हरेला उत्तराखण्ड के परिवेश और खेती से जुड़ा लोक पर्व है। जिसे कुमाऊँ में बड़े धूम धाम से मनाया जा रहा है। सावन के महीने में भगवान शिव का वास हिमालय की श्रंखलाओ में रहता है जिस वजह से हरेले का महत्व बढ़ जाता है ।
देवभूमि उत्तराखण्ड जहां अपने तीर्थ स्थलों को लेकर दुनिया भर में प्रसिद्ध है वही यहां की संस्कृति और लोक पर्व आपको मंत्रमुग्ध होने को मजबूर कर देते है। उत्तराखण्ड को देश मे सबसे ज्यादा लोक पर्वो वाला राज्य भी कहा जाता है, इन्ही में से एक है हरेला। खास बात है कि कोई भी त्योहार साल में जहा एक बार आता है वही हरेला साल में दो बार आता है। यह लोक पर्व चैत्र, सावन और आषाढ़ में मनाया जाता है , जिसमे से सावन के हरेले का विशेष महत्व है जिसको सम्पूर्ण कुमाऊँ में धूम धाम के साथ मनाया जाता है। सावन के पहले दिन हरेले को काटा जाता है। जिसे विशेष रूप से छोटे बच्चो के सर में रखा जाता है और उन्हें दीर्घायु की कामना की जाती है। नौ या सात प्रकार अनाज को मिलाकर हरेला बोया जाता है। जिसमे विशेष तौर पर मक्का, गौहत, सरसो, जौ, गेंहू, उरद के बीज बोए जाते है। हरेले की पूर्व संध्या को भगवान भोले नाथ के भजनों के साथ डिकर पूजा की जाती है जिसमें भगवान भोले नाथ और पार्वती की महिलाओं द्वारा निर्मित मिट्टी की मूर्तियों को हरेले के बीच रखकर पूजा जाता है।
हरेले के पत्तो को काट कर देवी देवताओं को अर्पित करने व हरेले के तिनके परिवार के सभी सदस्यों के सिर में रखकर सुख समृद्धि कि कामना की जाती है। इसके बाद हरेला व पकवान घर घर बाटने की परम्परा है। वही लोक कथाओं के अनुसार हरेले के दिन ही भगवान शिव एवं पार्वती का विवाह हुआ था। कर्क रेखा में सूर्य के प्रवेश से सावन माह की शुरुआत हो जाती है जिसे चातुर मास भी कहा जाता है। यह चार माह का होता है। लोक पर्व हरेला सुख समृद्धि और सौंदर्य का प्रतीक भी है।
पलायन का दंश झेल रहे उत्तराखण्ड की संस्कृति को संजोए रखने के लिए लोक पर्वो में युवा पीढ़ी को बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने की जरूरत है, ताकि नई पीढ़ी अपनी संस्कृति और सभ्यता से भली भाती परिचित रहे, और इन परम्पराओ को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दें जिससे विलुप्ति की तरफ बढ़ रहे लोक पर्वो को बचाया जा सकें।