अंग्रेजों के जमाने में आरकेडिया चाय बागानों को स्थापित किया गया था। कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो चुके देहरादून शहर की आबोहवा को बनाए रखने के लिए ये चाय के बागान तभी से महत्वपूर्ण बने हुए हैं। इन्हें ‘देहरादून का फेफड़ा’ कहा जाता है। प्रदेश की धामी सरकार स्मार्ट सिटी बनाने के नाम पर शहर के इन फेफड़ों में कंक्रीट का जंगल खड़ा करने की तैयारी कर रही है। सात साल पहले तत्कालीन हरीश रावत सरकार भी इन चाय बागानों पर स्मार्ट सिटी का प्रोजेक्ट ला चुकी है। तब पर्यावरण प्रेमियों के साथ ही भाजपा ने इसका सबसे ज्यादा विरोध किया था। यही नहीं भारतीय सैन्य अकादमी के लिए इसे सुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा बताया गया था। केंद्र सरकार ने तब रावत सरकार की योजना निरस्त कर दी थी। अब वही भाजपा और केंद्र सरकार एक बार फिर देहरादून के चाय बागानों को उजाड़कर जनता को स्मार्ट सिटी का सपना दिखा रही है
सात साल पहले
उत्तराखण्ड में केंद्र सरकार की स्मार्ट सिटी योजना में पर्वतीय राज्य होने के चलते 250 एकड़ भूमि में स्मार्ट सिटी बनाए जाने का मानक तय किया गया था। वर्ष 2016 में तत्कालीन हरीश रावत सरकार ने केंद्र सरकार की स्मार्ट ग्रीन सिटी परियोजना के लिए हरवंशवाला स्थित आरकेडिया चाय बागान की भूमि का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा था। तब रावत सरकार ने हुडको से 2500 सौ करोड़ का ऋण लेकर देहरादून टी कम्पनी इंडिया लिमिटेड की तकरीबन 720 एकड़ जमीन अधिग्रहण करना चाह रही थी। टी कंपनी और राज्य सरकार के बीच कोई समझौता नहीं हो पाया, कारण कंपनी द्वारा सरकार से अपनी 720 एकड़ जमीन के लिए 800 करोड़ मांग की थी, जबकि सरकार इसके लिए 550 करोड़ ही देना चाह रही है।
स्मार्ट सिटी के लिए सैकड़ों एकड़ भूमि का अधिग्रहण किए जाने को लेकर विवाद पैदा हो गया और सरकार की मंशा पर सवाल खड़े होने लगे। पर्यावरण प्रेमियों के साथ ही विपक्षी दल भाजपा ने भी सरकार के इस कदम को बिल्डर्स लॉबी के हित में बताया। आरोप लगे कि स्मार्ट सिटी परियोजना की आड़ में रावत सरकार आसानी से बागान की भूमि को चाय कानून से मुक्त कर 2 हजार एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर रही थी।
भाजपा ने यह पूरा मामला देश की सुरक्षा से जोड़ दिया और सरकार पर राष्ट्र की सुरक्षा के साथ समझौता बता कर इस कदम की कड़ी मुखालफत कर दी थी। इसका एक कारण माना गया कि स्मार्ट सिटी के लिए प्रदेश सरकार चीन की तोंगझी यूनिवर्सिटी के साथ करार कर रही थी और इस करार मेंं चीन द्वारा अपने लिए दो तिहाई हिस्सेदारी की मांग रखने की चर्चा थी। साथ ही जिस स्थान पर स्मार्ट सिटी का प्रस्ताव सरकार द्वारा तय किया गया है उससे सटी हुआ भारतीय सैन्य आकादमी भी है। आशंका व्यक्त की गई कि स्मार्ट सिटी में बहुमंजिली इमारतों का निर्माण किया जाना है जिससे भारतीय सैन्य आकादमी की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा हो सकता है।
तब राज्य के सभी राजनीतिक दलों और पर्यावरण प्रेमियों ने तत्कालीन रावत सरकार के इस कदम की कड़ी निंदा की थी और इसके लिए आंदोलन तक करने की धमकी दी। भाजपा के तत्कालीन महामंत्री स्वर्गीय प्रकाश पंत ने इसे देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक बताते हुए सरकार पर चीन की कंपनी के साथ देश की सुरक्षा के खिलाफ करार तक कह डाला था। राज्य की भाजपा द्वारा केंद्र सरकार को स्मार्ट सिटी परियोजना के लिए चाय बागान की भूमि के अधिग्रहण को पर्यावरण के लिए घातक बताते हुए राष्ट्र सुरक्षा से जोड़ इसका जमकर विरोध किया। इस चलते केंद्र सरकार ने राज्य सरकार का प्रस्ताव ही खारिज कर दिया। तब कहा गया कि प्रदेश भाजपा संगठन द्वारा केंद्र सरकार को इसका फीडबैक भेजा था जिसके बाद ही केंद्र सरकार ने राज्य सरकार के इस प्रस्ताव को निरस्त किया।
सात साल बाद
राज्य की धामी सरकार 7 वर्ष के बाद फिर से चाय बागान की 719-7 हेक्टेयर भूमि पर स्मार्ट सिटी की परियोजना को शुरू करने के लिए तत्पर दिखाई दे रही है। 2015 में स्मार्ट सिटी योजना के लिए महज 250 एकड़ भूमि का मानक रखा गया था जिसे अब कई गुना बढ़ा दिया गया है। अब भारतीय सैन्य अकादमी जो आज भी इसी चाय बागान की भूमि से लगी हुई है, की सुरक्षा को भी अनदेखा किया जा रहा है। आश्चर्यजनक यह है कि 2016 में जिस परियोजना को दून घाटी का पर्यावरण और जैव विविधता का खतरा माना जा रहा था, वहीं खतरा 7 सालों के बाद दूर केसे हो गया?
पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को आज भी अपनी सरकार के समय स्मार्ट सिटी के लिए भूमि के प्रस्ताव को खारिज होने का मलाल है। साथ ही उनका यह भी मलाल है कि उनके समय में तमाम तरह के पर्यावरण प्रेमियों द्वारा दून घाटी के फेफड़ों को

क्षति पहुंचने का आरोप लगाया गया था लेकिन मौजूदा समय में कोई पर्यावरण प्रेमी चाय बागान को बचाने के लिए सामने नहीं आ रहे हैं। हालांकि केंद्र सरकार ने हाल में ही स्मार्ट सिटी परियोजना के लिए तय बजट में 50 प्रतिशत की कटौती कर दी है जिसके चलते अब 1 हजार करोड़ की बजाय महज 550 करोड़ का ही बजट रहेगा जिसमें स्मार्ट सिटी के सभी कार्य पूरे होने हैं। बजट कम होने के बाद केंद्र द्वारा कटौती की गई 450 करोड़ को राज्य सरकार स्वयं खर्च करेगी इसके लिए सरकार अतिरिक्त फंडिग की व्यवस्था करने की बात कह चुकी है।
दरअसल, केंद्र सरकार से स्मार्ट सिटी परियोजना के लिए 1 हजार करोड़ रुपए का बजट निर्धारित किया गया था। इसमें राज्यों को 50 फीसदी बजट स्वयं अपने बजट से खर्च करना था। लेकिन हिमालयी और पूर्वोत्तर के कई राज्यों द्वारा 50 प्रतिशत बजट उपलब्ध करवाने में असमर्थता जताई गई तो केंद्र सरकार द्वारा इसके लिए 90ः10 का फॉर्मूला तय किया गया। जिसके बाद तय हुआ कि केंद्र सरकार बजट का 90 प्रतिशत खर्च करेगी और राज्य सरकार को महज दस प्रतिशत ही खर्च करना था। इस तरह से उत्तराखण्ड राज्य को स्मार्ट सिटी के लिए 1 हजार करोड़ में केंद्र सरकार द्वारा 9 सौ करोड़ रुपए मिलने थे और प्रदेश को सिर्फ 100 करोड़ के खर्च करने थे। इस बजट से 24 योजनाओं पर काम होना था। जिनमें 8 योजनाओं पर काम पूरा हो चुका है जबकि शेष योजनाओं पर काम चल रहा है।
यह है स्मार्ट सिटी योजना
स्मार्ट सिटी परियोजना के लिए आरकेडिया चाय बागान में ट्वीन सिटी योजना के लिए पहले चरण का सर्वेक्षण कार्य पूरा हो चुका है। इसके लिए 719-7 हेक्टेयर भूमि का चयन कर लिया गया है। प्राप्त जानकारी के अनुसार चाय बागान की भूमि के सर्वेक्षण में तकरीबन सभी पहलुओं में सकारात्मक परिणम बताए जा रहे हैं। जल्दी ही इसके लिए दूसरा चरण आरंभ किए जाने की संभावना जताई जा रही है। देहरादून के डोईवाला और सहसपुर विकासखंड में भी इसी तरह से नए नगरों को बसाए जाने पर भी सरकार काम कर रही है। यह माना जा रहा है कि केंद्र सरकार के इस नए शहर की योजनाओं से देहरादून और उसके आस-पास के क्षेत्रां में शहरी आबादी को बेहतर बुनियादी सुविधाओं के साथ नए आवासीय क्षेत्रों को भी विकसित करने की योजना बहुत बेहतर साबित होगी।
देहरादून के आरकेडिया चाय बागान की 719-7 हेक्टेयर भूमि पर सरकार हर प्रकार की बुनियादी सुविधाएं तो देगी ही साथ ही भविष्य में 50 वर्षों की बसावट के हिसाब से सड़क, बिजली, पानी के साथ-साथ जरूरी अवस्थापना का निर्माण भी करेगी। जन सहभागिता निजी क्षेत्र के निवेश से टाउन शिप को विकसित किया जाएगा जिसमें होने वाले लाभ का एक भाग सरकार को भी मिलेगा। इसके लिए ट्वीन सिटी का निर्माण किया जाएगा जिसमें आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण अस्पताल, स्कूल, उच्च शिक्षा के लिए बेहतरीन सुविधाओं वाला काॉलेज, पार्क, जॉगिंग पार्क, साईकलिंग ट्रैक आदी की सुविधाएं मिलेगी। इससे इस क्षेत्र में आवासीय और कारोबारी क्षेत्र में बड़ा निवेश आने की संभावनाएं जातई जा रही हैं। इसके चलते रोजगार के अनेक अवसर मिलने की भी संभावनाएं देखी जा रही हैं।
आरकेडिया चाय बागान देहरादून का एक मात्र सबसे बड़ा चाय बागान है जो आज भी बचा हुआ है जबकि पूर्व में दर्जनां चाय के बागानों में आवासीय कॉलोनियां विकसित हो चुकी हैं। निरंजन पुर, बंजारावाला, बसंत विहार, प्रेमनगर के चाय बागान तो वर्षों पूर्व ही पूरी तरह से खत्म कर दिए गए थे लेकिन आरकेडिया और होपटाउन के चाय बागान आज भी न केवल जीवित हैं, साथ ही इनमें चाय का उत्पादन भी हो रहा है। हालांकि यहां चाय का उत्पादन नाम मात्र के लिए ही हो रहा है। इन बागानों का कुल क्षेत्रफल 2 हजार एकड़ है। साथ ही इन बागानों में तकरीबन 25 हजार के विभिन्न प्रजाति के वेशकीमती हरे-भरे पेड़ भी खड़े हैं। कहा जाता है कि इन बागानों के कारण ही आज देहरादून की आबोहवा बची हुई है। कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो चुके देहरादून शहर के पर्यावरण को बचाने में इन चाय बागानों की सबसे बड़ी भूमिका रही है।
क्या है चाय बागान कानून
चाय बागान पर्यावरण और जैव विविधता के लिए इतना महत्वपूर्ण है कि इनके संरक्षण के लिए भारत सरकार द्वारा एक कानून भी बनाया गया है जिसके तहत सरकार किसी भी सूरत में चाय बागानों का भू-उपयोग को परिवर्तित नहीं कर सकती है। सरकार द्वारा लीज पर चाय उद्योग के लिए भूमि दी गई है और इसका उपयोग हर हालत में केवल और केवल चाय उत्पादन के लिए ही हो सकता है। इस कानून के अनुसार न तो चाय बागान का स्वामित्व हस्तांतरित हो सकता है और नहीं इसे बेचा जा सकता है। लेकिन समय-समय पर सरकार के साथ-साथ शासन-प्रशासन में उच्च पदों पर बैठे लोगों से मिलीभगत करके चाय के बागानों को आवासीय कॉलोनियों के नाम पर उजाड़ा जाता रहा है और आलीशान उपनगर जेसे आवासीय इलाके स्थापित किए जाते रहे हैं।
अस्थाई राजधानी बनने के बाद शुरू हुआ खेल
पृथक उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद देहरादून में अस्थाई राजधानी बनी तो देहरादून में जमीनों के भाव आसमान छूने लगे जिसके चलते चाय के बागानों को भी समाप्त करने के प्रयास होने लगे लेकिन भू-उपयोग परिवर्तन न होने और भूमि सरकारी लीज के चलते ये प्रयास कभी कामयाब नहीं हो पाए। लेकिन जो चाय के बागान निजी भूमि पर थे वे गुपचुप तरीके से समाप्त होते चले आज देहरादून में निजी भूमि का एक भी चाय का बगीचा नहीं है। देहरादून का दम तोड़ता चाय बागान का कारोबार बागान मालिकां की सोची-समझी साजिश के तहत समाप्त किया जाता रहा लेकिन सरकार ने इस ओर देखने की कोशिश तक नहीं की। पूर्व नौकरशाह आरएस टोलिया भी मानते थे कि सरकार देहरादून के चाय बागानों को भी चाय कंपनियों के साथ मिल कर सहकारिता के प्रयोग से कोसानी के जैसे ही आगे बढ़ा सकती है। उनका कहना था कि अगर आजादी के बाद भूमि स्वामित्व में कोई परिर्वतन नहीं किया गया है तो सरकार चाय बागान एक्ट के तहत सभी लीज वाले बागानों को अधिग्रहण कर सकती है और उनको सहकारिता के तहत चलाने में पूरा सहयोग कर सकती है।
आरकेडिया और हरवंशवाला के चाय के पौधे तकरीबन 150 वर्ष से लगाए गए थे। ये सभी पुराने पौधे आज भी चाय उत्पादन करने मे सक्षम हैं। लेकिन तकरीबन दो दशक से इन चाय के पौधे को सिंचाई ओैर खाद तक नहीं दी गई है साथ ही निराई- गुड़ाई तक नहीं की गई है। आरकेडिया चाय बागान श्रमिक संघ की सचिव चंपा का कहना है कि अगर इन चाय के पौधां को सिंचाई और खाद दी जाए तो ये आज भी चाय के उत्पादन के लिए सही हैं भले ही चाय में अब उतनी अच्छी क्वालिटी न हो।
बन सकता था चाय बागान हब
राज्य बनने के बाद राज्य सरकार लीज की भूमि पर स्थापित चाय के बागानों को हस्तगत कर सकती थी औेर राज्य में चाय की खेती के लिए चाय बोर्ड को इसका अधिकार सौंप कर असम और पूर्वोत्तर भारत की ही तरह से उत्तराखण्ड को भी चाय उत्पादन का हब बना सकती थी। लेकिन सरकार ने इस पर कभी कोई प्रयास तक नहीं किया। सरकार की इसी ढिलाई के चलते आरकेडिया टी स्टेट की देहरादून चाय कम्पनी ने गुपचुप तरीके से अपनी कंपनी ही बेच दी और नई कंपनी ने चाय के बागान को समाप्त कर के भव्य आलीशान हाउसिंग प्रोजेक्ट लगाने में ही अपना फायदा समझी।
कई बार हुए बागान बेचने के प्रयास
ऐसा नहीं है कि इसकी भनक सरकार को न लगी हो। वर्ष 2006 में बेहद गुपचुप तरीके से इसका सौदा किया जा चुका था। अपुष्ट जानकारी के अनुसार राज्य बनने के बाद देहरादून टी कंपनी द्वारा देश की सबसे बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनी एमजीएफ एम्मार को अपने चाय बागान का सौदा कर दिया गया था। लेकिन चाय बागान एक्ट के चलते यह सौदा सार्वजनिक नहीं हो पाया। राज्य में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद फिर से इस सौदे के लिए हाथ-पांव चलाए गए, लेकिन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने चाय एक्ट का हवाला देते हुए भू-उपयोग में किसी भी तरह का परिवर्तन करने से साफ इंकार कर दिया।
2007 में प्रदेश में नेतृत्व परिर्वन हुआ और भाजपा सत्ता में काबिज हुई तो एक बार फिर से इसके लिए प्रयास होने लगे लेकिन तब तक राज्य के भू-कानून और भी कड़े बना दिए गए थे जिसके चलते चाय बागान का स्वामित्व परिवर्तन होना नामुमकिन था। इसके लिए तोड़ यह निकाला गया कि भू सींलींग की कार्यवाही से बचने के लिए देहरादून टी कंपनी को पहले कलकत्ता स्टॉक एक्सचेंज में सूचिबद्ध किया गया और लॉजीकल बिल्डवेल कंपनी ने देहरादून टी कंपनी के 80 फीसदी शेयर खरीद कर कानूनन अधिग्रहित कर लिया। इसके बाद असल हकीकत सामने आई और लॉजीकल बिल्डवेल कंपनी ने अपने सभी शेयर एमजीएफ एम्मार कम्पनी को स्थानांतरित कर दिए। पर्दे के पीछे जो खेल वर्षों से खेला जा रहा था वह 2008 में सामने आ गया और सार्वजनिक तौर पर एमजीएफ एम्मार कंपनी ने देहरादून टी कंपनी का नाम देहरादून टी कंपनी इंडिया लिमिटेड कर यह घोषित कर दिया कि अब वे ही इसके असल मालिक हैं।
मास्टर प्लान में बदलाव भी हुआ
भाजपा सरकार के समय में भी देहरादून टी कंपनी इंडिया लिमिटेड के नये स्वामियों द्वारा चाय बागान का भू उपयोग में परिर्वतन करने का पूरा प्रयास किया। बताया जाता है कि 2008 में कम्पनी चाय बागान की जमीनो में रियल स्टेट का करोबार खड़ा करना चाहती थी। भाजपा सरकार में भी फिर से इसके लिए प्रयास किए गए लेकिन खण्डूड़ी सरकार द्वारा लागू किए गए नये उत्तराखण्ड भू अधिनियम के चलते ऐसा नहीं हो पाया। 2008 में देहरादून के लिए नया मास्टर प्लान घोषित किया गया जिसमें एमडीडीए और शासन में बैठे उच्चपदस्त नौकरशाहों द्वारा मास्टर प्लान में चाय के बागानों को आवासीय घोषित कर दिया गया। इस मामले में भारी विवाद भी हुआ और दोबारा फिर से चाय बागानों का भू-उपयोग पहले की ही तरह कर दिया गया।
बहुगुणा सरकार में भी हुए प्रयास
2012 में कांग्रेस पाटी सत्ता में आई तो एक बार फिर से कम्पनी ने अपना रियल स्टेट का करोबार राज्य में करने का प्रयास किया। लेकिन पूर्ववर्ती निशंक सरकार पर सिटूरजिया मामले में जिस तरह से भू उपयोग परिवर्तन के गंभीर आरोप लगे थे उसके चलते बहुगुणा सरकार ने अपने कदम पीछे कर दिए।
चाय बागान की नहीं हो सकती खरीद-फरोख्त आरटीआई एक्टिविस्ट एडवोकेट विकेश सिंह नेगी ने देहरादून के लाडपुर, रायपुर इलाके की 350 बीघा चाय बागान की जमीन के मामले को उजागर किया था कि यह भूमि सीलिंग की है और कुछ भू-माफिया इस भूमि को खुर्द-बुर्द करने में जुटे हुए हैं। उन्होंने इस मामले में प्रशासन को शिकायत की थी। इसके बाद जब कार्रवाई नहीं हुई तो हाईकोर्ट की शरण ली। हाईकोर्ट ने जिला प्रशासन को निर्देश दिए थे कि सीलिंग की जमीन को खरीद-फरोख्त पर तुरंत प्रभाव से रोक लगाई जाएं। जिला प्रशासन ने इस संबंध में एक समिति का गठन कर जांच शुरू कर दी थी। आदेश के अनुसार देहरादून जनपद के ग्राम जमनीपुर, एटनबाग, बदामावाल, अम्बाड़ी, जीवनगढ़, एनफील्ड, ग्रांट, ईस्टहोपटाउन, रायपुर, नत्थनपुर, चक रायपुर, आरकेडिया ग्रांट, कांवली, हरबंशवाला, मिट्टी बेहड़ी, मलुकावाला, खेमादोज, मोहकमपुर खुर्द, बंजारावाला माफी, लाडपुर, के विभिन्न खसरा नंबरों को चाय बागान की भूमि मानते हुए ग्रामीण सीलिंग से छूट प्रदान की गई। उत्तर प्रदेश अधिनियम जोत सीमा आरोहण 1960 की धारा 6 (10 घ और 6 (2) के उल्लंघन परिप्रेक्ष्य में उक्त भूमि के क्रय-विक्रय पर भी रोक लगा दी गई है।
गौरतलब है कि चाय बागान की सीलिंग की जमीन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिए थे कि 10 अक्टूबर 1975 के बाद सीलिंग की जमीन की खरीद-फरोख्त नहीं की जा सकती है। 10 अक्टूबर 1975 के बाद चाय बागान की भूमि की जो खरीद फरोख्त हुई है वह स्वतः ही समाप्त हो जाएगी और जमीनें सरकार में निहित हो जाएंगी। यदि ऐसा हुआ तो जमीन सरकार की होगी। इसके बावजूद भूमाफिया इस जमीन को को खुर्द-बुर्द कर रहे हैं। एडवोकेट विकेश नेगी के प्रयासों से सरकारी जमीन को खुर्द-बुर्द होने से बचाया गया है।
चाय बागान की नहीं हो सकती खरीद-फरोख्त
आरटीआई एक्टिविस्ट एडवोकेट विकेश सिंह नेगी ने देहरादून के लाडपुर, रायपुर इलाके की 350 बीघा चाय बागान की जमीन के मामले को उजागर किया था कि यह भूमि सीलिंग की है और कुछ भू-माफिया इस भूमि को खुर्द-बुर्द करने में जुटे हुए हैं। उन्होंने इस मामले में प्रशासन को शिकायत की थी। इसके बाद जब कार्रवाई नहीं हुई तो हाईकोर्ट की शरण ली। हाईकोर्ट ने जिला प्रशासन को निर्देश दिए थे कि सीलिंग की जमीन को खरीद-फरोख्त पर तुरंत प्रभाव से रोक लगाई जाएं। जिला प्रशासन ने इस संबंध में एक समिति का गठन कर जांच शुरू कर दी थी। आदेश के अनुसार देहरादून जनपद के ग्राम जमनीपुर, एटनबाग, बदामावाल, अम्बाड़ी, जीवनगढ़, एनफील्ड, ग्रांट, ईस्टहोपटाउन, रायपुर, नत्थनपुर, चक रायपुर, आरकेडिया ग्रांट, कांवली, हरबंशवाला, मिट्टी बेहड़ी, मलुकावाला, खेमादोज, मोहकमपुर खुर्द, बंजारावाला माफी, लाडपुर, के विभिन्न खसरा नंबरों को चाय बागान की भूमि मानते हुए ग्रामीण सीलिंग से छूट प्रदान की गई। उत्तर प्रदेश अधिनियम जोत सीमा आरोहण 1960 की धारा 6 (10 घ और 6 (2) के उल्लंघन परिप्रेक्ष्य में उक्त भूमि के क्रय-विक्रय पर भी रोक लगा दी गई है।
गौरतलब है कि चाय बागान की सीलिंग की जमीन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिए थे कि 10 अक्टूबर 1975 के बाद सीलिंग की जमीन की खरीद-फरोख्त नहीं की जा सकती है। 10 अक्टूबर 1975 के बाद चाय बागान की भूमि की जो खरीद फरोख्त हुई है वह स्वतः ही समाप्त हो जाएगी और जमीनें सरकार में निहित हो जाएंगी। यदि ऐसा हुआ तो जमीन सरकार की होगी। इसके बावजूद भूमाफिया इस जमीन को को खुर्द-बुर्द कर रहे हैं। एडवोकेट विकेश नेगी के प्रयासों से सरकारी जमीन को खुर्द-बुर्द होने से बचाया गया है।
रावत और धामी सरकार का अंतर
हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद एक बार फिर से प्रयास आरम्भ हुए और केंद्र सरकार के स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के आने से देहरादून टी कंपनी इंडिया लिमिटेड के लिए मन माफिक माहौल बन गया। इसी प्रोजेक्ट की आड़ में हरीश रावत सरकार देहरादून टी कम्पनी इंडिया लिमिटेड की भूमि को बाजार भाव से खरीद कर स्मार्ट सिटी बनाने के लिए अपनी सारी ऊर्जा खर्च करने में जुट गई। अब राज्य सरकार द्वारा फिर से दून के चाय बागानों को स्मार्ट सिटी के नाम पर खत्म करने की योजना पर दोबार काम आरंभ कर दिया है। हैरानी इस बात की है कि राज्य सरकार इसके लिए कोई अन्य भूमि का चयन करने की बजाय केंद्र सरकार को आरकेडिया चाय बागान की ही भूमि पर स्मार्ट सिटी योजना के लिए 719-7 हेक्टेयर भूमि देने के लिए तत्पर है। हरीश रावत सरकार और मौजूदा धामी सरकार में सिर्फ इतना फर्क है कि जहां हरीश रावत सरकार इसके लिए 2 हजार एकड़ भूमि खरीदने का प्रयास कर रही थी वही धामी सरकार महज 719-7 हेक्टेयर भूमि पर सहमत है। चाय बागान की शेष भूमि का भविष्य क्या होगा इस पर स्थिति स्पष्ट नहीं है।
बात अपनी-अपनी
सात साल पहले कांग्रेस सरकार में क्या कांटे थे जो उनकी स्मार्ट सिटी परियोजना भाजपा ने निरस्त कराई और अब ऐसे क्या फूल खिल गए जो यह योजना फिर से लाई जा रही है।
करण माहरा, प्रदेश अध्यक्ष, कांग्रेस
आज विश्व में जलवायु परिवर्तन के खतरनाक परिणाम देखने को मिल रहे हैं। आज हमें स्मार्ट सिटी की जगह स्मार्ट नगारिक बनाने चाहिए। हर नागरिक के लिए शुद्ध हवा, शुद्ध पानी औेर स्वच्छ पर्यावरण देना सरकार और हम सबकी जिम्मेदारी है। इसके लिए हमें उन सभी को जीवित रखना है जो हमें और हमारे पर्यावरण को बचा रहे हैं। नगर में बड़े-बड़े भवनों को बनाया जा रहा है। लेकिन इसके पीछे हम अपने पर्यावरण को खत्म करते जा रहे हैं।
अनिल जोशी, अध्यक्ष हैस्को
देहरादून शहर कंक्रीट के जंगल बनकर पूरी तरह से बर्बाद हो चुका है। आज इस नगर की आबोहवा में जहर इस कदर घुल चुका है कि इसका पूरा पर्यावरण खत्म हो गया है। केवल एक मात्र चाय बागान ही बचा है जो इस नगर की हवा को शुद्ध करता है। हम अपनी सरकार से इस मामले में जल्द ही बात करने वाले हैं और सरकार से मांग करेंगे कि स्मार्ट सिटी के लिए चाय बागान की भूमि को न लिया जाए। चाय बागान को और भी मजबूत करके कम से कम इस नगर की आबोहवा को बचा सकते हैं। हमारे विचार जो पहले थे आज भी वही हैं कि चाय बागान को स्मार्ट सिटी के नाम पर बर्बाद नहीं होने दिया जाएगा, इसके लिए हम पूरा प्रयास करेंगे।
रविन्द्र जुगराण, वरिष्ठ राज्य आंदोलनकारी
जून 2018 में हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को एक मामले में आदेश दिया था कि चाय बागान के स्वरूप को सरकार किसी भी सूरत में बदल ही नहीं सकती। अगर राज्य सरकार ऐसा कर रही है तो यह तो सीधा सीधा-हाईकोर्ट की अवमानना होती है। वैसे मैकेंजी एक कॉन्सलटेंट संस्था है जिसे राज्य सरकार ने हायर किया है। मैकेंजी कोई सरकार नहीं है।
अनूप नौटियाल, समाजसेवी
देहरादून में अब केवल चाय बागान ही एक ग्रीन बेल्ट रह गई है इसे कैसे खत्म किया जा सकता है। हजारां कंक्रीट के भवनां से पहले ही देहरादून बर्बाद हो रहा है, कम से कम चाय बागान को तो बचा रहने दो। पर्यावरण को बचाने का काम कर रहा है हजारां पेड़-पौधे चाय बागान में है जो हवा को साफ कर रहे हैं। चाय बागान में किसी भी प्रकार की कोई परियोजना नहीं होनी चाहिए।
समर भंडारी, सदस्य, राष्ट्रीय परिषद सीपीआई