[gtranslate]
Uttarakhand

सूखते स्रोत, बढ़ती प्यास

ऐसा नहीं है कि उत्तराखण्ड राज्य में पानी की कोई कमी है। हमारे देश की दो बड़ी नदियां गंगा, यमुना और इनकी अधिकांश सहायक नदियां भी उत्तराखण्ड के ग्लेशियर से निकलती हैं जो उत्तर भारत के कई हिस्सों में पानी की आपूर्ति करती हैं। लेकिन ऐसा क्यों है कि पानी की प्रचुर उपलब्धता होने के बावजूद भी राज्य के अधिकांश पर्वतीय गांवों में पीने के पानी की समस्या बनी हुई है। प्रदेश में स्रोत सूख रहे हैं साथ ही लोगों की प्यास भी बढ़ रही है

प्रदेश में ऊर्जा के बाद पेयजल का संकट आ खड़ा हुआ है। इस बार कम बारिश व हिमपात का असर पेयजल स्रोतों पर भी पड़ा है। बढ़ती गर्मी के साथ ही पेयजल स्रोत सूखाड़ की तरफ बढ़ रहे हैं। शहरों से लेकर गांवों तक बूंद-बूंद पानी को लेकर मारामारी शुरू हो चुकी है। पानी के उचित प्रबंधन के अभाव के चलते हिमालयी वाटर टैंक के नाम से विख्यात रहा उत्तराखण्ड अब जल संकट से लगातार जूझ रहा है। प्रदेश में पेयजल का प्रबंधन करने वाले जल संस्थान ने जब प्रदेश में पेयजल स्रोतों का सर्वे कराया तो सर्वे रिपोर्ट काफी चौंकाने वाली थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश में स्थित 461 स्रोतों का 76 प्रतिशत पानी सूख चुका है तो वहीं 1290 पेयजल स्रोत ऐसे हैं जिनका 50 से 75 प्रतिशत तक पानी कम हो चुका है। वहीं प्रदेश के 4624 गधेरे व झरनों में तेजी से पानी कम हो रहा है। अकेले कुमाऊं के 544 गांवों में पेयजल संकट गहरा चुका है।

राज्य के 90 से अधिक छोटे-बड़े नगरों में से 70 पेयजल संकट से जूझ रहे हैं। यूं तो पेयजल संकट से निपटने के लिए शासन के स्तर पर सरकारी मशीनरी को अलर्ट करने का दावा किया जा रहा है लेकिन गर्मी के अगले तीन महीने पेयजल के दृष्टिकोण से आम आदमी के साथ ही सरकार पर भारी पड़ने वाले हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि पानी के इस संकट से तब तक नहीं उभरा जा सकता जब तक जल का सही तरीके से प्रबंधन न हो। लगातार बढ़ती आबादी के चलते जहां पानी की मांग बढ़ी है तो वहीं स्थानीय स्तर पर पेयजल के कई स्रोत शहरीकरण के भेंट चढ़ रहे हैं। वहीं दूसरी तरह पानी का सही प्रबंधन न होने से पानी की जमकर बर्बादी होती है। बूंद-बूंद पानी को संभालने का प्रबंधन अभी प्रदेश में विकसित नहीं हो सका है। जबकि हिमालय वर्षा जल को विभिन्न रूपों में एकत्रित करता है। इसे हिमालय का जल स्तम्भ यानी वाटर टैंक कहा जाता है जो कई सदानीरा नदियों को जन्म देते हैं। लेकिन पिछले कई दशकों से यहां जल संबंधी समस्यायें लगातार बढ़ती जा रही हैं। यह हिमालयी क्षेत्र जल चक्र को संचालित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यही वजह है कि उत्तराखण्ड में असंख्य प्राकृतिक जल स्रोत विद्यमान हैं।

जल स्रोत वह जगह है जहां से पानी धरती से बाहर फूटता है। जल स्रोत की प्रकृति के आधार पर यह ताल, धारे, मंगरे, नौले, डोबे, सोते आदि नामों से जाने जाते हैं। दूसरी तरफ विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि हर वर्ष जंगलों में लगने वाली आग जंगलों की कोख को सूखा रही है। इसकी वजह से जल भंडार वाले हिमालय के जंगलों में जलधारण की क्षमता तेजी से घट रही है। पिछले दो दशकों में यह 50 प्रतिशत से 23 प्रतिशत तक रह गई है। बहुउपयोगी बांजों के चलते वर्षा जल भूमि के गर्भ में समा जाता था लेकिन अब इन जंगलों में गिरावट आ रही है। चीड़ के पेड़ों के बांज के जंगलों में तेजी से फैलने से भी जलस्रोतों की सेहत पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। यह तय है कि प्रदेश में जल समस्या का सबसे प्रमुख और सर्वव्यापी कारण जल संसाधनों का अकुशल प्रबंधन एवं आपूर्ति रहा है। दीर्घकालिक योजनाएं न बनने से भी स्थितियां काबू से बाहर हो रही हैं। जल क्षेत्र लगातार न्यून होते जा रहे हैं। जो पानी मिल रहा है वह गुणवत्ता की दृष्टि से जनस्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है। डायरिया, पीलिया जैसी बीमारियां प्रदेश में तेजी से फैल रही हैं। बेहतर आय वर्ग का आदमी तो संसाधन जुटा ले रहा है लेकिन निम्न आयवर्ग का आदमी दूषित पानी से होने वाली बीमारियों की चपेट में आ रहा है। इससे उसे दोहरा नुकसान उठाना पड़ रहा है। पहला यह कि वह अपना स्वास्थ्य खो रहा है दूसरा उसकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो रही है। अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा उसे इलाज पर खर्च करना पड़ रहा है। इसके अलावा दूषित पानी दांतों, हड्डियों, फेफड़ों, त्वचा, पित्ताशय, गुर्दे को भी प्रभावित कर रहा है। अगर प्रदेश सरकार बेहतर जल प्रबंधन कर ले तो पेयजल की समस्या से भी निजात मिलेगा साथ ही बीमारियों से भी।

यूं तो गांवों तक पानी पहुंचाने के दावे भी कम नहीं है। नाबार्ड द्वारा पूर्व में दावा किया गया था कि वह चार हजार गांवों में पानी पहुंचाएगा। विश्व जल दिवस के अवसर पर नाबार्ड द्वारा जल अभियान शुरू करने की बात कही गई थी। पहले चरण में प्रदेश के करीब चार हजार गांवों में पेयजल योजनाएं तैयार कर अभियान की शुरुआत होनी थी। अभियान में पानी के संकट से जूझ रहे एक लाख गांवों को शामिल किया गया था। प्रदेश के बागेश्वर, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चंपावत, टिहरी, चमोली, रूद्रप्रयाग एवं उत्तरकाशी के चार हजार गांवों में पानी की व्यवस्थाएं की जानी थी। प्रत्येक जिले में 500 गांव शामिल होने थे। अभियान को सफल बनाने के लिए जल दूतों की नियुक्ति होनी थी जिन्हें सरकार व बैंकों की योजनाओं के साथ समन्वय करते हुए कार्य करना था। इसमें पर्याप्त मात्रा में मास्टर प्रशिक्षकों की भी नियुक्ति की जानी थी। इसके अलावा हर घर तक नल से जल पहुंचाने का अभियान भी जारी है लेकिन असली सवाल यह है कि जिन जल स्रोतों पर यह योजनाएं बननी हैं या बनी हैं, उनके संरक्षण के लिए धरातल पर काम होते नहीं दिख रहा है।

अब पेयजल प्रबंधन को लेकर कुमाऊं के कुछ प्रमुख नगरों पर नजर डालें तो घाट पंपिग योजना जो पिथौरागढ़ जिला मुख्यालय के लोगों की प्यास बुझाने का एक बड़ा आसरा है, उसकी स्थिति कोढ़ में खाज की तरह है। जिला मुख्यालय को पानी की आपूर्ति करने वाली सबसे पुरानी पानी की सभी पाइप लाइन जर्जर हो चुकी है। कभी पाइपों की गुणवत्ता तो कभी पानी लीकेज होने के चलते प्रदूषित पानी की सप्लाई को लेकर यह चर्चा में बनी रहती है। आंवलाघाट पेयजल योजना बनने के बाद भी वर्ष 1972 में बनी इस योजना पर अभी भी नगर की एक बड़ी आबादी निर्भर है। जनपद के बेरीनाग व गंगोलीहाट की पेयजल समस्या तो सदाबहार रही है। वहीं डीडीहाट नगर की 10 हजार की आबादी बूंद-बूंद पानी को तरस रही है। 22 किमी दूर थल से रामगंगा नदी से 23 करोड़ 28 लाख की लागत से बनने वाली योजना प्यास बुझाने में नाकाम रही है।

एक दौर में 16 से अधिक पेयजल स्रोत नगर के आसपास थे लेकिन नगर का फैलाव उन्हें लील गया। वहीं बागेश्वर जनपद के कांडापड़ाव, जेठाई, ताछनी, मलसूना, विजयपुर, खंतोली, काडे कन्याल, सिमकूना, मयूं, बंगचूड़ी, कुला, रंगचौड़ा, चौगांवछीना, खरही, पट्टी के गांव, कठायतबाड़ा, गरूड़ कौसानी, पाए, दर्शानी, पचूना, बड़ेत, नौधर, गढ़सेर, डंगोली, सिरकोट के साथ ही कपकोट, कीमू, मिकिला, झूनी, वाछम, खाती, सोराग, चौड़ा पेठी, रिखाड़ी, हरकोट, घुरकोट, पनौरा, पोथिंग, तोली, कन्यूटी, उत्तरोड़ा तक पेयजल की समस्या गहरा चुकी है। यही हाल चंपावत, नैनीताल एवं अल्मोड़ा जिलों का भी है। अकेले पिथौरागढ़ जनपद की बात करें तो यहां 500 के आस-पास पेयजल योजनाएं चल रही हैं। सभी जल स्रोतों पर निर्भर हैं। पिथौरागढ़ जनपद में स्थित 839 हैंडपंपों में से 15 से अधिक सूख चुके हैं। चंपावत में 3000 से अधिक प्राकृतिक स्रोत हैं जिसमें से 950 से अधिक सूख चुके हैं। अल्मोड़ा जनपद में 950 से अधिक पेयजल स्रोत हैं लेकिन आधे से अधिक पर सूखे का प्रभाव पड़ा है।

सुझाव

  •   जल संस्थान अपने प्रत्येक डिवीजन में कंट्रोल रूम स्थापित करे।
    कंट्रोल रूम सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक चले।
    कंट्रोल रूम की मॉनीटरिंग जिम्मेदार अधिकारी द्वारा की जाए।
    पेयजल के लिए तात्कालिक व दीर्घकालिक योजनाएं बने व निर्धारित समय पर धरातल पर उतरें।
    बजट के अभाव में लटकी व अधूरी पड़ी योजनाओं को जल्दी पूरा किया जाए।
    जल स्रोतों के संरक्षण के लिए ठोस कार्य योजना बने।
    पेयजल के महत्व को लेकर जनजागरूकता अभियान चले।
    स्कूली पाठ्यक्रमों में इसे शामिल किया जाए।
    विद्यार्थियों के साथ ही अभिभावकों की भी जल संरक्षण अभियानों में भागीदारी सुनिश्चित की जाए।

पहले उत्तराखण्ड के बड़े भू-भाग में चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों से आच्छादित वन क्षेत्र थे। वृक्षों के नीचे छोटी झाड़ियां व लताएं भी प्रचुर मात्रा में होती थी और जमीन घास से पटी रहती थी। जंगल के वृक्ष जलधारण व जल भंडारण की प्रक्रिया को गति देते थे। इनसे गिरने वाली पत्तियां जमीन पर परत दर परत जमकर एक तरह से कारपेट का काम करती थी। जिसमें सबसे नीचे पूर्ण रूप से सड़ चुकी पत्तियों की परत, उसके ऊपर आंशिक रूप से सड़ी हुई पत्तियां व सबसे ऊपर सूखी व वृक्ष से टूटकर गिरी पत्तियों की परत होती थी। ये परतें जल को थामने का काम करती थी। इन्हीं परतों से भूमिगत जल भंडार तक पहुंचता था। प्राकृतिक विज्ञान की यह प्रक्रिया भूकटाव को रोकती थी। अंधधुंध दोहन व वनाग्नि ने वनों को भारी क्षति पहुंचाई है। भूगर्भीय जल भंडार ही गैर हिमालयी नदियों को जिंदा रखते थे।
प्रो. जीवन सिंह रावत, पर्यावरणविद्

You may also like

MERA DDDD DDD DD