उत्तराखण्ड के राजनीतिक परिदृश्य में ऐसे कई चेहरे थे, जो सियासत के ताकतवर योद्धा माने गए। लेकिन बीते साल समय का ऐसा चक्र घुमा कि जो सत्ता के करीबी थे वे पैदल हो गएं। जिनको अपनी जीत पर गुमान था और पार्टी को हराने की कसम खा रहे थे वे अपनी पुत्रवधू तक को विजय नहीं दिला सके। जिनके कंधों पर पार्टी को जिताने की जिम्मेदारी थी वे खुद हार गए। वर्ष 2022 ऐसे कई दिग्गजों के लिए खासा निराशाजनक रहा
प्रसिद्ध शायर मुनव्वर राणा का एक शेर है ‘बुलंदी देर तक किस शख्स के हिस्से में रहती है, बड़ी ऊंची इमारत हर पल खतरे में रहती है।’ यानी कि किसी भी शख्स का हर दिन एक-सा नहीं रहता। कभी उसकी किस्मत तेज होती है तो कभी उसके सितारे गर्दिश में भी रहते हैं। कुछ ऐसा ही हुआ बीते साल में उत्तराखण्ड के उन नेताओं के साथ जो 2021 में पहली पंक्ति में शुमार थे, लेकिन 2022 में समय का चक्र ऐसा घुमा की वह अंतिम पंक्ति में जाते दिखाई दिए। यह साल उन नेताओं के लिए डरावने सपने-सा बनकर सामने आया जो सत्ता में ताकतवर स्थिति में थे। उत्तराखण्ड के ऐसे नेता पैदल हो गए। 2022 साल उनकी जिंदगी में शनि चक्र की तरह आया और वे अपनी स्थिति बरकरार नहीं रख सके।
उत्तराखण्ड की साल 2022 की शुरुआत राजनीतिक रूप से नेताओं के लिए बड़ी महत्वपूर्ण मानी गई थी। क्योंकि इस साल पांचवी विधानसभा के चुनाव थे। जिसके चलते भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों के लिए यह साल चुनौती लेकर आया था। चुनावी वर्ष होने के कारण उत्तराखण्ड की प्रमुख हस्तियों के सामने इस साल अपने राजनीतिक भविष्य को बचाने की चुनौतियां भी थीं। साल की शुरुआत में ही ऐसे झटके मिले कि कुछ नेताओं का राजनीतिक भविष्य ही सवालों के घेरे में आ गया। ऐसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त है जो जीती बाजी हार गए।
हरक को पड़ गया फर्क
उत्तराखण्ड की राजनीति में सबसे ज्यादा नुकसान कद्दावर नेता हरक सिंह रावत को उठाना पड़ा। पिछले तीन दशक की राजनीति में उनकी जिंदगी में शायद ही ऐसा कोई साल आया होगा जब वह फलक से सीधे जमीन पर गिरे हों। 2021 में जहां उनका भाजपा में डंका बजता था और सबसे ताकतवर मंत्री के रूप में सत्ता के करीबी लोगां में गिने जाते थे वहीं 2022 आते ही वह न केवल अपने रुतबे को खो बैठे, बल्कि अपनी बहुरानी के राजनीतिक जीवन के पहले चुनाव को भी नहीं जिता सके। भाजपा ने उन्हें ‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से निकले’ वाली तर्ज पर पार्टी से रुखसत किया। सियासत में हंसी कितनी खोखली होती है, यह दिखाया हरक सिंह के आंसुओं ने। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के साथ कुछ दिन पहले ही सब कुछ ठीक जताने के लिए लगाए गए उनके हंसी-ठहाके 17 जनवरी को उस समय आंसुओं में परिवर्तित हो गए जब उन्हें भाजपा ने बाहर निकालकर 6 साल के लिए निष्कासित कर दिया। इसके बाद लौट कर बुद्धू घर (कांग्रेस) को आए। लेकिन कांग्रेस में शामिल होने के दौरान उन्हें जिस तरह नजर अंदाज किया गया, उससे उनकी अपनी व्यक्तिगत छवि को भी खासा नुकसान हुआ। इसके बाद कांग्रेस ने उनकी जगह उनकी बहू अनुकृति गुसाईं को टिकट देकर उनके राजनीतिक भविष्य पर प्रश्न खड़े कर दिए। हरक सिंह रावत के लिए इससे भी बुरा तब हुआ, जब विधानसभा चुनाव के परिणाम आए। कहां तो उन्होंने भाजपा से निकाले जाने के बाद पार्टी को हराने की कसम खाई थी लेकिन दूसरी तरफ वह अपनी पुत्रवधू अनुकृति गुसाईं की लैंसडौन से हार को नहीं बचा पाए।
हारदा बने हरदा
हरीश रावत के लिए भी साल 2022 किसी दुखदाई सपने से कम नहीं रहा। उन्हें एक के बाद एक कई झटके मिले। पहला झटका तब लगा जब पार्टी ने उन्हें उनकी मनपसंद सीट रामनगर के बजाय लालकुआं में चुनाव लड़ाने भेज दिया। कभी उनके विश्वासपात्र रहे रणजीत रावत के साथ उनकी अदावत के चलते उन्हें न चाहते हुए भी लालकुआं से चुनाव लड़ना पड़ा। जिसका परिणाम भाजपा प्रत्याशी डॉ मोहन सिंह बिष्ट से भारी अंतर के हार के रूप में सामने आया। इस साल हरीश रावत का मुख्यमंत्री बनने का सपना अधूरा रह गया तो दूसरी तरफ राजनीतिक पंडित यह भी मानते हैं कि ओवरएज के कारण उन्होंने सत्ता में शीर्ष पर पहुंचने का अपना यह आखिरी मौका भी गंवा दिया। रावत के लिए यह साल सत्ता में कांग्रेस का न आना ही परेशानी का कारण नहीं बना बल्कि विधानसभा चुनाव की एक और हार उनके खाते में जुड़ गई।
गोदियाल का हाल बेहाल
गणेश गोदियाल के लिए भी यह साल कुछ खास नहीं रहा। विधानसभा चुनाव में श्रीनगर विधानसभा सीट से वह बहुत ही कम अंतर से चुनाव हार गए। चुनाव के दौरान पार्टी के लिए मजबूती से काम करने के बावजूद भी गोदियाल को प्रदेश अध्यक्ष का पद गंवाना पड़ा। अध्यक्ष पद से हटने और विधानसभा हार के अलावा गोदियाल इस साल सत्ता पक्ष के निशाने पर रहें। बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति (बीकेटीसी) में वर्ष 2012 से 2017 के बीच की वित्तीय अनियमितताओं की शिकायत मुख्य सचिव डॉ एसएस संधु तक पहुंच गई। समिति के सदस्य आशुतोष डिमरी की और से समिति के पूर्व अध्यक्ष गणेश गोदियाल पर लगाए गए आरोपों पर कैबिनेट मंत्री डॉ धन सिंह रावत ने मुख्य सचिव को जांच कराने तक के आदेश दे दिए। आशुतोष डिमरी ने गोदियाल पर आरोप लगाए कि बदरीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति के तत्कालीन अध्यक्ष ने मंदिर अधिनियम 1939 का खुलेआम उल्लंघन करते हुए भगवान के खजाने से करोड़ों लुटा दिए। यह आरोप लगने के बाद गोदियाल मुख्यमंत्री धामी से भी मिले और अपने आपको बेकसूर बताया।
कांग्रेस के लिए अप्रीत हुए प्रीतम
प्रीतम सिंह ने भले ही चकराता विधानसभा सीट से अपने लगातार जीत के रिकॉर्ड को कायम रखा। वह चकराता से विधायक चुने गए। लेकिन इस कामयाबी के बावजूद भी वह कांग्रेस की राजनीति में साइड कर दिए गए। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद उन्हें अपना नेता प्रतिपक्ष का पद भी गंवाना पड़ा। न तो वे नेता प्रतिपक्ष बन सके और न ही प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी को हासिल कर पाए। राजनीतिक पंडितों की मानें तो प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव संग उनके रिश्ते बिगड़े तो प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा ने भी उनसे दूरी बनाए रख प्रीतम के सियासी कद को छोटा किए जाने के संकेत दे दिए।
सियासी युद्ध से आउट हुए युद्धवीर
साल 2022 में कुछ आरोपों के चलते सत्ता के चर्चित चेहरे युद्धवीर सिंह यादव को उत्तराखण्ड से विदाई लेनी पड़ी। युद्धवीर उत्तराखण्ड में आरएसएस के प्रांत प्रचारक के रूप में बेहद ताकतवर माने जाते रहें और भाजपा सरकार में उनकी ताकत को मुख्यमंत्री से कम नहीं माना गया। युद्धवीर की विदाई के पीछे उत्तराखण्ड में सितंबर के महीने में सुर्खियों में आने वाली एक खबर रही। इस खबर ने सियासी गलियारों में हलचल पैदा कर दी थी। उस समय उत्तराखण्ड के प्रचारक युद्धवीर यादव पर आरोप लगे थे कि उन्होंने अपने रिश्तेदारों और करीबियों को सरकारी नौकरी और विभागों में ठेके दिलाए जाने की पैरवी कर फायदा पहुंचाया। ये खबरें सोशल मीडिया पर जमकर वायरल भी हुईं। मामले की गंभीरता को देखते हुए इन खबरों पर उत्तराखण्ड सरकार को सफाई तक देनी पड़ी। यह मामला इतना गरमा गया था कि सोशल मीडिया में वायरल होने वाली खबरों को लेकर एक संघ प्रतिनिधि द्वारा युद्धवीर यादव की तरफ से पुलिस में मुकदमा भी दर्ज कराना पड़ा था। युद्धवीर पर लगे आरोपों के चलते राज्य सरकार, संघ परिवार और भाजपा तीनों संदेह के घेरे में आ गए थे। इसके बाद युद्धवीर को उत्तराखण्ड के प्रांत प्रचारक के पद से हटाकर पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रीय सह सेवा प्रमुख के पद का कार्यभार सौंपा गया। इस तरह देखा जाए तो उनका कद छोटा किया गया।
नहीं बजी बंशीधर की बंसी
रामलीला के रंगमंच पर दशरथ की भूमिका निभाने वाले बंशीधर भगत ने पिछले साल अपनी डबल इंजन की सरकार में ‘आम आदमी’ और ‘कैबिनेट मंत्री’ का जो डबल रोल खेलने की कोशिश की थी वह शायद पार्टी में उनके बड़े लोगों को रास नहीं आई। सितंबर 2021 में बिजली कटौती और पोल शिफ्ट करने के मामले को लेकर हल्द्वानी में बिजली विभाग के अधिकारियों से नाराज होकर प्रदेश की उत्तराखण्ड सरकार के कैबिनेट मंत्री बंशीधर भगत लोगों के साथ रात के अंधेरे में धरने पर बैठ गए थे। कैबिनेट मंत्री के धरने पर बैठने के बाद विभाग में तो तूफान उठना था, वह उठकर शांत हो गया लेकिन उनके इस कदम से देश भर में उत्तराखण्ड सरकार की जो किरकिरी हुई वह मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी भूले नहीं थे। शायद यही वजह रही कि इस साल अपनी दूसरी पारी में सीएम धामी ने उन्हें अपना वजीर नहीं बनाया। हालांकि भगत और डीडीहाट के विधायक बिशन सिंह चुफाल के मंत्री न बनने के पीछे पार्टी द्वारा उनके ओवर एज होने की दलील दी गई जो लोगों के गले नहीं उतरी। बिशन सिंह चुफाल और बंशीधर भगत दोनों ही ऐसे नेता हैं जो भाजपा की पिछली कई सरकारों में कैबिनेट मंत्री रहते आए हैं और पार्टी के प्रदेश मुखिया के पद पर भी तैनात रहे।
चुनावी परीक्षा में फेल यतीश्वरानंद
जिन नेताओं के लिए साल 2022 कुछ खास अच्छा नहीं रहा उनमे यतीश्वरानंद का नाम भी शामिल है। तीरथ सिंह रावत सरकार में यतीश्वरानंद राज्य मंत्री थे। धामी ने उन्हें प्रमोशन देकर कैबिनेट मंत्री बनाया था। धामी के कार्यकाल में उनका बहुत रसूख था। लेकिन वह भी धामी के साथ चुनाव हार गए। संयोग यह भी है कि वह राज्य के एकमात्र मंत्री थे जो चुनाव हारे। उन्हें छोड़कर सरकार के सभी मंत्री चुनाव जीत गए थे। प्रदेश में भाजपा के इस बार फिर सत्ता में आने और मुख्यमंत्री के रूप में पुष्कर सिंह धामी के फिर से काबिज होने के बाद यतीश्वरानंद का मंत्री बनना भी तय था, लेकिन बीते साल विधानसभा चुनाव की परीक्षा में यतीश्वरानंद फेल हो गए।
कौशिक को माया मिली न राम
साल 2021 में प्रदेश अध्यक्ष और कैबिनेट मंत्री की दोहरी जिम्मेदारी उठा रहे मदन कौशिक को साल 2022 में सबसे बड़ा झटका लगा। मदन कौशिक हरिद्वार से विधायक हैं और पिछले कई बार से लगातार इस सीट पर जीत हासिल करते रहे हैं। 2022 में न केवल मदन कौशिक को पार्टी में संगठन के सबसे बड़े अध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ा, बल्कि सरकार में कैबिनेट मंत्री के तौर पर भी उन्हें जगह नहीं दी गई। हालांकि कौशिक को राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आमंत्रित सदस्य बनाया गया लेकिन कहा जा रहा है कि मदन कौशिक को जिस तरह पार्टी ने दरकिनार किया है, उसने कौशिक के राजनीतिक भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लग चुका है। याद रहे कि विधानसभा चुनाव से पहले मदन कौशिक को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी गई थी। लेकिन धामी-2 मंत्रिमंडल में उन्हें जगह नहीं दी गई। कौशिक को मंत्री पद न मिलने के पीछे की सबसे बड़ी वजह हरिद्वार विधानसभा चुनाव के दौरान पार्टी का खराब प्रदर्शन माना गया। हरिद्वार में 2017 में भाजपा ने 11 में से 8 सीटें जीती थी। जबकि 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी महज 3 सीटों पर ही सिमट गई। यही नहीं बल्कि मदन कौशिक पर लक्सर विधायक रहे संजय गुप्ता ने विधानसभा चुनाव में भीतरघात का आरोप लगाकर अपनी हार का जिम्मेदार ठहरा दिया। कौशिक पर आरोप लगा कि उन्होंने अपने एक रिश्तेदार को आम आदमी पार्टी के टिकट पर लक्सर से चुनाव लड़वाकर संजय गुप्ता को हरवाया।