उत्तराखण्ड में बंदरों का आतंक दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। फसलों के साथ-साथ बंदर इंसानों को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। उन्हें भगाने पर वे इंसानों पर हमले भी कर रहे हैं। पर्यटक और धार्मिक स्थलों पर भी बंदरों की भरमार है। प्रदेश का शायद ही कोई क्षेत्र ऐसा होगा जहां बंदरों के उत्पात से जनजीवन त्रस्त न हो। शहर से लेकर गांवों तक सभी जगह बंदरों से बचाव की मांग उठने लगी है। ताजा मामला अल्मोड़ा जिले के गरूड़ (बैजनाथ) का है जहां बंदरों से आजिज आकर लोगों ने ‘बंदर भगाओ – खेती बचाओ’ अभियान शुरू कर दिया है। हालांकि सरकार समय-समय पर बंदरों से बचाव के रास्ते तैयार करती रहती है। इसके लिए रेस्क्यू सेंटर के जरिए बधियाकरण कर बंदरों की संख्या पर लगाम लगाने का भी दावा किया गया। पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के कार्यकाल में हल्द्वानी में प्रदेश का सबसे बड़ा बंदरवाड़ा बनाने का ऐलान भी इसी कड़ी का एक हिस्सा है
उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में बंदरों व वन्य जीवों का आतंक एक बड़ी चुनौती बन गई है। पहाड़ सी जिदंगी के आगे उत्तराखण्ड के लोग पहले ही पस्त थे लेकिन वन्य जीवों व बंदरों की इस समस्या ने जनता को झकझोर कर रख दिया है। उत्पाती बंदरों के आतंक के चलते पहाड़ की कृषि तबाह हो गई है। हरे-भरे रहने वाले खेत बंजर पड़ गए हैं। लोग बेकार व बेरोजगार हो गए हैं। इससे प्रदेश में तेजी से पलायन बढ़ रहा है। पहाड़ खाली हो रहे हैं। इस पहाड़ सी समस्या का प्रदेश सरकार समय-समय पर निराकरण करने के दावे करती रहती है लेकिन कोई स्थाई समाधान दिखाई नहीं दे रहा है। एक बार वन विभाग को उत्तराखण्ड में बंदर पकड़ने वालों की कमी के चलते उत्तर प्रदेश से पेशेवर बंदर पकड़ने वालों को बुलाना पड़ा है। उन्हें प्रति बंदर के लिए 300 का भुगतान किया जाता है। विभाग के अनुमान के मुताबिक प्रदेश में डेढ़ से दो लाख से भी ज्यादा बंदर हैं। बंदरों से निजात दिलाने लिए 27 जून 2021 को तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने हल्द्वानी के गौलापार में प्रदेश के सबसे बड़े बंदरबाड़े के निर्माण का उद्घाटन किया था। यह बंदरबाड़ा 50 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में बनने वाला था लेकिन अभी तक वहां कुछ नहीं हुआ।
विभाग के अधिकारियों का कहना है कि हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर विभाग ने हरिद्वार के चिड़ीपौर केंद्र में नसबंदी शुरू की थी, लेकिन धन जारी करने में देरी, सीजन के मुद्दों और अन्य प्रबंधकीय समस्याओं के कारण यह बड़े पैमाने पर सर्जरी नहीं कर सका। 2018 में इस मुद्दे पर नैनीताल हाईकोर्ट में बागेश्वर के एक निवासी ने जनहित याचिका दायर की थी। इससे पहले 2016 में भी इसी मुद्दे पर कोर्ट के सामने एक जनहित याचिका दायर की गई थी। नवंबर 2017 में, अल्मोड़ा के निवासी क्षेत्र में प्रचलित बंदरों के आतंक के खिलाफ सड़कों पर उतर आए थे। कहा जाने लगा है कि पहाड़ी क्षेत्रों में अब विकास की बजाय बंदरों और वन्य जीवों के आतंक से निजात दिलाने का मुद्दा पहले नम्बर पर है। विरोध स्वरूप जगह-जगह धरना-प्रदर्शन हो रहे हैं। हालात यह हैं कि लोग बंदरों के आतंक से त्रस्त होकर इससे निजात पाने के लिए केन्द्र सरकार से गुहार लगा चुके हैं।
पिथौरागढ़ जिले के डीडीहाट के मिर्थी में आईटीबीपी की सातवीं वाहिनी तैनात है। यहां बंदरों ने जवानों के नाक में दम कर रखा है। बंदर कभी जवानों की बैरकों में घुस जाते हैं तो कभी मेस में घुसकर नुकसान पहुंचाते हैं। कई जवान तो दिनभर बंदरों को ही भगाने में लगे रहते हैं। बंदर कुछ समय के लिए तो चले जाते, लेकिन थोड़ी देर में ही वे वापस लौट आते हैं। आईटीबीपी जवानों ने बंदरों को दूर रखने के लिए भालू जैसी दिखने वाली ड्रेस तैयार करवाई है। काले रंग की ड्रेस को पहनकर जब दो से तीन जवान आईटीबीपी परिसर में घूमते हैं तो बंदर डरकर भाग जाते हैं। आईटीबीपी जवानों के इस अनोखे तरीके से लोगों ने भी राहत की सांस ली है।
उत्तराखण्ड की ऐतिहासिक कत्यूर घाटी आजादी के दौर से ही जन आंदोलनों की गवाह रही है। इन दिनों विगत एक माह से यहां एक अनूठा जन अभियान संचालित हो रहा है खेती बचाओ बंदर भगाओ। समूचा उत्तराखण्ड विगत डेढ़ दशक से भी अधिक समय से बंदरों के आतंक की समस्या से जूझ रहा है। खेती-किसानी लगभग चौपट हो गई है। कटखने बंदरों के आतंक से यहां के वासिंदों की दिनचर्या भी बुरी तरह से प्रभावित हो गई है।
पहाड़वासियों के इस दर्द को बारीकी से समझते हुए गरुड़ सिविल सोसायटी ने दो माह पूर्व बंदरों के आतंक से निजात के लिए वैचारिक रणनीति तैयार कर सोशल मीडिया के माध्यम से कत्यूर घाटी के वाशिंदों के समूह गठित कर जन अभियान की बुनियाद रखी। तयशुदा कार्यक्रम के तहत उप जिलाधिकारी गरुड़ के माध्यम से प्रदेश के मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन दिया गया। सबसे पहले संकल्प पर्व उत्तरायणी की गरुड़ के ऐतिहासिक गांधी चबूतरा पर एक महत्वपूर्ण बैठक कर अभियान की संचालन समिति का गठन किया गया।
समिति के संरक्षक उत्तराखण्ड हाईकोर्ट के अधिवक्ता डी के जोशी बताते हैं कि यह अभियान जनता के दर्द से निकला है जिसे पूर्णतः गैर राजनीतिक व लोकतांत्रिक तरीके से अधिकतम जन भागीदारी के साथ संचालित किया जा रहा है। जन अभियान की जागरूकता टोलियां इन दिनों घाटी के अलग-अलग गांवों में संपर्क कर रही है। इसी का नतीजा है कि गत 10 फरवरी को गरुड़ घाटी के बैजनाथ में एक जनसभा का आयोजन किया गया जिसमें गांवों से जनता का भारी समर्थन मिला है। इस दिन ‘बंदर भगाओ – खेती बचाओ’ जन अभियान के तहत बैजनाथ में कत्यूर घाटी का जन सैलाब उमड़ पड़ा जिमसें महिलाओं ने अभियान में बढ़-चढ़कर भागीदारी की।
इस मौके पर अभियान के संयोजक एडवोकेट डीके जोशी ने चेतावनी देते हुए कहा कि यदि एक पखवाड़े के भीतर बंदरों की समस्या का समाधान नहीं हुआ तो वे उग्र आंदोलन करने को मजबूर होंगे। सिविल सोसायटी के तत्वाधान में भकुनखोला के मैदान में आयोजित जनसभा में सात न्याय पंचायत और एक नगर पंचायत शिकायत काउंटर में एक हजार से अधिक लोगों ने बंदरों की समस्या से सम्बंधित शिकायतें भी दर्ज कराई।
अभियान को जिला पंचायत उपाध्यक्ष नवीन परिहार और होटल ऐसोसिएशन अध्यक्ष बबलू नेगी ने समर्थन देते हुए शीघ्र बंदरों की समस्या से निजात दिलाए जाने की मांग की। महिलाओं ने कहा कि बंदर आज चूल्हे की रोटी भी नहीं छोड़ रहे हैं। फसल चट करने के साथ ही जीवन की सुरक्षा भी खतरे में पड़ गई है। इस मौके पर विभिन्न गांवों के दर्जनों लोगों ने मंच पर अपनी समस्या रखी। अध्यक्षता करते हुए ग्राम प्रधान संगठन के ब्लॉक अध्यक्ष रविशंकर बिष्ट ने कहा कि जब तक सरकार बंदरों की समस्या से निजात नहीं दिलाएगी, तब तक उनका अभियान जारी रहेगा। संचालन संयोजक हरीश जोशी ने किया।
समिति के अध्यक्ष रवि बिष्ट का कहना है कि ‘खेती बचाओ – बंदर भगाओ’ अभियान जनता की पीड़ा से निकला है और जनता ही इसका संचालन भी कर रही है। सरकार समय रहते सकारात्मक समाधान करें। कत्यूर घाटी क्षेत्र के पंचायत प्रतिनिधि, साहित्यकार, मीडिया, सेवानिवृत वरिष्ठ नागरिक समिति के इस अभियान में बढ़ चढ़कर भागीदारी कर रहे हैं। किसान संगठन बागेश्वर के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने भी जागरूकता की बागडोर संभाली है। हरीश जोशी कहते हैं कि बंदरों के आतंक से समाधान हेतु कत्यूर घाटी से उपजी इस जन आवाज के सकारात्मक परिणाम भी दिखने लगे हैं। बंदरों की समस्या को लेकर वन विभाग संजीदा हुआ है। बागेश्वर जिले के प्रभागीय वनाधिकारी ने सोसायटी व जनता के साथ बैठक कर संवाद कायम किया और विभागीय हेल्पलाइन भी जारी की है।
यही नहीं वन विभाग द्वारा नीतिगत निर्णय लेकर पहली बार उत्तराखण्ड में बंदरों के काटे जाने पर पंद्रह हजार से छह लाख रुपए तक के मुआवजे का भी ऐलान किया है। समिति के वरिष्ठ सलाहकार देवकी नंदन जोशी बताते हैं कि जनता की इस पीड़ा को लंबे समय तक दबाया नहीं जा सकता। क्रमबद्ध तरीके से अभियान के कार्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं। अभियान के हस्तक्षेप बिंदुओं को दस्तावेज की शक्ल में सम्बंधित पटलों पर प्रस्तुत किया जाएगा। यही नहीं बल्कि जरूरत पड़ी तो न्यायिक लड़ाई भी लड़ी जाएगी।
पीएमओ कार्यालय में हो चुकी है शिकायत
बंदरों की इसी समस्या से निजात दिलाने के लिए प्रदेश की गैर सरकारी संस्था देवभूमि जनसेवा समिति ने प्रधानमंत्री कार्यालय का दरवाजा खटखटाया है। संस्था के संचालक राजेंद्र सिंह नेगी ने मार्च 2022 में नमो एप पर प्रधानमंत्री को संबोधित एक शिकायत भेजी है। नमो एप पर नेगी की इस शिकायत को पंजीकृत किया जा चुका है। द्वाराहाट निवासी नेगी ने बताया कि पहाड़ी क्षेत्रों में बंदरों के आतंक की समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। पहाड़ की जनता बेरोजगार हो गयी है। बंदर खेती को भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं। कृषि व वानिकी पूरी तरह से तबाह हो गयी है। खेत बंजर हो गये हैं। बंदर फसल को होने से पहले ही तबाह कर दे रहे हैं।
ऐसे में पहाड़ की पूरी आर्थिकी बिगड़ गयी है। लोगों की बाजार पर निर्भरता बढ़ गयी है। प्रधानमंत्री को भेजी शिकायत में कहा गया है कि पहले पहाड़ों में किसान खेतीबाड़ी पर निर्भर रहता था। काश्तकार फल, साग-सब्जी के साथ-साथ परंपरागत खेती करता रहता था लेकिन अब वन्य जीवों के चलते कुछ नहीं कर पा रहा है। बेकारी व बेरोजगारी की इस समस्या ने पलायन की दर में बढ़ोतरी कर दी है। शिकायत में कहा गया है कि यह समस्या उत्तराखण्ड के एक जनपद व ब्लाक की नहीं बल्कि समूचे पहाड़ी क्षेत्रों के काश्तकारों की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस समस्या से निजात दिलाने की मांग की गयी है। साथ ही उल्लेख किया गया है कि काश्तकारों को इस समस्या के बदले किसी प्रकार का मुआवजा भी नहीं मिलता है।