वर्ष 1974 में सुखविंदर सिंह को उत्तर प्रदेश सरकार ने कृषि कार्य के लिए पट्टे पर दी गई 3.2 हेक्टेयर जमीन आज आधी रह गई है, ऐसा नहीं कि उन्होंने उसे बेचा या छोड़ दिया हो, बल्कि इसलिए कि वह जमीन खुद ‘गायब’ हो गई। यह कहानी किसी फिल्म की पटकथा नहीं, बल्कि हकीकत है, कुछ-कुछ वैसी ही जैसे श्याम बेनेगल की चर्चित फिल्म ‘वेल डन अब्बा’ में एक दिन अचानक कुआं गायब हो गया था। फर्क बस इतना है कि यहां कुआं नहीं, बल्कि अधिकारों का दुरुपयोग, खनन माफिया की सांठ-गांठ और वन विभाग की कथित साजिश के चलते एक किसान की कई एकड़ जमीन गायब हो गई है। गुलजारपुर, बाजपुर (ऊधमसिंह नगर) में इस किसान की पुश्तैनी जमीन पर वन विभाग ने अवैध कब्जा कर लिया, फसल रौंद दी गई, गड्ढे कर दिए गए और अंततः उस पर पौधारोपण कर उसे ‘फाॅरेस्ट’ घोषित कर दिया गया। हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद जमीन का सही तरीके से सीमांकन नहीं होने दिया गया, क्योंकि पूरा तंत्र एक ही सुर में बोल रहा है- ‘यह वन भूमि है’, जबकि किसान सवाल कर रहे हैं- ‘तो फिर हमारी जमीन कहां है?’
व र्ष 1974 में जब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल ने सुखविंदर सिंह को 3.2 हेक्टेयर भूमि (यानी 7.907 एकड़) कृषि उपयोग के लिए पट्टे पर दी तो किसी ने नहीं सोचा था कि 51 साल बाद वह जमीन रहस्यमय तरीके से ‘गायब’ हो जाएगी। सुखविंदर सिंह और बाद में उनके पुत्र अमनदीप सिंह इस जमीन को लगातार जोतते रहे। लेकिन आधी सदी बाद वही जमीन अचानक वन विभाग की घोषित कर दी गई। यह कोई सामान्य भूल नहीं लगती, बल्कि सुनियोजित सरकारी कब्जे की एक गम्भीर कहानी है, जिसके केंद्र में हैं तराई वन प्रभाग के डीएफओ प्रकाश चंद आर्य।
शिकायत की मिली सजा
अमनदीप सिंह ने पाया कि उनके खेत से सटे एक खेत में 50-50 फुट गहरे गड्ढे खुद गए हैं। ये गड्ढे अवैध खनन का संकेत थे, और अब उनके खेत की मिट्टी भी वहीं गिरने लगी थी। घबराकर वह डीएफओ कार्यालय रामनगर पहुंचे और तराई वन प्रभाग के डीएफओ प्रकाश चंद आर्य से शिकायत की। अमनदीप को उम्मीद थी कि विभाग तुरंत कार्रवाई करेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जब उन्होंने उच्च अधिकारी, पश्चिमी वृत्त के वन संरक्षक डाॅ. विनय भार्गव से सम्पर्क किया तो उन्होंने डीएफओ को जांच के आदेश दिए। जांच के नाम पर डीएफओ अमनदीप के खेत पर पहुंचे और निरीक्षण के दौरान अमनदीप पर ही आरोप मढ़ दिया कि उन्होंने वन विभाग की जमीन पर कब्जा कर रखा है।
इसके दो दिन बाद डीएफओ ट्रैक्टरों के साथ खेत पर पहुंचे और बिना किसी नोटिस के आदेश दिया कि खेत में खड़ी धान की फसल को रौंद दिया जाए। किसान रोकता रहा, हाथ जोड़ता रहा, लेकिन ट्रैक्टर नहीं रुके। पूरी फसल तहस-नहस कर दी गई। इसके बाद डीएफओ ने उस जमीन पर कब्जाकर उसे वन विभाग की जमीन घोषित कर पौधारोपण करवा दिया। इस तरह किसान से उसकी पुश्तैनी जमीन छीन ली गई।
गौरतलब है कि यदि किसी किसान ने किसी भूमि – चाहे वह सरकारी ही क्यों न हो, पर खेती की हो और वह भूमि अतिक्रमित मानी जा रही हो, तब भी फसल को नष्ट करने से पहले सम्बंधित विभाग द्वारा विधिवत
नोटिस देना अनिवार्य होता है। यह ‘प्राकृतिक न्याय’ के सिद्धांतों का मूलभूत भाग है, जिसकी रक्षा संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 करता है। साथ ही उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता 2006 की धारा 67 और 68 तथा भारतीय वन अधिनियम 1927 के तहत भी कार्यवाही से पूर्व नोटिस आवश्यक है। इस मामले में बिना नोटिस के खड़ी फसल को नष्ट करना स्पष्ट रूप से गैरकानूनी और मनमानी कार्यवाही है।
न्याय की तलाश में दर-दर इस घटना के बाद पीड़ित परिवार ने उपजिलाधिकारी को पत्र लिखकर पैमाइश की मांग की। फरवरी 2024 में तीन सदस्यीय समिति गठित की गई, लेकिन डीएफओ ने राजस्व विभाग के कर्मियों को सर्वेक्षण नहीं करने दिया। मजबूर होकर अगस्त 2024 में परिवार हाईकोर्ट गया। कोर्ट के आदेश के बाद एसडीएम द्वारा की गई जांच में भी जमीन को फाॅरेस्ट एरिया बता दिया गया, जबकि किसान आज तक पूछ रहा है- ‘अगर वो जमीन वन विभाग की है, तो हमारी 8 एकड़ जमीन कहां है?’
अवैध खनन की खेती
बाजपुर क्षेत्र में खनन अब खेतों की खेती से जुड़ गया है। खेतों के ऊपर की पांच फुट मिट्टी में फसल उगाई जाती है और नीचे पत्थर होते हैं। माफिया खेत खरीदते हैं, पत्थर निकालते हैं और स्टोन क्रशर को बेचते हैं। पूरे क्षेत्र में हर किलोमीटर पर दो-दो क्रशर लगे हैं। कोई राॅयल्टी नहीं, कोई अनुमति नहीं। केवल माफिया और प्रशासन का गठजोड़ है। खेतों में गड्ढे हो गए हैं, जिनमें भूजल भर आता है और वे गवाही देते हैं कि यहां क्या कुछ हो चुका है।
मुकदमे सिर्फ कागजों में
वन विभाग अक्सर अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करके अपनी जिम्मेदारी से बचता है। जब कोई सवाल करता है तो विभाग पुरानी फाइलें दिखा देता है कि मुकदमा हो चुका है। लेकिन कार्यवाही केवल कागजों तक सीमित रहती है, जमीन पर कुछ नहीं होता।
जब मीडिया को भी नहीं मिली सुरक्षा
जब ‘दि संडे पोस्ट’ की टीम सत्यापन के लिए गुलजारपुर पहुंची तो स्थानीय लोगों ने मना किया कि खेतों में न जाएं, जान का खतरा है। टीम ने पहले काशीपुर कोतवाली जाकर सुरक्षा मांगी, जहां प्रभारी ने बात एसपी अभय प्रताप सिंह के पास भेज दी। एसपी ने कहा कि सुरक्षा तभी दी जा सकती है जब वन विभाग, एसडीएम और खनन विभाग की अनुमति लाई जाए। संवाददाता ने तर्क दिया कि जिन विभागों पर सवाल हैं, उन्हीं से अनुमति कैसे ली जाए? इसके बावजूद कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिला। टीम ने एसपी के साथ फोटो खिंचवा कर कहा कि यदि कुछ होता है तो पुलिस विभाग जिम्मेदार होगा, लेकिन अंततः सुरक्षा नहीं मिली।
यह घटना यह दर्शाती है कि जहां एक ओर पत्रकारिता को लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहा जाता है, वहीं दूसरी तरफ जमीनी स्तर पर पत्रकारों को सुरक्षा तक मुहैया नहीं कराई जाती, खासकर तब जब वे शासन और माफिया गठजोड़ की परतें उधेड़ने की कोशिश कर रहे हों।
गूगल से साबित हुआ कब्जा?
जब दि संडे पोस्ट की टीम डीएफओ प्रकाश चंद आर्य से मिली, तो उन्होंने कहा कि वे केवल वन विभाग की जमीन पर गए थे और वहां तारबाड़ कर पौधारोपण किया। जब उन्हें अवैध खनन के गड्ढों की तस्वीरें दिखाई गईं तो उन्होंने गूगल मैप खोलकर कहा कि यह वही जगह है, और वहां कोई खनन नहीं हुआ। उन्होंने कम्प्यूटर स्क्रीन पर एक स्थान दिखाकर दावा किया कि वहीं अमनदीप सिंह ने अतिक्रमण किया था जिसे हटाया गया। सवाल उठता है कि क्या अब सरकारी रिकाॅर्ड्स, खसरा- खतौनी, और दशकों की खेती की जगह गूगल मैप ने ले ली है? यह मामला केवल एक जमीन विवाद नहीं है। यह प्रशासन, वन विभाग और खनन माफिया के गठजोड़ की एक भयावह तस्वीर है। यहां जमीन की लड़ाई अकेले किसान नहीं लड़ रहा, बल्कि एक सिस्टम से लड़ रहा है जो संरक्षण के नाम पर कब्जा कर रहा है और जब संरक्षणकर्ता ही लुटेरे बन जाएं, तो जनता का विश्वास कहां टिके?
बात अपनी-अपनी
मेरे खेत से सटे खेत में अवैध खन हो रहा था जिसमें सौ-सौ फुट के गड्ढे कर दिए गए जिससे मेरे खेत की मिट्टी भी ढहने लगी थी। जिसकी शिकायत मैंने डीएफओ प्रकाशचंद्र आर्या से की। लेकिन उन्होंने कोई सुनवाई नहीं की। तब मजबूरन मुझे कंजरवेटर के पास हल्द्वानी जाना पड़ा जहां से जांच के आदेश हुए। इससे डीएफओ प्रकाशचंद्र आर्या नाराज हो गए थे। वे जब स्थलीय निरीक्षण करने गए तो वहां अवैध खनन के गड्ढे उनको दिखाई नहीं दिए और मेरे खेत को उन्होंने वन विभाग की जमीन पर अतिक्रमण बताकर मेरी धान की फसल को ट्रैक्टरों से बर्बाद करवा दिए। न मुझे कोई नोटिस दियाा गया और न ही धान की फसल का मुआवजा दिया गया। इसके बाद डीएफओ प्रकाशचंद्र आर्या ने हमारे खेत में अवैध खनन कराकर पचार-पचास फुट के गड्ढे करा दिए हैं। मेरी आठ एकड़ जमीन का कुछ पता नहीं चल रहा है। मैं अपनी जमीन का सीमांकन कराने के लिए कभी तहसील तो कभी वन विभाग के कार्यालयों में चक्कर काट रहा हूं। अब मैं थक-हारकर न्यायालय की शरण में गया हूं। अमनदीप सिंह, पीड़ित किसान, गुलजारपुर (बाजपुर)
अमनदीप सिंह ने वन विभाग की जमीन पर कब्जा किया हुआ था। उसका कब्जा हटाकर हमने तार-बाड़ लगा दी है और उस जमीन पर पौधा रोपण कर दिया है। गूगल में भी देख सकते हैं कि उसकी जमीन पर कहीं भी गड्ढे नहीं हैं। वह अवैध खनन का आरोप लगा रहा है।
प्रकाशचंद्र आर्या, डीएफओ, तराई पश्चिम वन प्रभाग