चुनाव विधानसभा का और वोट मोदी के नाम। एक बार फिर मोदी मौजिक को भुनाने में भाजपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी। मोदी का यह मैजिक भाजपा के लिए कितना फायदेमंद होगा यह तो 10 मोर्च को ही पता चलेगा, लेकिन जिस तरह से भाजपा ने एक बार फिर से मोदी के सहारे अपनी चुनावी वैतरणी पार करने की रणनीति रच पूरा चुनाव लड़ा प्रदेश भाजपा सरकार और उसके संगठन की क्षमता पर सवाल तो खड़े हो ही गए हैं।
पांच साल की सत्ता और तीन-तीन मुख्यमंत्री होने के बावजूद भाजपा फिर से मोदी का ही सहारा लेने की मजबूरी और डबल इंजन सरकार की असलियत सामने लाती है। अगर मोदी नहीं तो भाजपा नहीं का संदेश एक तरह से फिर से प्रदेश की राजनीति में देखने को मिला। हैरत की बात है कि 57 विधायकों के साथ सत्ता पर काबिज होने वाली भाजपा विगत पांच वर्षों से मोदी मैजिक से बाहर नहीं निकल पा रही है। जो भाजपा के दिग्गज नेता कहलाते थे और चुनावी रणनीति में अपने आप को माहिर मानते रहे है उनको भी अपनी जीत सुनिश्चत करने के लिए मोदी मैजिक का ही सहारा लेना पड़ा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी वर्ष मे उत्तराखण्ड में ताबड़तोड़ दौरे किए। चुनाव की घोषणा से पूर्व विकास कार्यों के लोकार्पण और शिलान्यास के नाम पर देहरादून में दो और रूद्रपुर में एक दौरा तो किया ही साथ ही चुनाव प्रचार के दौरान 148 वर्चुअल सभाएं की। श्रीनगर, अल्मोड़ा और रूद्रपुर में खुली चुनावी जनसभाएं की। धनसिंह रावत, सतपाल महाराज, मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी, बंशीधर भगत, जैसे नेताओं को भी अपनी जीत के लिए दिग्गज मोदी की रैलियों और संवादों की जरूरत पड़ी। प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक को अमित शाह की रैली का सहारा लेना पड़ा। इससे यह भी साफ हो गया कि भाजपा नेताओं के पास मोदी के नाम के अलावा कुछ नहीं है। दिलचस्प बात यह हे कि भाजपा के विधायकां को जनता के पास विकास कार्यों का बखान करने के लिए भी कुछ खास नहीं रहा। केंद्र सरकार के काम और विकास परियोजनाओं को ही अपने खाते में करने पर ही सबसे ज्यादा जोर दिखाई दिया।
इन पांच वर्षों में जिस तरह से केंद्र सरकार की विकास योजनाओं की भरमार प्रदेश में देखने को मिली उससे भाजपा गदगद नजर आती रही है। ‘चारधाम ऑल वेदर रोड’, ‘केदारनाथ पुनर्निर्माण’, ‘ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेल मार्ग परियोजना’, ‘किसान सम्मान निधि’, ‘हर घर नल-हर घर जल’, ‘घर-घर गैस सिलेंडर’ की पहुंच आदि मुद्दां को भाजपा मतदाताओं तक पहुंचाने में कामयाब रही। हिंदू बाहुल्य प्रदेश में राम मंदिर निर्माण और चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में समान नागरिक संहिता को प्रदेश में लागू करने जेसे गंभीर मुद्दे को अपना चुनावी हथियार तो बनाया ही, साथ ही कश्मीर से धारा-370 को हटाने जैसे मुद्दां को भी राष्ट्रवाद से जोड़ कर भाजपा ने जमकर चुनाव में भुनाया।
हैरत की बात यह है कि अपने पांच सालों की सरकार के कामों को बताने में भाजपा सरकार कोताही बरत रही थी, जबकि केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल की विकास योजनाओं को ही सबसे ज्यादा बखान कर रही थी। इसमें भाजपा के उम्मीदवारों के साथ-साथ पूरा संगठन भी लगा हुआ था। 2014 के बाद से भाजपा एक तरह से सिर्फ मोदी के नाम पर ही चुनाव लड़ती नजर आ रही है। 2017 के विधानसभा चुनाव में मोदी की जबर्दस्त लहर का असर रहा कि प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में पहली बार दो तिहाई से भी ज्यादा यानी 57 विधायकों के साथ भाजपा सत्ता में कबिज हुई और कांग्रेस महज 11 सीटों पर सिमट गई। इसके बाद त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव हो या स्थानीय निकाय चुनाव। यहां तक कि सहकारिता क्षेत्र के चुनाव कमोवेश हर चुनाव में भाजपा कहीं न कहीं मोदी के नाम का ही सहारा लेने लगी।
एक तरह से प्रदेश भाजपा संगठन और उसके नेताओं को मोदी का सहारा लेने की एक आदत सी पड़ गई है जिसका असर इस चुनाव में फिर से देखने को तब मिला जब भाजपा ने इस बार धामी-मोदी की सरकार का नारा देकर चुनाव में उतरी।
दिलचस्प बात यह हे कि मतदाताओं में भी मोदी का जलवा बरकरार देखने को मिला है। हालांकि कांग्रेस भी मोदी से अछूती नहीं रह पाई और कांग्रेस का भी पूरा चुनावी फोकस राज्य सरकार के पांच साल के कार्यकाल के बजाय मोदी सरकार के कामकाज और उसकी नाकामियों को उजागर करने में रहा। कांग्रेस नेताओं के सोशल मीडिया की पोस्टों में भी यही देखने को मिलता रहा। राज्य सरकार और उनकी पांच सालों की नाकामियों से ज्यादा मोदी को निशाने पर रख कांग्रेस ने अपनी लड़ाई लड़ी। एक तरह से सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को ही किसी न किसी तरह से मोदी का सहारा लेने पर मजबूर होना पड़ा।