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Uttarakhand

नशा मुक्ति की लड़खड़ाती युक्ति

प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी युवाओं के भविष्य को गर्त में जाने से बचाने के लिए प्रयासरत हैं। उत्तराखण्ड को ‘ड्रग्स फ्री स्टेट’ घोषित करना उनकी इसी नीति को दर्शाता है। सीएम धामी का लक्ष्य है कि 2025 में युवा हो रहे इस राज्य में नशे के लिए कोई स्थान नहीं होगा। लेकिन बहुतायत में नशीले पदार्थों की खेप बरामद होने और तस्करों को गिरफ्तार करने के जो आंकड़े आ रहे हैं उससे सीएम की नशा मुक्ति की युक्ति लड़खड़ाती नजर आ रही है। वह तब है जब पांच साल पहले ही हाईकोर्ट नैनीताल इस संबंध में सोशल एक्टिविस्ट श्वेता मासीवाल की याचिका पर कड़े कदम उठाने के आदेश दे चुका है

उत्तराखण्ड में नॉरकोटिक्स यानी सूखे नशे की चपेट में आ रहे युवाओं के भविष्य को बर्बाद होने से बचाने के लिए पांच साल पहले रामनगर की सोशल एक्टिविस्ट श्वेता मासीवाल द्वारा पहल की गई। जिसके तहत नशे के फैलते जाल पर रोक लगाने के मद्देनजर हाईकोर्ट नैनीताल में एक याचिका दायर की गई। न्यायालय ने याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार को इस बाबत कड़े कदम उठाने के आदेश दिए। इन आदेशों को सरकार ने कितनी गंभीरता से लिया इसे जेल और शिक्षा विभाग की लापरवाही से समझा जा सकता है। जेलों में ड्रग्स एडिक्ट कैदियों को चिÐत करने के लिए डॉग स्क्वाड तैनात नहीं हुए तो स्कूलों में छात्रों को नशे के दुष्प्रभाव से परिचित कराने और जागरूकता लाने को स्कूलों में पाठ्यक्रम तक शुरू नहीं किए गए। हालांकि अधिकतर विभागों का दावा है कि नशे पर प्रभावी नियंत्रण लगाने के लिए वे हाईकोर्ट के आदेशों का पालन कर रहे हैं।


सवाल यह है कि अगर आदेशों का पालन हो रहा है तो फिर प्रत्येक वर्ष नशे के अवैध धंधे में बढ़ोतरी कैसे हो रही है। नशीले पदार्थ और नशा तस्करों का अधिक संख्या में पुलिस द्वारा पकड़ा जाना खुद इसकी तस्दीक करता है। श्वेता मासीवाल की मानें तो पुलिस मात्र औपचारिकता कर नशे पर नियंत्रण के दावे कर रही है। जबकि जमीनी हकीकत देखेंगे तो पता चलेगा कि आज भी हालात कुछ बदले नहीं है, बल्कि स्थिति पहले से ज्यादा गंभीर हो चली है। विभागीय लापरवाही का अंदाजा इससे भी लगता है कि जिस याचिकाकर्ता ने पांच साल पहले कोर्ट में याचिका दाखिल की उससे इस बाबत पुलिस द्वारा बात तक नहीं की गई। पुलिस चाहती तो याचिकाकर्ता से इस संबंध में काफी जानकारी ले सकती थी। याचिकाकर्ता श्वेता मासीवाल इस बाबत कई शहरों में न केवल ड्रग्स प्वॉइंट चिÐत कर चुकी हैं, बल्कि तस्करों के अड्डे तक का पूरा ब्योरा जुटाने में कामयाब हुई हैं। जबकि वे अड्डे और नेटवर्क अभी तक पुलिस की पहुंच से दूर है। सवाल यह भी है कि जब एक याचिकाकर्ता महिला ड्रग्स प्वॉइंट और तस्करों के बाबत इतनी जानकारी रखती है तो पुलिस के लंबे हाथ वहां तक क्यों नहीं पहुंच पाए हैं?

हाईकोर्ट नैनीताल ने ‘श्वेता मासीवाल बनाम स्टेट ऑफ उत्तराखण्ड एंड अदर्स’ मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के 2017 में आशा बनाम स्टेट गवर्मेंट ऑफ एनसीटी ऑफ दिल्ली एंड अदर्स में सुनाए गए फैसले को हूबहू उत्तराखण्ड में लागू करने के आदेश दे दिए। इसके तहत कई विभागों को नशे पर नियंत्रण लगाने के लिए इस तरह आदेश दिए गए।

पुलिस महानिदेशक

प्रदेश के प्रत्येक जिले में नारकोटिक्स दस्ते का गठन किए जाएंगे। जिसका हेड एक इस्पेक्टर रैंक का अधिकारी होगा। उसके पास दो सब इस्पेक्टर, एक एएसआई, 7 कॉन्स्टेबल तथा एक हेड कॉन्सटेबल होंगे। यह दस्ता 4 सप्ताह में बनाया जाना है। दस्ते का काम पूरे जिले में नशे की गतिविधियों पर नजर रखना होगा। साथ ही यह भी जांच करनी होगी कि नशा सामग्री कहां-कहां बेची जा रही है। जो भी नारकोटिक्स दस्ता बनाया जाएगा उसे कैसे जांच करनी है इसकी स्पेशल ट्रेनिंग दी जाएगी।
प्रदेश के सभी पुलिस थानों में एक रिकॉर्ड बनाया जाएगा जिसमें प्रत्येक थानों में एनडीपीसी अधिनियम के तहत जिन लोगों को पकड़ा गया उन पर लगातार निगरानी रखनी है, साथ ही जेल से बाहर आने पर भी उनकी गतिविधियों पर नजर रखना होगा। पूरे प्रदेश में सुलोचन, फ्लूड, थिनर को मार्केट में प्रतिबंधित कर दिया गया है। पुलिस इनकी जांच करेगी कि वह बिक्री तो नहीं किए जा रहे हैं।

उच्च शिक्षा निदेशक, विद्यालयी शिक्षा निदेशक

सरकारी स्कूल, सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल, पॉलिटेक्निक स्कूल और अल्पसंख्यक स्कूलों की सूची बनाएं। सभी जगह नशीले पदार्थों की निगरानी और उपलब्धता पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से इस सूची को पुलिस को शेयर किया जाएगा।
नारकोटिक्स दस्ते के साथ तालमेल बनाकर रखा जाएगा ताकि दस्ता इन पर नजर रख सके। उच्च शिक्षा निदेशक, विद्यालयी शिक्षा निदेशक पब्लिक स्कूलों में भी जाएंगे, वहां का दौरा कर उसकी रिपोर्ट बनाएंगे।

राज्य सरकार

स्पेशल स्क्वायर्ड बनाने के साथ ही इन सबका प्रचार-प्रसार किया जाए कि पूरे राज्य में दस्ते बन गए हैं। यह दस्ते नशे पर नजर रखेंगे। इस बाबत विज्ञापन भी जारी करेंगे। जनता में जागरूकता भी करेंगे।

सचिव माध्यमिक शिक्षा

2019 के शिक्षा सत्र से 10वीं, 11वीं और 12वीं के छात्रों के लिए पाठ्यक्रम में नशीली दवाओं के दुरुपयोग, अवैध तस्करी पर एक अनिवार्य और व्यापक अध्याय शामिल किए जाएं।
सभी कॉलेजों के कुलाधिपति और प्रधानाचार्य मादक पदार्थों पर रोक के लिए प्रत्येक स्कूल-कॉलेजों में एंटी ड्रग क्लब बनाए जाएंगे।

जेल विभाग

प्रदेश की प्रत्येक जेल में ड्रग्स को सूंघकर पहचानने वाले प्रशिक्षित कुत्तों का विशेष दस्ता बनाया जाएगा। जो समस्त जेलों में सुनिश्चित करेंगे कि नशे की दवाई आ रही है या नहीं। कुत्तों ने किसी कैदी को नशे लेने वाला चिÐत किया तो ऐसे कैदियों की सूची बनाई जाएगी और नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती कराए जाएंगे।

सूचना निदेशक

स्कूल-कॉलेजों में नशीली दवाओं के दुरुपयोग और दुष्प्रभावों की बाबत प्रचार-प्रसार किया जाएगा।

सूचना विभाग

नशीली दवाओं और नशा के खिलाफ प्रचार-प्रसार किया जाएगा तथा विज्ञापन जारी किए जाएंगे।

नोडल अधिकारी (स्वास्थ्य सचिव)

इन सबके ऊपर एक नोडल अधिकारी बनाया जाएगा जो इन सब पर नजर रखेंगे और देखेंगे कि नशा विरोधी अभियान से कितनी जागरूकता लाई गई। अधिकतर विभाग हाईकोर्ट नैनीताल के उक्त आदेशों पर सक्रिय तौर पर भूमिका निभा रहे हैं और नशे पर नियंत्रण के दावे कर रहे हैं। लेकिन वहीं दूसरी तरफ देखें तो अभी भी प्रदेश में नशे की प्रवृत्ति पर पूरी तरह लगाम नहीं लग पाई है। उत्तराखण्ड में शराब के व्यापक प्रसार के साथ नशे की एक नई प्रवृत्ति जिसने सब को चिंता में डाल दिया है वह है कृत्रिम नशा जिसे नारकोटिक्स और सुखा नशा के नाम से जाना जाता है। इस नशे ने धीरे-धीरे युवा पीढ़ी को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। स्मैक, चरस जैसे नशे के ये साधन आयु, लिंग और आर्थिक स्तर की सीमाओं से परे हैं। इस प्रकार के नशे में युवक-युवतियां, अमीर-गरीब, छोटे बच्चों से लेकर बड़ों तक को अपनी चपेट में ले लिया है। वर्ष 2022 की बात करें तो उत्तराखण्ड के 13 जिलों में एनडीपीएस एक्ट के तहत 1428 मुकदमे दर्ज किए गये, जिसमें लगभग 1750 नशा तस्करों को गिरफ्तार कर 22 करोड़ कीमत के विभिन्न नशे का माल जब्त किया गया। उत्तराखण्ड में तेज गति से बढ़ती नशे की प्रवृत्ति ने सरकार की चिंताएं बढ़ाई है। इसी लिए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने 2025 तक उत्तराखण्ड को ‘ड्रग मुक्त प्रदेश (ड्रग्स फ्री उत्तराखण्ड) बनाने की घोषणा की है। मिशन ‘नशा मुक्त देवभूमि’ सरकार की प्राथमिकताओं में है। एंटी नारकोटिक्स टास्क फोर्स का गठन कर नशे के खिलाफ अभियान की शुरूआत हो चुकी है।

उत्तराखण्ड में ड्रग्स की प्रवृत्ति ने जिस प्रकार रफ्तार पकड़ी है उससे उत्तराखण्ड का कोई भी जिला अछूता नहीं रहा है। मैदानी क्षेत्रों में इसके तस्कर लंबे समय से सक्रिय थे लेकिन अब पर्वतीय क्षेत्रों में भी इसने तेजी से अपने पांव पसारने शुरू कर दिए हैं। आंकड़ों पर नजर डालें तो 2021 में पूरे उत्तराखण्ड में 26 करोड़ से अधिक के मादक द्रव्य बरामद हुए। वर्ष 2021 में बागेश्वर में लगभग 13 लाख, ऊधमसिंह नगर में 8 करोड़, हरिद्वार में 5 करोड़, अल्मोड़ा में 82 लाख, उत्तरकाशी में 71 लाख, चमोली में 6 लाख, देहरादून में 8 करोड़, पिथौरागढ़ में 18 लाख, चंपावत में 75 लाख, नैनीताल में 66 लाख, पौड़ी में 24 लाख और टिहरी में 56 लाख से अधिक के नशीले पदार्थ 2022 की बात करें तो कुमाऊं के जिलों में नैनीताल में एनडीपीएस के तहत 192 मुकदमें दर्ज हुए, 258 नशा तस्करों को गिरफ्तार कर 5 करोड़ 51 लाख, पिथौरागढ़ जनपद में वर्ष 2020 से मार्च 2023 तक 68 किलो चरस जिसकी कीमत 67 लाख थी और 218 ग्राम स्मैक जिसकी कीमत लगभग 22 लाख भी बरामद की जिसमें 59 मुकदमें दर्ज किए गये तथा 86 नशा तस्करों को पकड़ा गया। बागेश्वर पुलिस से प्राप्त जानकारी के अनुसार 2022 में एनडीपीएस के तहत 31 किलो चरस पकड़ी गई जिसकी कीमत 31 लाख रुपए थी जिसमें 30 लोगों को गिरफ्तार किया गया और 107 ़49 ग्राम स्मैक पकड़ी गई जिसमें 11 नशा तस्करों को पकड़ा गया। इसी प्रकार चंपावत जिले में 65 मुकदमे दर्ज हुए जिसमें 73 नशा तस्करों को गिरफ्तार कर 1 करोड़ 8 लाख के नशीले पदार्थ जब किए गए। अल्मोड़ा जिले में 30 मुकदमे दर्ज कर 47 व्यक्तियों को गिरफ्तार कर 96 लाख की नशीली चीजें पकड़ी गईं। ऊधमसिंहनगर जिले में एनडीपीसी के अंतर्गत 231 मुकदमे दर्ज कर 357 तस्करों को गिरफ्तार कर लगभग 4 करोड़ 68 लाख के नशीले पदार्थ बरामद किए। ये आंकड़े वे हैं। जो पुलिस की गिरफ्त में आए पाए जो पुलिस की नजर से बचकर नशा बाजार में पहुंच गया उसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है। पुलिस के एक सेवानिवृत्त अधिकारी का कहना है कि शराब एवं ड्रग्स की तस्करी में बड़ा अंतर है। शराब के तस्करों को तस्करी के लिए वाहनों, संसाधनों की जरूरत होती है मगर ड्रग्स तस्कर को ऐसे किसी भारी भरकम साधन की जरूरत नहीं है उसकी तस्करी के लिए तो उसकी एक जेब ही काफी है।

उत्तराखण्ड में ड्रग्स लेने की प्रवृत्ति पर नजर डालें तो इसका सबसे बड़ा शिकार युवा वर्ग हो रहा है जिसमें स्कूल, कॉलेज में पढ़ने वाले लड़के-लड़कियां प्रमुख हैं। स्कूल, कॉलेज के आस- पास ड्रग्स के तस्कर मंडराते रहते हैं जिन्हें पहचानना आसान नहीं रहता और स्कूल, कॉलेज के छात्र/छात्राएं उनके लिए आसान टारगेट हैं। शराब के नशे से नुदा नारकोटिक्स नशे का एहसास तो कराते हैं लेकिन शराब की तरह गंध इनमें नहीं होती इसलिए इसे शुरुआत में पहचानना मुश्किल होता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि इन महंगे नशीले पदार्थों की कीमत जितनी ज्यादा है इनकी लत भी उतनी ही होती है। शराब का नशा एक लत का रूप काफी समय बाद लेता है और आदमी की जिंदगी लीलने में थोड़ा वक्त लेता है लेकिन मादक पदार्थों की लत लगाने में ज्यादा समय नहीं लगता और लापरवाही की दशा में उम्र का समय कम होने में वक्त नहीं लगता। ड्रग्स के नशे में रहने वाले लोगों की तस्करों के नेटवर्क का हिस्सा बनने में देरी नहीं लगती क्योंकि महंगे ड्रग्स की लत के चलते जब ड्रग्स खरीदने के पैसे नहीं होते तो उनकी आर्थिक मजबूरी का फायदा उठाने में नशा तस्कर पीछे नहीं रहते। शायद यही पैडलर तस्करों के लिए आसान टार्गेट बन जाते हैं। निजी नशा मुक्ति केंद्र चलाने वाली एक संचालिका बताती हैं कि एक बार एक अनोखा मामला उनके केंद्र में आया जब एक गुरु और शिष्य उनके यहां इलाज के लिए आए। काउंसिलिंग के दौरान पता चला कि ट्यूशन पढ़ने वाले एक छात्र ने जो स्मैक लेने का आदी था अपने ट्यूटर को भी नशे की लत की ओर धकेल दिया। उनका कहना था कि उनके पास युवा, छात्र, लड़कियां सभी अपने इलाज के लिए आते हैं उसमें केई तो समाज के आर्थिक रूप से संपन्न लोगों के बच्चे भी है। संचालिका का मानना है कि बदलते समय के साथ एकाकी परिवारों के बच्चे संयुक्त परिवारों के बच्चों की तुलना में शायद उचित निगरानी के अभाव में इस ओर भटक जाते हैं, इसलिए अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बच्चों के व्यवहार पर हमेशा नजर रखें। स्मैक सेवन से बच्चों का व्यवहार बदलता है और इस व्यवहार को माता -पिता को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। इस नशे से बर्बादी को बयां करते हुए एक पूर्व सैन्य अधिकारी की पत्नी बताती हैं कि किस प्रकार उनके राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) में ट्रेनिंग कर रहे बेटे का भविष्य बर्बाद कर दिया और उसे प्रशिक्षण छोड़कर वापस आना पड़ा। स्मैक की लत ने उसे गुमसुम-सा बना दिया है। हालांकि वह अब कुछ हद तक ठीक है लेकिन कभी उसका असामान्य व्यवहार उन्हें हमेशा चिंता में डाले रखता है। ऐसे कई माता-पिता हैं जिनके बच्चे स्मैक के शिकार हैं लेकिन सामाजिक लोकाचार के चलते उन्हें अपने बच्चों की कमियों पर पर्दा डालना पड़ता है। नशे के सौदागरों के लिए शिक्षण संस्थाएं आसान निशाना हैं। नशे के सौदागर शिक्षण संस्थानों में छुट्टी या मध्यांतर के समय छात्रों को निशाना बनाते हैं।

संघर्ष होता रहा, सरकार सोती रही
उत्तराखण्ड में नशें का प्रमुख स्रोत शराब के खिलाफ समय- समय पर संघर्ष होता रहा है। सबसे पहले शुरुआत बीती सदी के 60 के दशक में हुई। तब सर्वोदय आंदोलन से जुड़ी विमला बहन समेत अन्य महिलाओं ने पहाड़ में शराब की जड़ें उखाड़ने का संकल्प लिया। धीरे-धीरे पूरे पहाड़ में शराब विरोधी आंदोलन फैल गया। साठ के दशक में ही माई इच्छागिरि ने टिंचरी के खिलाफ संघर्ष छेड़ा। इस सबके चलते 1970 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश की सरकार ने पौड़ी और टिहरी जिले में शराबबंदी कर दी। अन्य जिलों में ऐसी मांग उठी तो 1977 में यहां शराब पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके बाद शुरू हुआ 1984 में शुरू हुआ ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन। इस आंदोलन में शराब माफियाओं को जड़ों से हिलाने का काम किया शमशेर सिंह बिष्ट और पीसी तिवारी जैसे आंदोलनकारी नेताओं ने प्रदेश में शराब के खिलाफ हुंकार भरी। इसी दौरान पिथौरागढ़ के पत्रकार उमेश डोभाल ने शराब के खिलाफ संघर्ष को लेखनी के जरिए धार दी तो 1989 में शराब माफिया ने उनकी हत्या कर दी। इसके बाद पहाड़ में उबाल आ गया। देखा जाए तो तत्कालीन सरकारें शराब विरोधी आंदोलनों को एक प्रकार से नजरअंदाज ही करती रहीं। 1994 में शुरू हुए उत्तराखण्ड आंदोलन में एक बड़ी मांग पहाड़ को शराबमुक्त करने की भी थी। इस आंदोलन में पुरुषों के साथ ही बड़ी संख्या में महिलाओं ने भी सक्रिय भागीदारी की थी। सभी के संघर्ष की बदौलत राज्य तो बना, मगर शराब से निजात आज तक नहीं मिली।

पुलिस नशा तस्करों पर औपचारिकता निभाती है, कार्रवाई नहीं करती है। इसे इससे समझा जा सकता है कि खुद मैंने नैनीताल जिले में कई संभावित तस्कर चिन्हित किए थे लेकिन पुलिस ने एक पर भी कार्रवाई नहीं की। हमने हल्द्वानी में कई स्थान ऐसे चिन्हित किए थे जहां अंधेरे का फायदा उठाकर नशेड़ी नशा लेते हैं, वहां हमने स्ट्रीट लाईट लगाने को कहा था लेकिन आज तक लाईट नहीं लगी। हमने इस मामले पर कोर्ट में पीआईएल दाखिल की लेकिन आज तक किसी अधिकारी ने हमसे संपर्क नहीं किया। आज नशा उन्मूलन केंद्रों की स्थिति कितनी बदतर है इसे पकड़े जाने वाले लोगों से समझा जा सकता है जो जेल से छुटने के बाद भी नशा नहीं छोड़ पाते हैं। सिर्फ कागजी कार्रवाई और सेमिनार होने से कुछ नहीं होगा। आज ड्रग्स के खिलाफ सामूहिक समाधान ढूंढ़े जाने की आवश्यकता है। नशे को रोकने के लिए ब्लॉक स्तर पर उन्मूलन केंद्र खोले जाने चाहिए, साथ ही पीड़ित परिवारों को भी आगे आना होगा। पांच तरह के लोगों का एक ग्रुप बनाया जाना चाहिए जिसमें शिक्षण संस्थानों के प्रमुख, नशा पीड़ित परिवार के अभिभावक, पुलिस, मनोचिकित्सक और सामाजिक कार्यकर्ता आदि हो। इन सभी के अनुभवों को साझा करते हुए नशा नियंत्रण की पॉलिसी बनानी होगी। हर शहर में नशे के खिलाफ काम करने वाले ऐसे लोग होते हैं, उनका साथ लेकर जमीनी कार्य करना होगा। तभी कुछ सार्थक हो सकेगा।
श्वेता मासीवाल, समाजसेवी एवं हाईकोर्ट में याचिका कर्ता

 

  •      वर्ष 2018 में उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश में कहा गया था कि  10वीं, 11वीं और 12वीं में नशे के खिलाफ एक अध्याय शुरू किया जाए। पांच बरस बीत जाने के बाद भी यह पाठ्यक्रम तैयार नहीं किया जा सका है।

उच्च न्यायालय ने प्रदेश की हर जेल में नशीले पदार्थ की शिनाख्त करने वाले प्रशिक्षित डॉग्स स्क्वाड तैनात किए जाने की बात कही थी। यह आदेश आज तक लागू नहीं किया जा सका है।

  • नशे की प्रवृत्ति प्रदेश में बढ़ने के लिए जिम्मेदार सरकार की गलत नीतियां हैं। जिसकी जवाबदेही भी सरकार की बनती है। प्रदेश में जितने भी राजनीतिक दल हैं वे सभी शराब बांटकर वोट लेने की कोशिशों में जुटे रहते हैं। इसमें पुलिस का तंत्र भी शामिल है। नशे को रोकने की बजाय पुलिस नशेड़ी पैदा करने के लिए भी जिम्मेदार है, क्योंकि पुलिस अगर ईमानदारी से नशे पर प्रतिबंध लगाए तो यह प्रवृत्ति पूरी तरह खत्म हो जाएगी। सरकार ने जिस तरह 24 घंटे ठेके खोलने की स्वीकृति दी है वह भी गलत है। प्रदेश में सबसे ज्यादा शराब माफिया सक्रिय है। चाय की दुकानों पर भी शराब बेचा जाना सरकार की हीला-हवाली का ही परिणाम है। ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन के सामने जिस तरह की 80 के दशक में चुनौती थी ऐसी ही चुनौती अभी भी बनी हुई है। इस चुनौती से पार पाना फिलहाल सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
    पीसी तिवारी, अध्यक्ष, उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी

 

बात अपनी-अपनी
हमने एंटी ड्रग्स टास्क फोर्स का गठन कर लिया है। यह फोर्स तीन लेवल पर काम कर रही है। पहला थाना लेवल है जिसका नोडल अधिकारी एक इंस्पेक्टर बनाया गया है। जबकि दूसरा जिला लेवल पर है इसका नोडल अधिकारी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को बनाया गया। इसके अलावा तीसरा स्टेट लेवल है। जिनका नोडल अधिकारी सीओ लेवल पर बनाया गया है। तीनों ही स्तर पर एंटी ड्रग्स के मद्देनजर जांच-पड़ताल से लेकर हर तरह की गतिविधियों पर नजर रखी जाती है। जो दवाइयां
प्रतिबंधित की गई हैं उनको मार्केट में जाकर समय-समय पर चेक किया जाता है।
अशोक कुमार, पुलिस महानिदेशक, उत्तराखण्ड

हमने प्रत्येक कॉलेज में प्राचार्य को यह जिम्मेदारी दी हुई है कि वे छात्रों में नशे पर नजर रखें और अगर कहीं पर ऐसी शिकायत आती है तो उसकी खबर पुलिस प्रशासन के साथ ही उनके परिजनों की भी दें जिससे परिजन समय रहते अपने बच्चे के भविष्य को बर्बाद होने से बचा सकें। कॉलेजों में समय-समय पर नशे के खिलाफ अवेयरनेस चलाई जाती है। अभी तक सब ठीक ही है।
डॉ. सी.डी. सूठा, उच्च शिक्षा निदेशक

शिक्षण संस्थानों में ड्रग्स को लेकर अध्यापक स्तर पर कमेटियां बना दी गई हैं। प्रत्येक स्कूलों में बनी ये कमेटियां बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखती है। हालांकि अभी तक कहीं से शिक्षण संस्थानों के अंदर ही शिकायत नहीं आई है। पॉलिटेक्निकल स्कूलों को छोड़कर क्योंकि वह हमारे कार्य क्षेत्र में नहीं आते हैं। सभी स्कूलों में स्थिति सामान्य है। नैतिक शिक्षा के जरिए भी छात्रों को नशे के प्रति जागरूक किया जाता है। सूचना विभाग लोगों के नशे से होने वाली बीमारियों की बाबत प्रचार-प्रसार के जरिए जानकारी देता रहता है। दीवार लेखन से लेकर मीडिया में विज्ञापन तक सभी तरह से नशे के खिलाफ लोगों को जानकारी दी जा रही है।
बंशीधर तिवारी, निदेशक, विद्यालयी शिक्षा

दसवीं-ग्यारहवीं और बारहवीं के शिक्षण सत्र में नशीली दवाओं और नशे से होने वाली बीमारियों तथा प्रभावों को लेकर शिक्षण संस्थानों की पाठ्य-पुस्तकों में एक अध्याय शुरू किया जाना हमारी प्राथमिकता में है। एनसीईआरटी को हमने यह
प्रस्ताव बनाकर भेजा हुआ है। जल्द ही स्कूलों में नशे पर प्रतिबंध संबंधित सब्जेक्ट पढ़ाना शुरू हो जाएगा।
रविनाथ रमन, सचिव, प्राथमिक शिक्षा

हमारे कॉलेज में एंटी ड्रग्स सेल का गठन बहुत पहले ही हो चुका है। हमारे नही नहीं लगभग सभी कॉलेजों में यह सेल काम कर रहा है। इसके तहत अगर कुछ नशे से रिलेटिव मामला सामने आता है तो पुलिस अफसरों को सूचित कर दिया जाता है। हालांकि अभी तक ऐसा कोई मामला सामने आया नहीं है। नशे के खिलाफ सभी कॉलेजों में रैलियां निकाली जाती हैं। मेडिकल टीम आती है जिसमें सभी छात्रों का चेकअप कराया जाता है। यह विशेष तौर पर देखा जाता है कि कोई बच्चा ड्रग्स एडिक्ट तो नहीं है।
एमके पाण्डेय, प्राचार्य, पीएनजी पीजी कॉलेज, रामनगर

हमारी जेल में ड्रग्स में सूंघकर पहचानने वाले कोई प्रशिक्षित कुत्ते (डॉग स्कवाड) नहीं हैं, न ही कोई इनका विशेष दस्ता बनाया गया है। इससे पहले मैं टिहरी जेल में था वहां भी ऐसे प्रशिक्षित कुत्तों का दस्ता नहीं था। उत्तराखण्ड की जेलों में कहीं पर भी ऐसे कुत्ते नहीं हैं जो कैदियों को सूंघकर बता सकें कि उक्त कैदी नशा करता है। जेलों की तो छोड़िए प्रदेश के अधिकतर थानों में प्रशिक्षित कुत्ते तक नहीं हैं। जेलों में नशे के आदी कैदी न के बराबर पाए जाते हैं।
अनुराग मलिक, जेल अधीक्षक, सितारगंज

हमारे स्कूल में 10वीं और 12वीं क्लास में छात्रों के लिए नशे के खिलाफ कोई सब्जेक्ट किसी पाठ्य-पुस्तक में नहीं है। हालांकि हम बच्चों को नशीली पदार्थों के प्रति विभिन्न माध्यमों से जागरूक करते रहते हैं।
ललिता रौतेला, अध्यापिका, जीआईसी मणिपुर, अगस्त मुनि

नशे के प्रति बच्चों को अवेयर करने के लिए हम नशा विरोधी शपथ कराते हैं। जिससें स्कूल के बच्चों को नशा न करने की शपथ कराई जाती है। इसी के साथ जब प्रेयर होती है तो उसी दौरान प्रत्येक दिन बच्चों को नशे के खिलाफ बातें बताई जाती हैं।
सोनी यादव, प्रभारी, राजकीय विद्यालय हसनपुर, ऊधमसिंह नगर

पांच साल बीत जाने के बाद भी कोर्ट के आदेशों का पूरी तरह से पालन नहीं हुआ है। स्कूलों में पाठ्य-पुस्तकों में अगर नशे के प्रति जागरूक करने वाला अध्याय पढ़ाया जाता तो ठीक रहता, क्योंकि वह लंबे समय तक बच्चों के दिमाग में रहता है।
दुष्यंत मैनाली, वरिष्ठ अधिवक्ता, हाईकोर्ट नैनीताल

 

बच्चों में नशे की प्रवृत्ति बढ़ना चिंताजनक

नशे की लत में पीड़ित 40 हजार लोगों का इलाज कर चुके डॉ ़ सुशीला तिवारी राजकीय चिकित्सालय हल्द्वानी के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ.युवराज पंत

आज और आज से 17 साल पहले के समय में काफी बदलाव आया है। सबसे बड़ा बदलाव नशा करने वालों की उम्र में आया है। पहले आमतौर पर इस प्रकार का नशा 32 साल से अधिक उम्र वाले ड्रग्स लेते थे लेकिन अब यह उम्र उस स्थिति में आ गई है जब 12 से 14 वर्ष का बच्चा भी नशा करने लगा है। उनके लिए यह एक दुःखद आश्चर्य था जब 8 वर्ष का एक बच्चे को उनके पास इलाज के लिए लाया गया। डॉ ़ पंत का मानना है कि किशोरावस्था में मां-बाप को बच्चों की गतिविधियों पर ज्यादा निगरानी रखनी चाहिए। किशोरावस्था में बच्चों में शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक हर स्तर पर व्यवहार प्रभावित करता हैं। स्मैक का प्रारंभिक स्तर पर उपचार संभव है। इस बीच सरकार और पुलिस की सख्ती से कई नशे के कारोबारी पकड़े गए हैं इससे सप्लाई पर असर पड़ा है। ड्रग्स की सप्लाई की कीम के चलते इसका नशा करने वाले इसकी डोज कम करने पर बाध्य हो रहे हैं जिससे उनमें ड्रग्स डोज कम करने की इच्छाशक्ति जागृत होगी तो फिर वे अपने उपचार के विषय में भी सोचेंगे। पहले स्मैक सप्लायर इसके यूजर नहीं हुआ करते थे मतलब ड्रग्स सप्लाई करने वाला खुद इसका इस्तेमाल नहीं करता था लेकिन अब जो सप्लाई चैन बनी है उसमें यूजर ही सप्लायर भी बन गये हैं। स्मैक या कृत्रिम नशा किसी व्यक्ति विशेष की समस्या नहीं वरन् सामाजिक समस्या के रूप में देखा जाना चाहिए। माता-पिता को अपने अंदर ‘स्वीकार करने’ की प्रवृत्ति विकसित करनी होगी। अगर कोई उनके बच्चे के व्यवहार और गतिविधि के विषय में बताता है तो उसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। समाज को भी इसे व्यापक रूप में लेना होगा क्योंकि स्मैक का नशा जिस प्रकार तेजी से अपने पांव पसार रहा है उसकी आंच किसी के दरवाजे पर दस्तक दे सकती है।

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