पड़ताल
उत्तराखण्ड की नौकरशाही अपनी हठधर्मिता, अहंकार और औपनिवेशिक मानसिकता के चलते राज्य सरकार की फजीहत कराने का अकेले काम नहीं कर रही है। राज्य का न्याय विभाग भारी-भरकम सरकारी वकीलों की फौज होने के बावजूद उच्च और उच्चतम् न्यायालय में सरकार का पक्ष सही तरीके से रखने में सर्वथा विफल साबित हो रहा है। ठीक से होमवर्क कर न्यायालय के समक्ष सरकार के तर्क नहीं रखे जाने का नतीजा है इन न्यायालयों द्वारा सरकार के खिलाफ कठोर टिप्पणियां और कई मामलों में सीबीआई जांच के आदेश। सरकार की इस किरकिरी के बावजूद न्याय विभाग की नींद नहीं टूट रही है। हालांकि मुख्यमंत्री पुष्कर सिह धामी ने न्यायालयों में तैनात सरकारी कानूनी टीम में बीते दिनों कुछ परिवर्तन जरूर किए हैं लेकिन अभी तक धाकड़ धामी अपनी इस टीम को दुरुस्त नहीं कर पाएं हैं। सूत्रों की मानें तो राज्य के मुख्य स्थाई अधिवक्ता के साथ-साथ एडवोकेट जनरल तक को बदलने की अब मुख्यमंत्री तैयारी कर रहे हैं
धामी सरकार की फजीहत करवाने के आरोप प्रदेश की नौकरशाही पर लगते रहे हैं। अधिकारियांे की मनमर्जी के चलते कई मर्तबा राज्य सरकार को जनाक्रोश का शिकार होना पड़ता है तो वहीं राज्य सरकार सही पैरवी न चलते हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी का शिकार भी होती रहती है। दिलचस्प बात यह है कि न्यायालयों में सरकार के पक्ष में केस लड़ने के लिए सरकारी वकीलों की भारी भरकम फौज मौजूद है, बावजूद इसके सरकार कई नीतिगत मामलों में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न सिर्फ मुकदमें हार रही है, सरकार की कार्यशैली पर भी न्यायालयों की कठोर टिप्पणियों से उसकी छवि को बड़ा धक्का लग रहा है।
बीते कुछ अर्सो से कई बड़े मामलों में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में राज्य सरकार को मुंह की खानी पड़ी है। सरकार की इस किरकिरी के बावजूद न्याय विभाग की नींद नहीं टूट रही है। हालांकि मुख्यमंत्री पुष्कर सिह धामी ने बीते दिनों न्यायालयों में तैनात सरकारी कानूनी टीम में कुछ परिवर्तन जरूर किए हैं लेकिन अभी तक धाकड़ धामी अपनी इस टीम को दुरस्त नहीं कर पाएं हैं। सूत्रों की मानंे तो राज्य के मुख्य स्थाई अधिवक्ता के साथ-साथ एडवोकेट जनरल तक को बदलने की अब मुख्यमंत्री तैयारी कर रहे हैं।
गौरतलब है कि विगत दो महीनों के अंतराल में ही हाईकोर्ट नैनीताल के द्वारा तीन मामलांे में सीबीआई जांच के आदेश दिए गए हैं। जिन मामलों में सीबीआई जांच के आदेश जारी किए गए हैं वह सभी मामले सरकार के द्वारा गठित की गई विशेष जांच एजेंसियों (एसआईटी) के पास भेजे गए थे। हाईकोर्ट ने इन मामलों में सही जांच न होने के कारण सीबीआई जांच के आदेश दे सरकार की परेशानियों में इजाफा कर दिया है। इन मामलों को देखने के कई पहलू हैं। नौकरशाही की लचर कार्यशैली और हठधर्मिता एक पहलू है जिसके कारण राज्य सरकार को कोर्ट से फटकार मिलती है तो राज्य सरकार की लीगल टीम की कार्यशैली इसका दूसरा बड़ा पहलू है। भारी भरकम सरकारी खर्च में पलने वाली लीगल टीम पर अगर मुख्यमंत्री धामी का विश्वास डगमगया है तो इसका एक बड़ा कारण न्याय विभाग और सरकारी वकीलों का विभिन्न मामलों में ठीक से अपना होमवर्क न करना है। आजकल सोशल मीडिया में आरटीआई कार्यकर्ता अमर सिंह धुंता नामक एक व्यक्ति की पोस्ट तेजी से वायरल हो रही है जिसमें प्रदेश के ऊर्जा निगम द्वारा पिछले पांच वर्ष में पैनल में तैनात अधिवक्ताओं पर किए गए खर्च का विवरण दिया गया है। धुंता द्वारा सूचना के अधिकार से प्राप्त जानकारी के अनुसार विगत 5 वर्ष में अधिवक्ताओं के पैनल में तैनात अधिवक्ताओं पर 21 लाख 30 हजार 38 रुपए भुगतान करने तथा अन्य अधिवक्ताओं को पिछले पांच वर्ष में 44 लाख 95 हजार 461 रुपए का भुगतान ऊर्जा निगम द्वारा किया गया। इसके अलावा अधिवक्ताओं के खान- पान के व्यय पर 1 लाख 21 हजार 590 रुपए तथा पिछले दस वर्षो में विभिन्न न्यायालयों में चल रहे मुकदमों पर निगम द्वारा 68 लाख 67 हजार 26 रुपया खर्च किए जाने की बात कही गई है। यह तो सिर्फ एक सरकारी संस्थान की लीगल टीम का विवरण है जबकि राज्य में अनेक संस्थाएं निगम हैं जिनकी अपनी अलग-अलग कानूनी टीम है जिस पर करोड़ांे का खर्च प्रति वर्ष आता है। अब उन मामलों पर नजर डालते हैं जिनकी गूंज न्यायालयों तक में सुनाई दी और न्यायालयों ने सरकार के खिलाफ निर्णय दिए।
उद्यान विभाग में भ्रष्टाचार
सबसे चर्चित मामला उद्यान विभाग से जुड़ा है जिसमें करोड़ांे के भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। इस मामले को लेकर आरटीआई एक्टिविस्ट दीपक करगेती द्वारा शासन-प्रशासन और मुख्यमंत्री तक को भ्रष्टाचार के प्रमाण सूचना के अधिकार मंे एकत्र कर भेजे ग्ए थे। सरकार द्वारा कोई कार्यवाही न किए जाने चलते करगेती द्वारा हाईकोर्ट नैनीताल में जनहित याचिका दायर कर दी गई।
इस याचिका पर सुनवाई के दौरान बात सामने आई कि जांच के नाम पर बड़े लोगांे को बचाने का खेल किया जा रहा है। हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश विपिन सांघी ने 26 अक्टूबर 2023 पूरे प्रकरण की सीबीआई जांच के आदेश जारी कर दिए।
सीबीआई जांच के आदेश के बाद राज्य सरकार ने सीबीआई जांच को रूकवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में विशेष याचिका दाखिल की लेकिन यहां से भी उसे कोई राहत नहीं मिली और सरकार को अपनी याचिका को वापस लेना पड़ा।इस मामले में सरकार की कानूनी टीम पर गंभीर सवाल खडे़ होते हैं। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में सरकार का पक्ष बेहद कमजोर साबित हुआ और राज्य सरकार द्वारा अपनी जांच एजेंसियों से जांच करवाए जाने के बावजूद हाईकोर्ट को सीबीआई जांच के आदेश जारी करने पड़े। स्पष्ट है कि सरकारी वकील इस मामले में हाईकोर्ट के समक्ष ठीक से सरकारी पक्ष रख पाने में विफल रहे।
पेड़ों की अवैध कटान का मामला
यह मामला भी लम्बे समय से चर्चाओं में रहा। इस मामले में बगैर स्वीकृति के हजारों पेड़ांे का अवैध कटान करवाया गया और निर्माण कार्य किए गए। इस मामले के उजागर होने पर सरकार के द्वारा जांच के आदेश दिए गए। केंद्र सरकार की एक तीन सदस्य टीम के द्वारा भी इस मामले की जांच की गई। लेकिन जब सरकारी जांच सही टैªक में काम करती नजर नहीं आई हाईकोर्ट नैनीताल में एक जनहित याचिका दाखिल की गई और आरोप लगाया गया कि मामले में बड़े अधिकारियों को बचाया जा रहा है। हाईकोर्ट ने इस मामले में सीबीआई जांच के आदेश जारी कर दिए हैं। अब मामला सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचा है। दो अधिकारियों को जेल भी भेजा गया है और एक भारतीय वन सेवा अधिकरी को निलम्बित भी किया जा चुका है। तत्कालीन वन मंत्री हरक सिंह रावत को भी जांच के दायरे में शामिल किया जा चुका है। कानूनी जानकारों की राय में यदि सरकारी वकील ठीक से पैरवी करते तो हाईकोर्ट सीबीआई जांच के आदेश नहीं देती।
अस्थाई कर्मचारियों का मामला
हाईकोर्ट नैनीताल में नरेंद्र सिंह बिष्ट और अन्य चार लेागों के द्वारा विशेष याचिका दायर करते हुए गुहार लगाई गई थी कि वर्ष 2013 के नियमावली के तहत 10 वर्ष की सेवा पूरी कर चुके अस्थाई कर्मचारियों को नियमित किया जाय। इस पर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को सभी अस्थाई कर्मचरियों, संविदा, आउटसोर्स के माध्यम से सरकारी विभागों में कार्य करने वाले कर्मचारियों को समान कार्य और समान वेतन दिए जाने तथा उनको नियमित करने के आदेश दिए। राज्य सरकार इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई लेकिन वहां से भी कोई राहत नहीं मिली।
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बाद सरकार के सामने बड़ा धर्म संकट आ खड़ा हो चुका है। मौजूदा समय में राज्य सरकार के 1 लाख 60 हजार कर्मचारी हैं जिनके वेतन आदि पर ही प्रति वर्ष 17 हजार 185 करोड़ रुपए का खर्च आता है। जबकि राज्य के विभिन्न सरकारी विभागों में संविदा और अस्थाई कर्मचरियों की संख्या करीब 40 से 50 हजार बताई जा रही है। अगर इन सभी कर्मचारियों को नियमित भी नहीं किया जाए तो भी समान कार्य के लिए समान वेतन दिए जाने पर ही सरकार को करोड़ों का खर्च वहन करना पड़ेगा। यही सरकार की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। माना जा रहा है कि इन सभी को सिर्फ वेतन दिए जाने पर ही करीब 6 हजार करोड़ के अतिरिक्त व्यय की व्यवस्था सरकार को करनी होगी जो कि सरकार के लिए बहुत मुश्किल है।
यह मामला राज्य सरकार खास तौर पर धामी सरकार के लिए गरम दूध की तरह बन चुका है। सरकार ऊहापोह की स्थिति में है कि न्यायालय के आदेशों का पालन करती है तो सरकार पर बड़ा भारी वित्तीय संकट आ सकता है, अगर इस आदेश को नहीं मानती है तो न्यायालयों की अवमामना के मामले में फंस ही सकती है। साथ ही हजारों कर्मचारियों की नाराजगी का दंश भी सरकार को झेलना पड़ सकता है।
पीसीएस मुख्य परीक्षा प्रकरण
इस मामले में उत्तराखण्ड लोकसेवा आयोग की हटधर्मिता के चलते हाईकोर्ट ने आयोग को कड़ी फटकार तो लगाई ही साथ ही मुख्य पीसीएस परीक्षा को ही रद्द करने का आदेश दिया है। दरअसल, राज्य लोक सेवा आयोग उत्तराखण्ड द्वारा 14 मार्च 2024 को पीसीएस मुख्य परीक्षा का कार्यक्रम घोषित करते हुए 16 से 19 नम्वबर तक इसकी तिथि तय कर दी गई थी। जबकि 4 नम्वबर को आयोग के द्वारा हिंदी माध्यम से परीक्षा देने वाले अभ्यार्थियों के पाठ्यक्रम के तीन प्रश्न पत्रों में बदलाव कर दिया गया जबकि अंग्रेजी माध्यम में कोई बदलाव नहीं किया गया। इससे प्री पीसएस परीक्षा पास करने वाले अभ्यार्थियों के सामने नए पाठ्यक्रम को समझने और अपनी तैयारी के लिए समय नहीं रहा। अभ्यार्थियों ने परीक्षा का समय बढ़ाने की मांग रखी लेकिन आयोग किसी भी सूरत में परीक्षा की तिथि में परिवर्तन करने को तैयार नहीं हुआ।
तमाम तरह के तर्क दिए जाने के बावजूद न तो आयोग कोई बात सुनने को तैयार हुआ और न ही राज्य का उच्च शिक्षा विभाग। इससे विवश होकर प्रारंभिक परीक्षा पास करने वाले हिंमाशु तोमर द्वारा हाईकोर्ट नैनीताल में याचिका दायर की गई जिस पर हाईकोर्ट की डबल बंेच ने अभ्यार्थियों के हक में निर्णय देते हुए परीक्षा को निरस्त करते हुए परीक्षा के लिए नई तिथि घोषित करने का आदेश आयोग को जारी कर दिया। अब आयोग नई तिथि घोषित करके मुख्य परीक्षा का कार्यक्रम तय करेगा।
महिला आरक्षण का मामला
राज्य सरकार ने सहकारी समितियों में अध्यक्ष पद के लिए महिला आरक्षण को लागू करने के लिए 4 जुलाई 2024 को अधिसूचना जारी की थी। सरकार के इस निर्णय का सभी सहकारी समितियों ने भारी विरोध किया और इसके खिलाफ लामबंद होने लगे। ऊधमसिंह नगर जनपद के निवासी प्रकाश सिंह द्वारा इस अधिसूचना के खिलाफ हाईकोर्ट नैनीताल में याचिका दायर की गई जिसमें कहा गया कि सभी समितियां स्व. वित्तपोषित हैं और एक समिति में एक अध्यक्ष का पद होता है इसलिए अध्यक्ष पद पर महिला आरक्षण नियम विरुद्ध है। हाईकोर्ट की तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रितु बाहरी और न्यायाधीश राकेश थपलियाल की खंडपीठ ने मामले की सुनवाई करते हुए सहकारी समितियों में महिला आरक्षण को रद्द करते हुए सरकार से पूरे मामले में जबाब दाखिल करने का आदेश जारी कर दिया। हाईकोर्ट ने इस निर्णय से जहां सरकार की फजीहत हुई है तो वहीं सरकार पर स्ववित्तपोषित संस्थाओं पर कब्जा करने के भी अरोप लगे।
लोकायुक्त की नियुक्ति
वर्ष 2011 में भाजपा की खण्डूड़ी सरकार के कार्यकाल में राज्य में लोकायुक्त कानून बनाया गया था। भाजपा ने 2012 के विधानसभा चुनाव में इसका भरपूर प्रचार-प्रसार भी किया था। राज्य को लोकायुक्त कानून तो मिला लेकिन लोक आयुक्त आज तक नहीं मिला है। हैरानी की बात यह है कि लेाकायुक्त के नाम पर अभी तक राज्य सरकार 29 करोड़ की भारी भरकम धनराशि खर्च कर चुकी है। बगैर लोकायुक्त के ही इतनी बड़ी धनराशि कर्मचारियां के वेतन कार्यालय खर्च और अन्य सुविधाओं पर खर्च की गई है।
सरकारी धन की इस तरह से की जा रही बर्बादी को देखते हुए हल्द्वानी निवासी रवि शंकर द्वारा एक जनहित याचिका दाखिल की गई थी। जिस पर 27 जून 2023 को हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए इसे सरकार की घोर लापरवाही और केंद्रीय लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम 2013 की धारा 63 का उल्लंघन माना। सुनवाई में हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के शपथ पत्र मंे उल्लेखित तथ्यों का संज्ञान लेकर हैरानी जताते हुए कहा कि बिना लोकायुक्त की नियुक्ति और बगैर काम किए हुए इस संस्था को 36 करोड़ की धनराशि आंवटित कर दी गई और 29 करोड़ खर्च भी कर दिए गए। कोर्ट ने 24 कर्मचारियों को नियुक्त करने पर भी हैरानी जताते हुए आदेश जारी किया कि जब तक लोकायुक्त की तैनाती नहीं होती तब तक लोकायुक्त संस्था पर एक भी रुपए की धनराशि खर्च न की जाए। इस प्रकरण में गम्भीर बात यह है कि हाईकोर्ट के आदेश के एक वर्ष बीत जाने के बाद भी राज्य को अभी तक लोकायुक्त नहीं मिला है।
पंत द्वीप पार्किंग का मामला
कोरोना महामारी के दौरान कुंभ मेले में वाहनांे की पार्किंग के ठेके में निर्माण कार्यों के विस्तारीकरण के मामले में भारी अनियमितता का मामला सुर्खियों में आया था। इस मामले में पार्किंग निर्माण के ठेकेदार को कार्य विस्तार दिया गया जो कि नियम विरूद्ध था। यह प्रसंग भी हाईकोर्ट तक पहुंचा और हाईकोर्ट ने करोड़ों के इस पार्किग निर्माण में अनियमितता और व्यक्ति विशेष को अनुचित लाभ पहंुचाने का मामला मान इस प्रकरण में सीबीआई जांच के आदेश जारी कर सरकार और प्रशासन को सकते में डाल दिया।
वर्कचार्ज कर्मचारियों का मामला
वन विभाग के वर्कचार्ज कर्मचारियों के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय भी सरकार की फजीहत करवा चुका है। सरकार के द्वारा कई कर्मचारियों को नियमित किया गया लेकिन कइयों को इसका लाभ नहीं दिया गया। वन विभाग के इस भेेदभाव को लेकर कर्मचारियों में खासा रोष बना हुआ था लेकिन न तो विभाग और न ही सरकार वर्कचार्ज कर्मचारियों की मांगों को सुनने को तैयार हुई। आखिरकार यह मामला सुप्रीम कोर्ट की दहलीज तक गया जहां से सभी नियमित होने से छूट गए कर्मचारियों को नियमित करने को आदेश जारी हुआ।
ऐसा नही है कि कोई वकील केस हारने का काम जानबूझ कर करता है। इसमें कई बातंे होती हैं। हर मामले की जांच होती है। जांच एजेंसियों के मामलों में न तो जज इंटरफेयर कर सकता है और न ही एडवोकेट। चाहे सरकारी वकील हो या प्राईवेट वकील किसी को भी जांच एजेंसी के मामले में हस्तक्षेप करने का कोई भी प्रावधान हमारे कानून में नहीं है। पुलिस या जांच एजंेसी की रिपोर्ट कोर्ट में दी जाती है और उसी के अनुसार वकील उस पर काम करता है। कई मामले ऐसे भी होते हैं जिसमें कांस्टयूशन के अनुरूप न हो तो कोर्ट उन मामलों को खारिज कर देता है। आपने सुना होगा कि आंदोलनकारियों को आरक्षण के मामले में भी कोर्ट ने आरक्षण खारिज किया था क्योंकि सरकार ने इसके लिए कोई बायलॉज नहीं बनाया था और आरक्षण लागू कर दिया था। इसलिए सरकारी तंत्र की मजबूत कानूनी समझ जरूरी है। न्याय विभाग से सलाह लेना सबसे ज्यादा जरूरी होता है। अगर मनमाफिक तरीके से कोई काम किया जाएगा तो कोर्ट से खारिज तो होगा ही। आप इसे ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे कोई सड़क बनाई जा रही है। सड़क जरूर बनाई जानी चाहिए लेकिन उसके मानक क्या हैं, उसका उल्लंघन तो नहीं किया जा रहा है, अगर किया जा रहा है तो उस पर आपत्ति होगी। ऐसे ही सभी मामले होते हैं। सिर्फ सरकारी वकीलों की बाबत कह देना कि वकील की कमी से सरकार मुकदमे हार जाती है, यह मुझे ठीक नहीं लगता।
डॉ. महेंद्र पाल, अध्यक्ष, बार काउंसिल, उत्तराखण्ड
हम मीडिया में किसी प्रकार का वक्तव्य या बयान नहीं दे सकते। न्याय विभाग सिर्फ अपना वैधानिक परामर्श देता है, इसके अलावा कोई टिप्पणी या वक्तव्य देने का प्रावधान ही नहीं हैै।
सुधीर कुमार सिंह, अपर सचिव न्याय, उत्तराखण्ड शासन
जिस तरह से सरकार अन्य पदों पर एग्जाम और इन्टरव्यू लेकर अप्वाइंटमेंट करती है उसी तरह से हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट या अन्य न्यायालयों मे वकील आदि को अप्वाइंट करना चाहिए। पॉलिटिकल कारणों चलते सरकारें अपने लोगों को नियुक्ति देती है, चाहे उसकी योग्यता, अनुभव हो या ना हो। इसी कारण से सरकार कोर्ट में अपने मुकदमें हार जाती है। जब तक सरकार ऐसा नहीं करेंगी तब तक मुकदमे हारती रहेगी। कोर्ट में जांच के बाद चार्जशीट दाखिल होती है, चार्जशीट मे कमियां होने का भी मुकदमंे पर असर पड़ता है। वकील का यह काम होता है कि वह कोर्ट में सही बात रख कर काम करे, लेकिन अगर अनुभव की कमी है तो वकील कोर्ट में सही पक्ष नहीं रख पाता। कोर्ट जैसे मामलों में अनुभवों और योग्यता के एंगल को ही देखना चाहिए न कि पॉलिटिकल को।
राजीव शर्मा, अध्यक्ष, बार एसोसिएशन, देहरादून
धामी सरकार को हाल ही में कई बड़े मामलांे में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से मुंह की खानी पड़ी है। सरकार की इस किरकिरी से समूचा सरकारी सिस्टम सकते में है। इसके चलते सरकार की जांच एजेंसियों पर भी गम्भीर सवाल खड़े हो रहे हैं। गत् वर्ष उत्तराखण्ड अधीनस्थ चयन आयोग में बड़े पैमाने पर हुए परीक्षा भर्ती घोटाला सामने आया था। हजारांे बेरोजगार युवाओं के भविष्य को ताक पर रखकर अपने चहेतांे और खास लोगों को न सिर्फ परीक्षा में पास करवाने का काम किया गया, साथ ही उनको सरकारी नौकरियां भी दी गईं। आरोप है कि बड़े पैमाने पर लेन-देन किया गया और परीक्षा पत्र को लाखांे में बेचा गया। इस बड़े घोटाले के सामने आने के बाद प्रदेश में भूचाल सा आ गया था और सरकार को इस मामले में कठोर कार्यवाही करने के लिए विवश होना पड़ा था।
सरकार ने जनता का विरोध देखते हुए तुरंत एसटीएफ का गठन किया और मामले में शामिल लोगांे की बड़े पैमाने पर धड़-पकड़ शुरू हुई। इस मामले में ईडी ने भी जांच की और करीब 17 लोगों के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिग के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। साथ ही 2016 से 2021 के बीच वन दरोगा, सचिवालय रक्षक, वीडियो, वीपीडीओ और स्नातक स्तरीय परीक्षाओं का मामला शामिल किया गया।
एसटीएफ और ईडी द्वारा करीब 42 आरोपियों को जेल भेजा गया लेकिन कुछ ही समय के बाद एक के बाद एक आरोपियों को न्यायालयों से जमानतें मिलती चली गई। अब तक 27 आरोपियों को जमानत मिल चुकी है। जबकि एटीएफ द्वारा 21 आरोपियों पर गैंगस्टर के तहत मुकदमा भी दर्ज किया गया था लेकिन न्यायालयों में यह भी ज्यादा दिनों तक टिक नहीं सका। गौर करने वाली बात है कि राज्य सरकार द्वारा भर्ती घोटाले पर की गई कार्यवाही को सरकार की भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति कह जमकर प्रचारित किया गया था। लेकिन सरकार की मंशा पर तब सवाल खड़े होने लगे कि जब घोटाले में शामिल बड़े चेहरों और मास्टरमाइंड तक की जमानतंे होने लगी। भाजपा नेता हाकम सिंह, जिसे इस बड़े घोटाले का सबसे बड़ा मास्टरमाइंड बताया जाता रहा, उसे भी जमानत मिली साथ ही जगदीश गोस्वामी, चंदन मनराल, बलवंत रौतेला जिन्हें घोटाले का बड़ा आरोपी बताया गया वे भी आसानी से जमानत पाने में सफल रहे। दिलचस्प बात यह है कि इन सभी पर गैंगस्टर एक्ट के तहत भी कार्यवाही की गई थी।
इसी तरह से फरवरी में हल्द्वानी के बनभूलपुरा में हुए दंगों के मामले में भी यही सामने आ रहा है। इस मामले में भी पुलिस द्वारा दंगे और आगजनी करने वाले कई लोगों को जेल भेजा गया लेकिन उनमंे से 50 अरोपियों को हाईकोर्ट से जमानत मिल चुकी है।
स्मरण रहे कि 8 फरवरी 2024 को बनभूलपुरा में सरकारी भूमि पर हुए अतिक्रमण को हटाने के लिए प्रशासन और पुलिस की टीम पर पथराव किया गया साथ ही आगजनी और गोलीबारी की घटना भी हुई। बनभूलपुरा के एक छोटे से हिस्से में हुई हिंसा शाम तक पूरे क्षेत्र में फैल गई और थाने तक को आग के हवाले किया गया। साथ ही थाने के बाहर खड़ेे वाहनों में भी आग लगा दी गई। हिंसा में पुलिसकर्मियों और मीडियाकर्मियों को भी गंभीर चोटंे आई। करोड़ांे की सम्पत्ति को भारी नुकसान हुआ। हिंसा को नियंत्रित करने के लिए प्रशासन द्वारा कर्फ्यू तक लगाया गया।
हिंसा का कथित मास्टरमाइंड अब्दुल मलिक और उसके परिवार को बताया गया जिसे लम्बे समय तक फरार रहने के बाद पकड़ा गया और जेल भेजा गया। प्रशासन द्वारा हिंसा में हुई क्षति के लिए करोड़ों की वसूली का नोटिस भी मलिक को दिया गया। मलिक पर 4 मामलों में मुकदमा दर्ज किया गया जिसमें सरकारी जमीन को खुर्द-बुर्द करने के मामले में हाईकोर्ट से उसे जमानत भी मिल चुकी है लेकिन हिंसा फैलाने के मामले में अभी कोई राहत नहीं मिल पाई है।
पुलिस द्वारा समय रहते चार्जशीट कोर्ट में दाखिल न करने का परिणाम रहा कि मामले में शामिल 50 कथित आरोपी जमानत पर छूट गए और कथित मुख्य आरोपी अब्दुल मलिक को भी जमानमत मिल चुकी है। हालांकि अभी मलिक जेल से बाहर नहीं आया है लेकिन जिस तरह से चार्जशीट समय पर दाखिल न करने से कोर्ट ने फटकार लगाई है उससे मलिक को अन्य मामलों में भी जमानत मिलने की आशंका बढ़ गई है।