मुझे डर है, यदि हम शीद्घ्र नहीं संभले तो उत्तराखण्ड के मिश्रित वन समाप्त हो जाएंगे। कांग्रेस सरकार ने भारत सरकार से चीड़ के वनों के मध्य मिश्रित वन रोपण के लिए चीड़ को काटने की अनुमति मांगी थी। अनुमति मांगते ही पर्यावरणविदों के लंबे-लंबे बयानों और लेखों ने सारा मामला उलझा दिया। चीड़ हिमालयी वनों का चौकीदार है, उसे गेट पर रहना चाहिए, न कि द्घर के अंदर। उत्तराखण्ड में चौकीदार द्घर के अंदर द्घुस आया है। जंगलों के मूल वृक्ष द्घर के बाहर हो गए हैं। पर्यावरणविद् और पर्यावरण भवन में बैठने वाले नौकरशाह इस विडंबना को समझे बिना, अपनी कागजी सोच की चाबुक फटकार देते हैं। इसी सोच का परिणाम है, आज वन एवं वनवासी (ग्रामवासी) वनों की सुरक्षा से विमुख हो गए हैं
म्य र जंगव से सरकारी जंगल तक की उत्तराखण्ड के जंगलों की विकास यात्रा बड़ी ही दिलचस्प है। उत्तराखण्ड के लोगों ने अपने जंगलों पर अंग्रेजों के दखल के विरुद्ध भी आवाज उठाई थी। गांव के लोगों के इस संद्घर्ष ने देश के इस भू-भाग में देश की आजादी की लड़ाई को शक्ति दी। सातवें दशक तक गांव का अपने जंगलों से मोह बना हुआ था। पतरौल (फॉरेस्ट गार्ड) की एक आवाज में सारा गांव अपुण जंगव की आग बुझाने चल पड़ता था। रात-रातभर पुरुष और महिलाएं आग बुझाने के काम में लगी रहती थी। गांव के लोगों को न मानदेय की दरकार रहती थी, न किसी विशेष पुरस्कार की। वे जानते थे इस जंगल में हमारा हक-हकूक है। इसकी गिरी-पड़ी लकड़ी, पत्तियों एवं जंगली झाड़ियों की लकड़ियों पर उनका हक है। जंगल में हर गांव का हक निर्धारित था। मकान बनाते वक्त इमारती लकड़ी, शादी-ब्याह में जलाऊ लकड़ी हर गांव को उपलब्ध थी। वन विभाग यदि लकड़ी का कोयला बनाता था तो नाम मात्र के दाम पर उस कोयले को गांव वालों को बेच देते थे। हमारे गांवों को तराई-भाबर के साल के जंगल में सालाना हक हासिल था। जंगल में द्घास, फल, फूल एवं अन्य वनस्पतियों पर गांवों को अद्घोषित अधिकार प्राप्त थे। जरूरतमंद को द्घर बनाने के लिए तीन हरे पेड़ों की पीडी मिल जाती थी। सबको जंगल अपना लगता था। सत्तर के दशक में राज्यों द्वारा राजस्व के लिए बड़े पैमाने पर जंगलों के उपयोग ने संसद, न्यायालय एवं पर्यावरणविदों सहित सबको चौकन्ना कर दिया। पहले एक हजार मीटर की ऊंचाई तक पेड़ों के कटान पर रोक लगी, फिर वन संरक्षण कानून अस्तित्व में आया। हम एक छोर से दूसरे छोर पर पंहुच गए। वन कानून और वन अधिकारियों के अव्यावहारिक रवैये ने गांवों के लोगों को जंगल से दूर कर दिया। वन विभाग ने गांव के जंगल को सरकारी जंगल द्घोषित कर गांव और जंगल के संबंध को तोड़ दिया। हमारी अपनी वन पंचायतों, लठ्ठ पंचायतों, हमारे गौचर पनद्घट तक वन कानून के गिरफ्त में आ गए। जिस पतरौल के लिए मेरे गांव से दही की ठेकी या दूध का लोटा जाता था, वहीं पतरौल गांव वालों को दुश्मन दिखाई देने लगा। जंगल से जंगल वाले दूर हो गए। आज जंगल में आग लगती है, गांव वाले इत्मिनान से बैठे दहल-पकड़ खेल रहे होते हैं। वाह रे आधुनिक वन व्यवस्था, गांव वालों को उनके अपने जंगल से विमुख कर दिया। आज राज्यों का वन प्रशासन राज्य सरकार की भी नहीं सुनता है। वह जंगलों का वास्तविक राजा है। इस राजा ने प्रारंभिक वर्षों को छोड़कर जंगलों के विकास के लिए कोई सार्थक सोच युक्त कार्य नहीं किया है। मैं मुख्यमंत्री के रूप में बड़ी मुश्किल से चीड़ की नर्सरियों को बंद करवा पाया। अब बांज, बुरांश, काफल, तिमरू, अखरोट आदि की नर्सरियां तैयार हो रही हैं। मैंने मेहल, द्घिंद्घारू, तिमरू, तेजपत्ता, किन्गोड़ा आदि की नर्सरियां तैयार करने के आदेश दिए थे। ऐसा हो रहा है, यह देखने तक मैं मुख्यमंत्री नहीं रहा। मेरी सामान्य सोच है, हमें जंगल बचाने के लिए उत्तराखण्ड के जंगलों को साठ वर्ष पूर्व की स्थिति में लाना पड़ेगा। कठिन कार्य है, मगर असंभव नहीं है। उत्तराखण्ड के जंगलों में दो दादा द्घुस आए हैं। चीड़रूपी दादा अंग्रेजों के द्वारा लाया गया और धीरे-धीरे पहाड़ों के जंगलों में छा गया। सागवान हमारे कुछ समझदार लोग लाए और इसका क्षेत्र भी बढ़ता जा रहा है। मैं वन विज्ञानी नहीं हूं, मगर मेरा सामान्य ज्ञान कहता है कि इन दोनों का फैलाव हमारे मिश्रित वनों के अस्तित्व के खिलाफ है। चीड़ ने पहले बांज, बुरांस, काफल और जंगली झाड़ियां निपटाई। अब चीड़ की पत्तियों से लग रही आग, जंगलों की वनस्पतियों, जड़ी-बूटियों, वन मित्र, पशु-पक्षियों, तितलियों सहित अन्य कीटों और जीवों को समाप्त कर रही है। मैंने देखा है, यदि किसी जंगल में दो-तीन वर्ष लगातार आग लग रही है तो जंगल में स्थानीय वनस्पतियां नहीं उग रही हैं। मैदानों एवं गर्म स्थानों में ऐसे जंगलों में छोटी वनस्पति के रूप में लेंटाना आदि प्रजातियां उग रही हैं जो हमारी जंगलों की जैव विविधता को पूर्णतः नष्ट कर देंगी। लेंटाना आदि के कारण बांस सहित हाथी आदि जानवरों के भोज्य वनस्पतियां जंगलों से गायब हो रही हैं। तराई एवं भाबर के जंगलों में साल के साथ शीशम, खैर, आम, हल्दू, आंवला, बांस आदि प्रजातियां स्वभाविक रूप से पैदा होती थी एवं बढ़ती थी। ऐसा सागवान और यूकिलिप्टिस के जंगलों में नहीं हो रहा है। चीड़, सागवान और यूकिलिप्टिस की पत्तियां गिरने के बाद शीद्घ्र सूखती हैं और आग फैलाने का बड़ा कारण बनती हैं। जंगलों में वर्षों से गिरी पड़ी लकड़ी जिसे पहले गांव वाले उठा लेते थे, आग फैलाने में मदद करती है। मुझे डर है, यदि हम शीद्घ्र नहीं संभले तो उत्तराखण्ड के मिश्रित वन समाप्त हो जाएंगे। कांग्रेस सरकार ने भारत सरकार से चीड़ के वनों के मध्य मिश्रित वन रोपण के लिए चीड़ को काटने की अनुमति मांगी थी। अनुमति मांगते ही पर्यावरणविदों के लंबे-लंबे बयानों और लेखों ने सारा मामला उलझा दिया। चीड़ हिमालयी वनों का चौकीदार है, उसे गेट पर रहना चाहिए, न कि द्घर के अंदर। उत्तराखण्ड में चौकीदार द्घर के अंदर द्घुस आया है। जंगलों के मूल वृक्ष द्घर के बाहर हो गए हैं। पर्यावरणविद् और पर्यावरण भवन में बैठने वाले नौकरशाह इस विडंबना को समझे बिना, अपनी कागजी सोच की चाबुक फटकार देते हैं। इसी सोच का परिणाम है, आज वन एवं वनवासी (ग्रामवासी) वनों की सुरक्षा से विमुख हो गए हैं। उत्तराखण्ड के जंगलों में इस वर्ष भी भयानक आग लगी है। लगभग ४ हजार हेक्टेयर जंगल आग से बुरी तरह जल गए हैं। इस वर्ष अभी तक सत्रह सौ से अधिक आग लगने की द्घटनाएं हुई हैं। अकेले नेशनल पार्क एरिया में १५३ हेक्टेयर जंगल आग की चपेट में आए हैं। पिछले दस वर्षों में २२ हजार हेक्टेयर से अधिक जंगल आग से झुलसे हैं। हजारों प्रजाति के पशु-पक्षी, तितलियां एवं कीट जो जंगल जीवन के हिस्सा थे, नष्ट हुए हैं। यदि एक वन भाग में इस वर्ष आग लगती है तो उसे पूर्व स्वरूप में आने में १२ वर्ष से अधिक समय लगता है। बशर्ते जंगल का वह भाग १२ वर्ष तक आग से बचा रहे। कई प्रकार की जड़ी-बूटियों के विषय में यह कहा जाता है कि उन्हें हम एक ही आग में हमेशा के लिए खो देते हैं। वनों की लगातार आग मिट्टी के वनस्पति उत्पादक क्षमता को ही नष्ट कर देते हैं। यह स्थिति वनों के विकास के लिए खतरनाक है। हिमालयी वनों में एक स्वनिर्मित सुरक्षाचक्र है आद्रता का। आद्रता आती है, मिश्रित वनों से, कुछ प्रजातियों के वृक्ष वायुमंडल की नमी को जल आद्रता में बदलते हैं और कुछ वनों में छाया पैदा करते हैं। खूंसट चीड़ का पेड़ ऐसा कुछ नहीं करता, हां इसकी जड़ें अपने लिए गहराई से पानी खींचती हैं और पत्तियां जमीन में अमलीयता पैदा करती हैं। प्रश्न है हम करें क्या? हमारा अनुभव क्या कहता है। मेरा अनुभव त्रिकोणीय रणनीति को आगे बढ़ाने का है। मैंने मुख्यमंत्री के रूप में स्वयं वनों को लेकर ३१ पहलें प्रारंभ की थी। मैं इस वक्त उनके विस्तार में नहीं जाऊंगा। हां, जंगल बचाने की रणनीति पर अवश्य कुछ कहूंगा। सर्वप्रथम हमें जंगलों में ग्रामवासियों और वनवासियों के हक-हकूबों, जिनमें लोपिंग और गिरी पड़ी लकड़ी का उठान भी सम्मिलित है, को कानून का रूप देना चाहिए। ताकि सरकारी जंगल फिर हमारे जंगल में बदल जाएं। चीड़ के विरुद्ध इतना लिखने का अर्थ यह नहीं है कि मैं चीड़ को पूर्णतः नष्ट करने के सुझाव को आगे बढ़ा रहा हूं। हां, मैं चीड़ के निरंतर विस्तारित हो रहे साम्राज्य को नियंत्रित करने की सलाह दे रहा हूं। मैंने केंद्र सरकार से अनुरोध किया था, हमें अपने खेतों और गौचर, पनद्घट से योजनाबद्ध तरीके से चीड़ के वृक्ष काटने की अनुमति दी जाए और इनके स्थान पर राज्य में प्रचलित ”मेरा वृक्ष-मेरा धन योजना” के तहत आने वाले परंपरागत मगर गांव की जीविका से जुड़े वृक्षों के रोपण का अभियान आगे बढ़ाएं। वन विभाग प्रत्येक फॉरेस्ट बीट के एक भाग में वर्किंग प्लान के तहत चीड़ का सफाया कर वहां चौड़ी पत्ती के वृक्षों का रोपण करे। पंचायती वनों और नाप खेतों में चीड़ के वृक्ष को अग्राह्य द्घोषित किया जाए। आज चीड़ गांव के अंदर तक आ गया है। आग लगने की एक चौथाई द्घटनाएं अनजाने में गांवों के जंगलों या ऐसे गौचर से प्रारंभ हो रही हैं, जहां बड़ी संख्या में चीड़ है। राज्य के वन विभाग को समझना चाहिए कि कोर्ट में ग्रामवासियों को आग की द्घटनाओं के लिए जिम्मेदार बताने के बजाय इन द्घटनाओं का आंतरिक विश्लेषण करें। गांववासी जंगलों से कितने ही विमुख हो गए हों, मगर उनमें जंगलों के प्रति आपराधिक भावना नहीं है। वन विभाग के ऐसे गैर जिम्मेदारना बयान स्थिति को और बिगाडेंघ्गे। तीसरे सुझाव के रूप में मैं कहना चाहता हूं कि हम उत्तराखण्ड के जंगलों में जितना पानी समेटेंगे, आग की द्घटनाएं उतनी कम हो जाएंगी। हमारे जंगलों की आद्रता को लौटाने एवं जंगल से गांव वालों को जोड़ने के लिए २०१४-१६ में एक सुविचारित कार्यक्रम प्रारंभ किया गया था। जिसे वर्ष २०१७ में सरकार बदलने के साथ भुला दिया गया है। यह कार्यक्रम था, जंगलों में पांच वर्षों में २० हजार जल कुंड एवं जल अवरोधी ढांचे खड़ा करना और ५० लाख टे्रंचेज बनाने का। वन विभाग ५ हजार जलकुंड और एक लाख टे्रंचेज बना पाया था कि इस कार्यक्रम पर ब्रेक लग गया है। सरकार बदलने के साथ बहुत सारे बदलाव आते हैं, मगर ऐसे बदलाव सुविचारित होने चाहिए। पिछली सरकार ने आग बुझाने के लिए ५ हजार फायर गार्ड रखे थे। इन गार्डों को वर्ष २०१८ में पूर्णतः भुला दिया गया है। वर्ष २०१७ में उत्तराखण्ड के जंगलों में आग रोकने में इन ग्रामीण फायर गार्डों और महिलाओं ने बड़ी भूमिका अदा की थी जिन्हें तात्कालिक सरकार ने चीड़ की पत्तियां इकट्ठा करने में नकद धन देने या मनरेगा श्रमिक का मानदेय देने का निर्णय लिया था। मेरा मानना है यदि उपरोक्त तर्ज पर या इससे बेहतर योजना के साथ राज्य सरकार गांव वालों की आजीविका को तात्कालिक और दीर्द्घकालिक रूप से वन एवं वृक्ष से जोड़ेगी तो राज्य के जंगल आग से बचेंगे भी और अन्य राज्यों के लिए भी आजीविका मॉडल बन सकते हैं। हमारा नारा होना चाहिए ”जय वन, जय वनवासी।