नहीं किया जा रहा है।’

प्राथमिक-उच्च प्राथमिक स्कूलों की स्थिति

  •     946 स्कूलों में छात्रो के लिए शौचालय नहीं है।
  •  
  •    884 विद्यालयां में छात्राओं के लिए पृथक शौचालय नहीं है।
  •  
  •     875 स्कूलों में पीने के पानी की सुविधा नहीं है।
  •  
  •  1968 स्कूलां में बिजली की सुविधा नहीं है।
  •  
  •  91 स्कूल भवनहीन हैं।
  •  
  •  5022 स्कूल भूमिहीन हैं।
  •  
  •  4130 स्कूलां में पुस्तकालय की सुविधा नहीं है।
  •  
  •  5957 स्कूलां में खेल के मैदान ही नहीं है।
  •  
  • 2443 स्कूलों में इंटिग्रेट कम्प्यूटर ट्रेनिंग लैब की सुविधा नहीं है।
  •  
  •  2020 स्कूलां में कम्प्यूटर एडेड लर्निंग लैब की सुविधा नहीं है।
  •  
  •  3265 स्कूलां में दिव्यांग छात्रों के लिए रैम्प की सुविधा नहीं है।
  •  
  • हजारों करोड़ खर्च करने के बावजूद बदहाल शिक्षा राज्य की स्कूली शिक्षा का बजट की बात करें तो प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयां का एक वर्ष का सालान बजट 3026 करोड़ 70 लाख है जबकि माध्यमिक शिक्षा के लिए 4958 करोड़ 77 लाख का कुल सालाना बजट है। इस प्रकार से राज्य की स्कूली शिक्षा का कुल बजट 7 हजार 985 करोड़ है जो कि राज्य के 58 हजार करोड़ के वार्षिक बजट का लगभग 13 प्रतिशत है। इस बजट में प्राथमिक शिक्षा का वेतन आदि का सालाना खर्च 2626 करोड़ 35 लाख है जबकि माध्यमिक स्कूली शिक्षा का वेतन आदि 3747 करोड़ 69 लाख है। इस प्रकार से राज्य की स्कूली शिक्षा का वेतन आदि खर्च 6374 करोड़ रुपए सालाना खर्च किया जाता है। इसके अलावा शिक्षा विभागों के निदेशालय एवं महानिदेशालयों में सिर्फ वेतन आदि पर ही 6 करोड़ 83 लाख सालाना खर्च किया जाता है। इन सब के बावजूद राज्य की स्कूली शिक्षा के हालात बदहाल ही नजर आ रहे हैं।

शिक्षा विभाग के आंकड़े भी एक जैसे नहीं है। प्राथमिक शिक्षा विभाग के आंकड़े और राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् के आंकड़ों में अंतर है। प्राथमिक शिक्षा विभाग के अनुसार राज्य में प्राथमिक और उच्च प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों की संख्या 14,042 है जबकि राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद के अनुसार राज्य में कुल 14,183 स्कूल है। इससे 141 स्कूलों का बड़ा भारी अंतर सामने आ रहा है। इसी तरह से जहां प्राथमिक शिक्षा विभाग 77 विद्यालयां के भवनहीन होने की बात कह रहा है तो वहीं राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् से प्राप्त आंकड़ों में 91 विद्यालयों को भवनहीन बता रहा है जो कि 14 का अंतर है।

वर्ष 2015 में राज्य में उत्तराखण्ड शिक्षा का अधिकार की वार्षिक अध्ययन रिपोर्ट 2015-16 आरटीई फोरम में प्रस्तुत की गई थी। रिपोर्ट में राज्य की संपूर्ण स्कूली शिक्षा के ढांचे को लेकर एक रिपोर्ट बनाई गई थी। रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में स्कूलों की सरकारी, प्राइवेट और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों की संख्या 24029 बताई गई है। इसमें 17781 स्कूल सरकारी थे और प्राइवेट स्कूल 5046 थे और सरकारी सहायता प्राप्त यानी एडेड स्कूल 1202 थे। जबकि वर्तमान में विभागीय आंकड़ों के अनुसार राज्य में 14183 सरकारी स्कूल है। इन आंकड़ों में प्राइवेट और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों को नहीं जोड़ा गया है। इन दोनां आंकड़ों में राज्य के स्कूलों की संख्या में 8370 स्कूलों का बड़ा अंतर है। इससे यह साफ हो जाता है कि 2015 से लेकर 2022 के इन सात वर्षों में 3606 स्कूल समायोजित के नाम पर बंद कर दिए गए है।

दिलचस्प बात यह है कि मौजूदा समय में भी विभागीय आंकड़े 1245 स्कूलों को समायोजित करने या छात्र संख्या शून्य होने के चलते बंद होने की बात कह रहे हैं। जबकि 2015 की रिपोर्ट और वर्तमान विभागीय आंकड़ों दोनां में असल हकीकत साफ नजर आ रही है। बहरहाल आंकड़ों को देखने से यह तो स्पष्ट हो चुका है कि करोड़ां खर्च करने के बावजूद महज 7 वर्षों में ही राज्य के 3606 स्कूल बंद हो चुके हैं जो कि राज्य की बदहाल होती स्कूली शिक्षा पर गंभीर सवाल खड़े करती है। हैरत की बात यह है कि आज तक विभाग ने न तो समायोजित किए गए स्कूलों की संख्या सार्वजनिक की है और न ही बंद हुए स्कूलों की संख्या को बताया है। आज तक यह नहीं पता चल पाया है कि किस किस जिले और किस-किस स्कूल को समायोजित किया गया है और कहां-कहां समायोजित किया गया है। साथ ही यह भी सार्वजनिक नहीं हो पाया है कि समायोजित होने के चलते जो स्कूल बंद हुए हैं उनके भवन और उसके फर्नीचर आदि की क्या स्थिति है उनके रखरखाव आदि पर कितना खर्च किया जा रहा है।

बंद होते स्कूल और रिक्त पदों की भरमार
स्कूली शिक्षा विभाग के प्राथमिक शिक्षा में सहायक अध्यापकों के कुल 20,823 पद सीधी भर्ती के स्वीकृत है जबकि 17724 पद ही कार्यरत है। इनमें 3099 पर रिक्त चल रहे हैं। विभाग के अनुसार 2018 एवं 2020 में 2648 पद विज्ञापित किए गए हैं जिसके सापेक्ष में जनपद स्तर पर चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया चल रही है। साथ ही 2021 में उत्तरखण्ड उच्च न्यायालय के आदेश पर 2021 में 451 पद विज्ञापित किए गए हैं। विभाग के अनुसार अनुमानित तौर पर 2 हजार पदों पर नियुक्तियां हो चुकी है और 1099 पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया चल रही है। उच्च प्राथमिक विद्यालयों में प्रधानाचार्य के 625 पदों के सापेक्ष में सभी पद कार्यरत हैं। इसके साथ ही 7821 सहायक अध्यापकों के पद पदोन्नति से स्वीकृत हैं जिसमें 858 पद रिक्त है। इसी प्रकार माध्यमिक शिक्षा में प्रवक्ता के 571 पदों पर सीधी भर्ती के तहत नियुक्ति प्रक्रिया चल रही है तथा 2269 पदों पर डीपीसी से एलटी प्रवक्ता के पदों के लिए लोक सेवा आयोग में प्रक्रिया चल रही है। 474 नए प्रवक्ता पदों में नियुक्ति की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है। एलटी के 1431 पदों में 70 प्रतिशत सीधी भर्ती के वाद न्यायालय में लंबित है। 594 पदों के लिए दोनों मंडलों में डीपीसी होना है जिसका निर्णय न्यायालय वाद के निर्णय के बाद किया जाएगा। एलटी के सीधी भर्ती के 1 हजार पदों के लिए नियुक्ति की प्रक्रिया चल रही है जिसमें 448 पदों की डीपीसी नियुक्ति की प्रक्रिया पूरी होने के बाद आरंभ की जाएगी।

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