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Uttarakhand

दोर्यावो की अस्मिता और विजय का पर्व

स्याल्दे बिखौती

 

 

  •      प्रमोद शाह
    लेखक उत्तराखण्ड पुलिस में उपाधीक्षक के पद पर कार्यरत हैं।

 

उत्तराखण्ड में कत्यूरी राजवंश के बिखराव के दौर में (सन् 1000 उपरांत) उत्तराखण्ड में स्थानीय क्षत्रपों के मध्य 300 से अधिक बग्वाल (पाषाण युद्ध) देखे जाते हैं। इन पाषाण युद्ध में कत्यूरी राजवंश के बेहद निष्ठावान क्षत्रपों का समूह जिसमें राणा, रौतेला, रजवार, बिष्ट, अधिकारी, चौधरी आदि जो ऐतिहासिक द्वाराहाट क्षेत्र में निवास करते रहे हैं जिन्हें त्रिपाठी, उपाध्याय, भट्ट, मैनाली आदि विद्यवत ब्राह्माणों का संश्रय प्राप्त है। जिन दोर्यावो के पराक्रम और विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाने वाला यह स्याल्दे बिखौती का मेला सर्वाधिक प्रसिद्ध है। विश्वत संक्रांति वैशाख माह की प्रथम तिथि, जिस दिन सूर्यवंशी कत्यूरी राजवंश, सूर्य के उच्च होने की तिथि पर विशेष पूजा अर्चना करते हैं, उसी दिन स्वयं को संगठित कर अपने युद्ध के शस्त्र वाद्य यंत्र, नर्सिंगा, ढोल-दमाऊ और निशाणों के साथ अपनी विजय परंपरा और शक्ति का प्रदर्शन स्याल्दे मेले में दोर्याव करते हैं। इस दिन समूचे द्वाराहाट क्षेत्र के 125 से अधिक गांव जो आज मल्ला दौरा, बिचला दौरा और तल्ला दौरा जो सिलोर महादेव तक विस्तारित हैं, में निवास करते हैं।

जो चैत्र मास के मासांत की रात्रि में बिमांडेश्वर जिसे काशी के समान शिव का पवित्र तीर्थ माना जाता है, वहां सूर नदी में स्नान कर अपनी विजय पताका (निशाण) को भी स्नान कराने के साथ ही कुलदेवी और शीतला देवी के चरणों में शीश नवाने के साथ, अपने वीर पुरुषों का स्मरण कर वीरखम्म/विजय स्तम्भ (ओडे़) को अपने परंपरागत उत्साह और बहादुरी की परंपरा से भेंट कर युद्ध में विजय के उल्लास की परम्परा का स्मरण कर यह मेला मनाते हैं।

स्याल्दे बिखौती मेले का लगभग 1000 वर्ष से अधिक का ज्ञात इतिहास है, समय के साथ इसकी मान्यता और परंपराओं में भी परिवर्तन देखा गया, द्वाराहाट क्षेत्र जो कत्यूरी राजवंश में इसलिए भी महत्वपूर्ण था, क्योंकि इसकी सीमा जहां रामगंगा के पूर्वी तट जिस तक समय-समय पर टिहरी के परमार वंश का आक्रमण होता रहता था। वहां क्षेत्र की किलेबंदी के लिए इस क्षेत्र का शक्तिशाली होना आवश्यक था।

प्रारंभ में कोसी नदी के पश्चिमी तट (हवलबाग) से रामगंगा के पूर्वी तट (पाली-पंछाऊ) तक और दक्षिण में सिलौर महादेव तक का क्षेत्र सैनिक रूप से संगठित होकर द्वाराहाट एक विशेष आंचलिक पहचान का केंद्र बन गया था, 1568 में अल्मोड़ा में चंद्र राजवंश की राजधानी बनने तक द्वाराहाट ही मुख्य कस्बा था। कत्यूर क्षत्रप अपनी शक्ति का प्रदर्शन हर वर्ष वैशाख माह की प्रथम तिथि को स्याल्दे-बिखौती मेले के रूप में करता था। सैनिक शक्ति प्रदर्शन के प्रतीक रूप में प्रारंभ यह स्याल्दे बिखौती का मेला धीरे-धीरे द्वाराहाट क्षेत्र की अस्मिता और आंचलिक पहचान का पर्व बन गया।
कालांतर में इस क्षेत्र में कतिपय मतभेद उत्पन्न हुए जिस कारण इसका क्षेत्र संकुचित हुआ और केरौड़ों (कैड़ा) बरौडो (बोरा, लोद सोमेश्वर) की पट्टियां इस मेला क्षेत्र से अलग हो गई, तब से इस मेले की पटकथा को दोर्यावो तथा केरौडो के आपसी संघर्ष और इसमें दोर्यावो की विजय के रूप में प्रचारित किया गया, लेकिन यह कथन पूरी तरह ऐतिहासिक रूप से प्रमाणिक नहीं है। इस तथ्य की पुष्टि ऐसे भी होती है कि दोर्यावो और केरौडो़ पट्टी के निकटस्थ वैवाहिक संबंध आज भी हैं और दोनों ही पट्टियों की अधिष्ठात्री देवी दूनागिरी मां है।

वर्तमान में स्याल्दे बिखौती मेले का जो स्वरूप है, उसमें पूरे दौरा पट्टी को वीरों के तीन दलों में विभक्त किया गया है। ऑल: यह है खीर गंगा (खीरो गाड़ )के पूर्वी भाग के 6 गांव, जिसमें विजयपुर, धर्म गांव, मल्ली मिराई, मिरई आदि प्रमुख हैं। नौज्यू: पूर्व में खीर गंगा के पश्चिम से सिलोर महादेव तक का समूचा क्षेत्र नौज्यू में शामिल था, लेकिन बाद में एक अलग धड़ा गरख के रूप में उभरा, वर्तमान में यह गरख धड़ा ही सबसे बड़े क्षेत्र जिसमें लगभग 40 गांव शामिल हैं का प्रतिनिधित्व करता है। जिसमें मुख्य रूप से सलना, बसेरा, असगोली, आदि गांव शामिल हैं, कुछ दशक पूर्व तक इस मेले में ईड़ा बारखाम तक के निशाण अपनी भागीदारी करते थे। जब मेला अपने पूरे उत्कर्ष में था तब 72 जोड़े निशाण मेले में शामिल होकर अपने वीरों का सम्मान ओड़ा भेट कर करते थे। अब निशाणों की यह संख्या धीरे-धीरे घटकर 25 से 30 जोड़े तक रह गई है।

पहली तिथि को बट पूजा जिसे नौज्यू धड़ा संपन्न करता है, के साथ ही मेले का आगाज होता है, दूसरे दिन मुख्य मेला स्याल्दे बिखौती शुरू होता है जिसमें ऑल और गरख के वीर लाठियां और पत्थर से ओड़े को भेंट कर (पीट कर) अपनी विजय परंपरा के पर्व को मानते हैं। पहले कौन सा दल ओड़ा भेटगा इसके लिए वर्षवार चक्रानुक्रम निश्चित है। समय के साथ निशाणों की संख्या घटने का एक मुख्य कारण यह भी है, निशाण देवी परंपरा के प्रतीक हैं और इनका मान सम्मान रखना, उनकी परंपरागत सुरक्षा बेहद कठिन और समर्पण का काम है जिसका अभाव तेजी से गांवो में देखा जा रहा है।

ओड़ा भेटने के बाद पूरे क्षेत्र में हर्ष और उल्लास का वातावरण होता है, लोग एक दूसरे से मिलते हैं बधाई देते हैं मिठाई और जलेबी बांटते हैं, मेले की पूरी अवधि में महिलाएं बच्चे और युवा झौड़े में नृत्य करते हुए नाचते गाते हैं, अगले दिन मेले में लगे अस्थाई बाजार से महिलाएं बच्चे बुजुर्ग सभी खूब खरीदारी करते हैं, यह मीना बाजार भी मेले का मुख्य आकर्षण है। रुझौड़े: झौड़ा स्याल्दे बिखौती मेले का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है, क्षेत्र के लोगों को मेले से अधिक उत्सुकता इस बात पर रहती है कि इस वर्ष कौन सा झौड़ा चलन में है । शताब्दियांे से स्याल्दे बिखौती के झौड़े सामाजिक चेतना और संवाद की जीवंत परंपरा रहे हैं।

इसमें ‘हीयमां चांदी का बटना म्यर दिल में छू तेरी रटना।’ समाज में प्रेम के स्थाई भाव के महत्व को दर्शाता है। समय-समय पर समाज को नियंत्रित करने के लिए उसको दिशा देने के लिए भी सामाजिक विमर्श के विषयों पर मेले में झौड़े बनते रहे हैं। जहां 1790 के साल में गोरखा आक्रमण और अत्याचार के विरुद्ध झौड़ा बना, वहीं कुली बेगार के साल भी हमने स्याल्दे बिखौती में झौड़ा बना कर, अपनी उच्चतम सामाजिक चेतना को प्रदर्शित किया…।

विभिन्न सामाजिक विषयों पर अलग-अलग वर्ष बने झौड़ों से इस चेतना के स्तर को समझा जा सकता है।

1972 में जब कोऑपरेटिव आंदोलन को भ्रष्टाचार का बट्टा लगा तब झोड़ा बना
‘बिष्णुआं हैरो सटबटुआ, रेबुआ हैरो जालि,
नै गाडो सौरज्यू समिति रूपैं, समिति हैगे खालि’
आपातकाल में इंदिरा गांधी और संजय गांधी पर कटाक्ष
‘इंदिरा तेरो चुनावा चिन्हा गौरु दगडि बाछ
इंदिरा तेरो गौरु ब्यै रोछ, संजया हेरौ ग्वाव।’
पलायन की पीड़ा पर केंद्रित झोड़ा
‘च्याल-ब्वारिया डिल्ली ल्है गईं, ऐकलै रैगो बुड़,
खेति-पाती बंजर है गैछ, बांजि पडिगै कुडि।’
इस वर्ष मनरेगा के घाल मेल पर कटाक्ष करता झौड़ा
‘मनेरगा म काम चली रौ, डबलों रनमन,
मदना करूं दिल्लि नौकरी, खात में डबल छन।’
इस प्रकार स्याल्दे बखौती मेला हम दोर्यावो की न केवल शानदार
गौरवशाली परंपरा है, बल्कि यह एक जीवंत सांस्कृतिक सामाजिक आंदोलन भी है। आइए अपनी इस परंपरा को बनाए रखें।

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