उत्तराखण्ड में जोशीमठ आपदा से पहाड़ के अधिकतर लोग भयभीत हैं। हालांकि सरकार की तरफ से आपदा राहत शिविर शुरू किए गए हैं। पिथौरागढ़ के सीमांत दारमा घाटी में भी जोशीमठ जैसी आपदा का साया लोगों के सर मंडरा रहा है। जब से यहां बोकांग बेलिंग जल विद्युत परियोजना लगाए जाने की बातें हुई हैं तब से ही स्थानीय लोग डरे-सहमे हुए हैं। टीएचडीसी द्वारा यहां 165 मेगावाट जल विद्युत परियोजना की बाबत सर्वे शुरू कर दिया गया है। इलाके के लोग इसके विरोध में उतर आए हैं, जिनका कहना है कि उन्हें अपने क्षेत्र को दूसरा जोशीमठ नहीं बनने देना है
वे ऊपर कई किलोमीटर कहीं बहुत दूर, अभाव में रहने को अभिशप्त। अपनी नियति से जूझते, आपदा से उजड़ते गांव, खेतों के बीच जिंदगी की गुजर-बसर कर रहे हैं। ये कोई चार-पांच परिवार नहीं बल्कि दर्जनों परिवार हैं। विकास, आधुनिकता, उदारवाद, वैश्वीकरण, निजीकरण, सरकार जैसी चीजों से कोसों दूर। लाभ- हानि से दूर जीवन की गाड़ी को जैसे-तैसे आगे खींचते चले जा रहे हैं। यह आज से नहीं सदियों से ही इनकी जिंदगी ऐसे ही चली आ रही है। बदलाव के यहां कोई मायने नहीं हैं। अगर इनकी ताकत है तो प्रकृति की संपन्नता, समृद्ध संस्कृति, परंपरा, दस्तकारी जो यहां के लोगों के जनजीवन को बनाए हुए है। जहां तक बदलाव की बात है तो वह हो भी कैसे? आंखिर बदलाव लाने वाली मशीनरी कभी इस बात को लेकर उत्सुक नहीं रही कि चलो, इनकी जिंदगी में बहार लाने के लिए कोई ठोस कार्ययोजना बनाई जाय। अब बांध निर्माण के नाम पर ऐसा विकास लेकर आए हैं जो यहां के लोगों को कतई स्वीकार नहीं है। स्थानीय लोगों का कहना है कि प्रस्तावित बांध से पैदा होने वाली रोशनाई से भले कोई नगर, गांव जगमग हो लेकिन हमारे हिस्से तो आपदा का दंश ही लिखा है। जी हां, हम बात कर रहे हैं जनपद पिथौरागढ़ के दारमा घाटी स्थित गांवों की। इन दिनों इस घाटी में स्थित गांवों के लोग यहां प्रस्तावित बौकांग-बालिंग जल विद्युत परियोजना के विरोध में उतर आए हैं।
यहां के लोग लंबे समय से इस प्रस्तावित बांध का विरोध कर रहे हैं। दारमा घाटी के 14 गांव चीन सीमा से लगे हैं जो आपदा की दृष्टि से अति संवेदनशील हैं। हर साल बारिश में यहां भू-धंसाव, भूस्खलन आदि घटनाएं होती रहती हैं। ग्रामीणों का कहना है कि इस डैम के बनने के बाद राज्य को तो 165 मेगावाट बिजली मिलेगी लेकिन सीमांत में रह रहे लोगों के लिए यह विनाश का कारण बनेगा। इसके विरोध के लिए दारमा संघर्ष समिति संघर्षरत है। अगर यह परियोजना बनती है तो दारमा घाटी के आधे दर्जन गांवों में आपदा का खतरा बढ़ जाएगा। लोगों का कहना है कि अगर परियोजना को रद््द नहीं किया गया तो वे उग्र आंदोलन करने के लिए बाध्य होंगे। वैसे भी यह परियोजना भूकंप की दृष्टि से जोन-5 में बन रही है। दारमा घाटी के पहाड़ को कमजोर माना जाता है। लेकिन सरकार लोगों के विरोध के बावजूद भी जल विद्युत परियोजना को बनाने की तैयारी कर रही है। लोगों का डर है कि दारमा घाटी में 165 मेगावाट की जल विद्युत परियोजना से जोशीमठ जैसी स्थिति पैदा हो जाएगी। लोग टीएचडीसी वापस जाओ के नारे लगा रहे हैं। 90 किमी दूर जिला मुख्यालय पिथौरागढ़ पहुंचकर यहां के ग्रामीण विरोध जता चुके हैं। ग्रामीणों का आरोप है कि टीएचडीसी बालिंग में जल विद्युत परियोजना बनाने की तैयारी कर रही है। इसकी टेस्टिंग के लिए 15 मीटर टनल खोदी गई है। जबकि पहले ही यह क्षेत्र आपदा की मार झेलता रहा है। यह बांध 11 हजार फुट की ऊंचाई पर प्रस्तावित है, जिसे ग्रामीण आपदा की दृष्टि से बेहद गलत मानते हैं। ग्रामीणों का डर यह भी है कि इस परियोजना के बनने से दारमा घाटी के तिदांग, ढाकर, गो, फिलम व बोन गांव के लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा। एक तरफ सरकार चीन सीमा से लगे गांवों को विकसित कर रही है तो दूसरी तरफ विद्युत परियोजनाओं को बनाकर उन्हें उजाड़ने की ओर अग्रसर है। दारमा के लोगों का डर बेवजह नहीं है। वर्ष 1968 से ही दारमा क्षेत्र की जमीन खिसक रही है। ग्रामीण उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से मिलकर अपनी व्यथा कथा बता चुके हैं। ग्रामीणों को डर है कि यह परियोजना इस सीमांत क्षेत्र को आबादी विहीन कर देगा। वहीं टीएचडीसी की टीम दारमा घाटी में भौगोलिक सर्वे कर रही है। कंपनी के इंजीनियर और भू-वैज्ञानिक उच्च हिमालयी क्षेत्र में रन ऑफ रिवर प्रोजेक्ट के लिए घाटी का सर्वे कर रहे हैं। टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (टीएचडीसी) इस काम में पिछले लंबे समय से लगा है। इस विद्युत परियोजना के लिए धौलीगंगा के पानी का उपयोग किया जाना है। नागलिंग से ढांकर गांव तक जमीन के अंदर करीब नौ किमी. टनल बनाई जाएगी। ढांकर में 60 से 100 मीटर ऊंचाई का बांध प्रस्तावित है।
आपदा की दृष्टि से देखें तो प्रस्तावित बांध क्षेत्र के तिदांग गांव को नीचे से धौली नदी काट रही है तो दाएं बाएं से ग्लेशियर इसे अपनी चपेट में ले रहे हैं। इस गांव के लोग हर वक्त खतरे के साये में रहते हैं। ऐसे में प्रस्तावित विद्युत परियोजना ने लोगों को डरा दिया है। हालात यह है कि जो गांव पहले धौली नदी से कई फुट ऊपर बसे थे वह अब लगातार नीचे को धंसते जा रहे हैं। नदी व ग्लेशियर तिदांग गांव की अधिकांश जमीन को निगल चुके हैं। वहीं उच्च एवं मध्य हिमालय की संधि स्थल पर स्थित दारमा घाटी के ‘दर’ गांव पर भूस्खलन की मार पड़ने लगी है। दर्जनों मकानों पर इसका असर पड़ा है। अब कई परिवार यहां से पलायन करने लगे हैं। इस गांव की भूगर्भीय जांच भी हो चुकी है। जिसमें इसके विस्थापन की संस्तुति की गई है। यहां के लोगों के जीवन की कठिनाई को देखें तो दारमा घाटी में सड़क बाधित होने की स्थिति में तवाघाट से पैदल सामान पहुंचाना होता है। पैदल मार्ग इतने खतरनाक हैं कि हर समय पहाड़ी से पत्थर गिरने का डर रहता है। चिकित्सा एवं संचार सेवाओं के लिए यहां के ग्रामीण हमेशा आवाज उठाते रहते हैं। विकास के नाम पर तिदांग गांव में जियो कंपनी ने अपना टावर लगाया है, जिससे यहां पर मोबाइल सेवा शुरू हो चुकी है लेकिन यह भी पूरे दारमा घाटी क्षेत्र को कवर नहीं कर पाता।
स्थानीय नागरिकों का कहना है कि यह एक संवेदनशील भूभाग है। पूर्व में भी इसने कई तरह की आपदाओं का सामना किया है। अगर एक बार यहां बांध बन गया तो यहां की भूमि जलमग्न हो जाएगी। लोगों को अपनी पैतृक भूमि से विस्थापित होना पड़ेगा। दारमावासियों का कहना है कि यहां पर कुछ अलग तरह से विकास होना चाहिए जैसे कि जड़ी-बूटी उत्पादन आदि, जिससे लोगों का जीवन स्तर उठ सके। इसी घाटी में स्थित ‘बौन’ गांव को ‘हर्बल विलेज’ की पहचान मिली है। इस गांव में जड़ी-बूटियों की खेती होती है। आज भी इस क्षेत्र में पारम्परिक तरीके से जम्बू, कुटकी, गंदरायन, अतीस, कुठ, काला जीरा सहित कई तरह की जड़ी-बूटियों की खेती होती है।
आजादी से पहले यह क्षेत्र दारमा परगना के नाम से जाना जाता था। तब दारमा तीन भागों में बंटा था- दारमा, व्यास व चौंदास। 1872 के बंदोबस्त में दारमा पट्टी को मल्ला दारमा व तल्ला दारमा में बांटा गया। तल्ला दारमा में सुमढुंग, दर, रौलदंग, बोंगलिंग कंज्योति, झिमरी गांव, न्यू, सुवा, तीजम, वतन, गांव स्थित हैं। वहीं मल्ला दारमा में ढाकर, गो, तीदांग, विदांग, सीपू, दावे, सिनलापास सेला, चल, नागलिंग, बालिग, दुग्तू, सौन, दांतू, बोन, फिलम, गांव स्थित हैं। पंचाचूली पर्वत माला भी दारमा वैली में ही आती है। इसकी तलहटी पर ही दारमा घाटी के गांव बसे हैं। इसे हिमालय की सुंदर घाटियों में से एक माना जाता है। यही वजह है कि लोग आपदा एवं यहां के प्राकृतिक सौंदर्य को देखते हुए भी इस क्षेत्र से छेड़छानी करना पसंद नहीं कर रहे हैं। कहते हैं कि दारमा घाटी में ही पांडवों ने आंखिरी बार खाना खाया था। यहां की सभ्यता, खान-पान, परंपरा, रहन-सहन, बुग्याल, हिमाच्छादित पहाड़ इसे अलग बनाते हैं। दारमा घाटी का निर्माण दारमा नदी से होता है। दारमा घाटी में स्थित गांवों में जनजातीय समाज निवास करता है। जिसकी अपनी समृद्ध संस्कृति, परंपराएं, रहन-सहन है। यही नहीं यहां बने पत्थर के मकान, मिट्टी की पाल, लकड़ी से बनी खिड़कियां-दरवाजे तथा उन पर उकेरी गई नक्काशियां भी यहां की खास पहचान रही हैं। यहां रं समाज के लोग निवास करते हैं। यह घाटी अपने हस्तशिल्प के लिए भी प्रसिद्ध है। धारचूला से 18 किमी. दूर तवाघाट नामक जगह है। यहां पर काली एवं धौली गंगा नदियों का संगम है। अगर काली नदी के साथ-साथ ऊपर की तरफ को चलें तो व्यास घाटी पहुंचेंगे। अगर धौली गंगा के किनारे ऊपर की तरफ को चलेंगे तो दारमा घाटी पहुंचेंगे। तीसरी घाटी जो चौंदास घाटी के नाम से प्रसिद्ध है। यह दारमा व व्यास के मध्य स्थित है।
बड़े बांधों से भूकंपीय खतरा
बड़े बाधों को करोड़ों लोगों के जीवन को खतरे में डालने वाली और भावनाओं को चोट पहुंचाने वाली परियोजना माना जाता है। इन परियोजनाओं में कई क्षेत्र हमेशा के लिए डूब जाते हैं। बड़े बांधों की परिकल्पना ही भूकंपीय खतरों को दावत देना है। सिंचाई, बिजली उत्पादन तथा बाढ़ नियंत्राण के लिए बनाया जाने वाला बांध सिर्फ एक इंजीनियरी संरचना ही नहीं है, बल्कि नदी के पर्यावरण तंत्र को पूर्णतः बदल डालने वाली कृत्रिम कृति भी है। बहते हुए जल के पर्यावररण तंत्र के स्थान पर जलाशय के ठहरे हुए पानी का घुटन भरा संसार विकसित होता है। अतः जीव जन्तुओं, भूजल और भूभौतिक परिस्थितियों पर गंभीर प्रभाव भी पड़ता है। हिमालय में बन चुके और बनने वाले बांधों में अधिसंख्य सक्रिय भ्रंशों और दरारों के निकट हैं। बांधें पर विपदा न भी आई तो जलाशयों में तीव्र गति से रेत मिट्टी भरने से उसकी उपयोगिता अवधियां घटती जाएंगी।। वहीं नदी तंत्र के जलाशय तंत्र में बदलने से जलचर जीवों का संसार ही बदल जाता है।
डॉ. खड़क सिंह बल्दिया, भू वैज्ञानिक की पुस्तक ‘संकट में हिमालय’ से
बात अपनी-अपनी
अभी भौगोलिक स्थितियों का अध्ययन, सर्वे, अनुसंधान का कार्य किया जा रहा है। भौगोलिक परिस्थितियां अनुकूल मिलने पर ही परियोजना के कार्य को आगे बढ़ाया जाएगा। अनुसंधान का डाटा भी भविष्य में इस क्षेत्र के काम आएगा। इस परियोजना के अस्तित्व में आने से क्षेत्र का विकास होगा। मछली पालन के साथ ही पर्यटन से भी रोजगार पैदा होगा।
डी.एस.पंचपाल, स्थानीय प्रबंधक, टीएचडीसी
दारमा घाटी के कई गांव आपदा की मार झेल रहे हैं। ऐसे में 165 मेगावाट की प्रस्तावित बोकांग बालिंग जल विद्युत परियोजना से घाटी में आपदा का खतरा और बढ़ जाएगा। समय रहते ऐसी परियोजनाओं को बंद कर देना चाहिए। सरकार को
जोशीमठ के हालातों से सबक सीखना चाहिए।
पूरन सिंह ग्वाल, अध्यक्ष, दारमा संघर्ष समिति