‘पहाड़ को ठण्डो पाणि, के भली मीठी वाणी…’
गीत जैसे ही आकाशवाणी या फिर किसी कार्यक्रम में सुनाई देती वैसे ही घर-गांव से लेकर मेले-कौथिगों में लोगों का हुजुम उस आवाज की ओर अनायास ही खिंचा चला जाता था। यह आवाज किसी और की नहीं, बल्कि पहाड़ की पहली लोक गायिका कबूतरी देवी की होती थी। उनकी गीतों को सुनने लोग उमड़ पड़ते थे। लेकिन आज पहाड़ के लोक की मिठास, खनखकती, मखमली और जादुई आवाज सदा के लिए चल बसी। अब हमें कभी भी उनकी जादुई आवाज लाइव सुनने को नहीं मिलेगी। कबूतरी देवी बेशक शारीरिक रूप से अपने प्रशंसकों को छोड़ चली गई हों पर उनका आवाज हमेशा पहाड़ों पर खनकती रहेगी।
आपको बताते चलें कि 70 के दशक में कबूतरी देवी एक पहाड़ी गांव से स्टूडियो पहुंचकर रेडियो जगत में अपने गीतों से धूम मचा दी थी। ‘आज पनि झौं-झौं, भोल पनि झौं-झौं’, ‘पोरखिन तन्है जूंला’ और ‘पहाड़ों को ठण्डो पाणि, कि भलि मीठी बाणी’ जैसे गीतों को गाने वाली एक मखमली, जादुई और खनकती आवाज आपके जेहन में जरुर होगी। कबूतरी देवी ने आकाशवाणी के लिए करीब 100 से अधिक गीत गाए। जीवन के लगभग 20 साल अभावों में बिताने के बाद 2002 से उनकी प्रतिभा को उचित सम्मान मिलना शुरू हुआ। उनके निधन से पूरा पहाड़ और उनके प्रशंसक शोक में डूबे हैं।
गौरतलब है कि कबूतरी देवी मूल रुप से सीमांत जनपद पिथौरागढ़ के मूनाकोट ब्लॉक के क्वीतड़ गांव की निवासी थीं। यहां तक पहुंचने के लिये आज भी अड़किनी से 6 कि.मी. पैदल चलना पड़ता है। इनका जन्म काली-कुमाऊं (चम्पावत जिले) के एक मिरासी (लोक गायक) परिवार में हुआ था। संगीत और लोक गायन की प्रारंभिक शिक्षा इन्होंने अपने गांव के देब राम, देवकी देवी और अपने पिता रामकाली जी से ली। ये उस समय के एक प्रख्यात लोक गायक थे। पहाड़ी गीतों में प्रयुक्त होने वाले रागों का निरंतर अभ्यास करने के कारण इनकी शैली अन्य गायिकाओं से अलग है। विवाह के बाद इनके पति दीवानी राम ने इनकी प्रतिभा को पहचाना और इन्हें आकाशवाणी और स्थानीय मेलों में गाने के लिये प्रेरित किया। उस समय तक कोई भी महिला संस्कृतिकर्मी आकाशवाणी के लिये नहीं गाती थीं। 70 के दशक में इन्होंने ऐसा कर धूम मचा दी थी।
कबूतरी देवी विशेषतः ऋतु आधारित गीत (ऋतुरैंण) गाया करती थीं। उन्होंने जो भी गीत गाये वे दादी-नानी से विरासत में मिले प्रकृति से संबंधित लोकगीत थे। अर्थात पहाड़ के आम जनमानस में बसे लोकगीत को पहली बार उन्होंने बाहर निकाला। उन्होंने आकाशवाणी के लिये लगभग 100 से अधिक गीत गाये। उनके गीत आकाशवाणी के रामपुर, लखनऊ, नजीबाबाद और चर्चगेट, मुंबई के केंद्रों से प्रसारित हुये। उन दिनों उन्हें इन केंद्रों तक उनके पति लेकर जाते थे। जिन्हें वे नेताजी कहकर पुकारती हैं और एक गीत की रिकार्डिंग के उन्हें 25 से 50 रुपये मिलते थे। अपने पति की मृत्यु की बाद इन्होंने आकाशवाणी और समारोहों के लिये गाना बंद कर दिया था। इस बीच इनका एक मात्र पुत्र पहाड़ की नियतिनुसार पलायन कर गया और शहर का ही होकर रह गया। लेकिन पहाड़ को मन में बसाये कबूतरी को पहाड़ से बाहर जाना गवारा नहीं था। इस कारण उन्होंने अपने जीवन के 20 साल अभावों में गुजारे थे।
कबूतरी देवी के गीत लोक में इस कदर रचे बसे हैं कि उन्हें कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। कबूतरी देवी ने न केवल उत्तराखण्डी लोक गीत को नई ऊंचाई दी बल्कि अपने पहाड़ को अपने दिलों में हमेशा जिंदा रखा। उन्होंने पहाड़ को कभी भी नहीं छोड़ा। उसी पहाड़ में उन्होंने अपनी अंतिम सांसे लीं। तंत्र और नीति नियंता लोककलाकारों के प्रति कितना संवेदनशील है इसकी बानगी कबूतरी देवी का पूरा जीवन संघर्ष है। काश! समय रहते कबूतरी देवी की मदद हो पाती।