के.एस. असवाल
गढ़वाल में औद्योगिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए गौचर मेले की शुरुआत की गई थी। यही वजह है कि आज औद्योगिक क्षेत्र में कई कीर्तिमान भी स्थापित हो चुके हैं। औद्योगिक क्षेत्र के विकास के साथ ही यह मेला गौचर की पौराणिक- सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने में महत्वपूर्ण बना हुआ है। इस मेले का अपना अनूठा इतिहास भी रहा है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन से शुरू होने वाला यह मेला इस बार 71वें बसंत को पार करेगा। इस अवधि में इस मेले ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। इसकी जीवंतता अभी भी बनी रहने से इसके गौरवमयी इतिहास की यादें भी ताजा होती हैं।
सीमांत जनपद चमोली में गौचर के विशाल मैदान में लगने वाले इस मेले का इतिहास हमारी प्राचीन सभ्यता से जुड़ा हुआ है। औद्योगिक पिछड़ेपन को दूर करने लिए भी मेला ‘मील का पत्थर’ साबित होता आया है। ऐसा ही एक मेला अंग्रेजी हुकूमत के समय कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ जनपद के जौलजीबी में शुरू किया गया था। इस मेले में भारत-तिब्बत के व्यापार का आदान-प्रदान किया जाता था। सन 1943 में गढ़वाल के प्रख्यात पत्रकार स्व गोविंद प्रसाद नौटियाल, नाथू सिंह पाल, जमन सिंह सयाना, भोपाल सिंह सयाना, आदि सुदूरवर्ती हिमालयी क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों के एक शिष्टमंडल ने गढ़वाल के तत्कालीन कलेक्टर आरडी वर्नीडी से भेंटकर औद्योगिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए गढ़वाल क्षेत्र के केंद्र बिंदु गौचर के विशाल मैदान में ऐसा ही मेला आयोजित करने का आग्रह किया। जनप्रतिनिधियों के आग्रह को गंभीरता से लेते हुए उन्होंने जौलजीबी की तर्ज पर गौचर में भी व्यापारिक मेला आयोजित करने की शुरुआत करने का निर्णय लिया।
वर्ष 1943 से 1947 तक यह मेला एक से सात सितंबर तक आयोजित होता रहा, लेकिन देश के स्वतंत्र होने के बाद मेला भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिन 14 नवंबर से आयोजित करने का निर्णय लिया गया। तब से आज तक मेले की तिथि एकाध बार छोड़कर अनवरत 14 नवंबर ही जारी है। शुरुआती दौर में इस मेले में भोटिया जनजाति के लोग तिब्बत से ऊन, नमक, सोने-चांदी के आभूषण के अलावा भी कई चीजों को यहां लाकर बेचते थे। इसके बदले में वे यहां से गुड़, कीमती जड़ी-बूटियों का निर्यात करते थे। तब इस मेले को ‘भोटिया मेला’ भी कहा जाता था।
वर्ष 1960 में पौड़ी से अलग सीमांत जनपद चमोली के रूप में सृजित होने और भारत तिब्बत व्यापार पर प्रतिबंध लग जाने से यहां के लिए नमक एवं अन्य वस्तुएं सीधे मैदानी भागों से आने लगीं जिसके चलते मेले का स्वरूप ही बदल गया। तब इस मेले को और व्यापक स्वरूप देने के लिए विकास के आयामों से जोड़ा गया। मेले में विकास की योजनाओं के साथ ही प्रदेश स्तरीय खेल-कूद एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाने लगे और मेला निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर होता गया। तब इस मेले को भोटिया मेले की जगह ‘गौचर औद्योगिक एवं विकास प्रदर्शनी’ नाम दिया गया। अविभाजित उत्तर प्रदेश में इस मेले को राजधानी लखनऊ से जोड़ा गया।
तब मेले में सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, मद्य निषेध के अलावा उच्च कोटि की सांस्कृतिक समितियां शिरकत करती थीं। सन 1960 के बाद कुछ सालों तक मेले का आयोजन जिला पंचायत के हाथों में रहा लेकिन धन की कमी की वजह से जिला पंचायत ने हाथ खड़े किए। इसके बाद नगर निकाय ने इसे अपने हाथों में ले लिया। लेकिन वह भी ज्यादा बार मेले का आयोजन नहीं कर पाया। 1994 से इस मेले का आयोजन जिला प्रशासन द्वारा किया जाता है। मेले में जनप्रतिनिधियों की सहभागिता बनी रहे इसके लिए विभिन्न समितियां गठित की गईं। तब से अब तक मेला समितियों के साथ मिलकर जिला प्रशासन इस मेले का आयोजन करता आ रहा है।
इस बार अधिकतर अधिकारियों ने इस मेले को प्रयोगशाला के रूप में आयोजित किया है। नब्बे के दशक में मेले का नाम बदलकर ‘गौचर औद्योगिक विकास एवं सांस्कृतिक मेला’ कर दिया गया था। लेकिन 2018 एवं 19 में मेले को ‘गौचर फेस्टिवल’ के नाम से आयोजित किया गया। इसके निमंत्रण पत्र भी ‘जतो नाम ततो गुण’ के आधार पर अंग्रेजी में छपवाए गए। अतीत में यह मेला कभी उत्तरकाशी भूकंप, कभी उत्तराखण्ड आंदोलन तो कभी कोरोना बीमारी व अन्य कारणों से नौ बार स्थगित रहा। इस बार मेले को बहुआयामी अंदाज में मनाने का निर्णय लिया गया है। इस बार 71 वें मेले के लिए जहां जिला प्रशासन ने अभी से सक्रियता दिखानी शुरू कर दी है वहीं लोगों में खुशी का माहौल देखने को मिल रहा है।
ऐतिहासिक गौचर मेले का उद्घाटन शुरू से ही प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा किए जाने की परंपरा रही है।
जिला प्रशासन के साथ ही नगर पालिका गौचर ने मेले को भव्य व आकर्षक बनाने के लिए सभी तैयारियां पूर्ण कर ली हैं। पालिका अध्यक्ष अंजू बिष्ट ने कहा कि मेले को भव्य बनाने के लिए सभी तैयारियां पूरी हो चुकी है। मेलार्थियों को किसी भी तरह की असुविधा नहीं होगी। वहीं कर्णप्रयाग विधायक अनिल नौटियाल भी मेले को भव्य व आकर्षक बनाने के लिए खासे गंभीर दिखाई दिए। विधायक नौटियाल इसके लिए मेला अधिकारी एवं जिला प्रशासन संग पहले ही बैठक कर चुके हैं। वे मेले की सफलता के लिए पुरी तरह से सक्रिय हैं।
समय बीतने के साथ मेला भी अपना स्वरूप बदलता नजर आ रहा है। जहां एक ओर 90 के दशक में गढ़वाल जनजातियों की संस्कृतियों के रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम स्थानीय लोक कलाकारों द्वारा पुरानी रीति-रिवाज के साथ प्रदर्शन किया जाता था। वर्तमान में नई-नई तकनीकी सुविधाओं व कलाकारों से इसमें परिवर्तन होते आ रहे हैं। इस मेले के माध्यम से लोक कलाकार नरेंद्र सिंह नेगी ‘गढ़ रत्न’ गढ़वाल की संस्कृति को विश्व पटल पर रख चुके हैं। 1990 के दशक के नौजवान उनके गीतों को सुनकर अति प्रसन्न हो जाते हैं। मेले में गढ़वाल की मधुर आवाज के जरिए नेगी दा आज की युवा पीढ़ी को संस्कृति से जोड़ने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं।