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केंद्र की मोदी सरकार पर आरोप लगते रहे हैं कि वह संशोधान के जरिए आरटीआई कानून को कमजोर कर रही है और सूचना आयुक्तों पर दबाव डालना चाहती है ताकि वे ऐसे फैसले न दे सके जो सरकार के खिलाफ हो। इसी परिपाटी पर उत्तराखण्ड के लोक सूचना अधिकारी चल रहे हैं। ‘दि संडे पोस्ट’ ने जब आरटीआई के तहत विधानसभा से संबंधित जानकारी मांगी तो सूचना देने के बजाय तारीख पर तारीख दी जाती रही। हाल यह है कि तीस दिन में जिस जानकारी को मिल जाना चाहिए था वह पैंतालीस दिन बाद भी नहीं मिली। इसकी तह में जब जाया गया तो तत्कालीन प्रमुख सचिव शत्रुघ्न सिंह का एक ऐसा तुगलकी फरमान सामने आया जिसमें सूचनाएं देने के बजाय तारीख पर तारीख देने के निर्देश दिए गए हैं

01 अप्रैल 2022 : ‘दि संडे पोस्ट’ संवाददाता की तरफ से विधानसभा सचिवालय से संबंधित तीन बिंदुओं पर जानकारी को लेकर सूचना के लिए आवेदन किया गया। लेकिन लोक सूचना अधिकारी हेम पंत द्वारा 45 दिन बीत जाने के बाद भी सूचना नहीं दी गई।
24 मई 2022 : प्रथम अपीलीय अधिकारी चंद्रमोहन
गोस्वामी के कार्यालय में प्रथम अपील की गई।
13 जून 2022 : प्रथम अपील पर सुनवाई निर्धारित की गई। लेकिन आवेदक को इसकी सूचना नहीं दी गई।
22 जून 2022 : लोक सूचना अधिकारी हेम पंत सुनवाई में अनुपस्थित रहे, जिसके चलते सुनवाई नहीं हो पाई।
29 अगस्त 2022 : प्रथम अपील की दूसरी बार तिथि निर्धारित की गई, लेकिन लोक सूचना अधिकारी हेम पंत फिर से अनुपस्थित रहे। कारण बताया गया कि वे अस्वस्थ हैं।
31 अगस्त 2022 : प्रथम अपील की तीसरी बार सुनवाई की तिथि निर्धारित की गई। लोक सूचना अधिकारी हेम पंत पहली बार उपस्थित हुए। उन्होंने कहा कि वह आवेदक को एक सप्ताह के अंदर सभी सूचनाएं दे देंगे। लेकिन आवेदक को कोई जानकारी नहीं दी गई।

 

प्रस्तावना

सूचना का अधिकार के तहत विधानसभा अध्यक्ष के विशेषाधिकारों के संबंध में जारी नियम, उपनियम और शासनादेश की सूचना मांगी गई। सूचना मांगने के चार माह बाद भी ‘दि संडे पोस्ट’ संवाददाता को जानकारी नहीं दी गई। इस दौरान तीन बार प्रथम अपील की जा चुकी है। जबकि सूचना अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 7 (1) के तहत 30 दिन में समस्त सूचना देने का प्रावधान है। प्रदेश में सूचना पाना कितनी टेढ़ी खीर बन चुका है। यह इस मामले से समझा जा सकता है। जब एक पत्रकार को चार माह बाद भी सूचना नहीं मिलती है और सूचना देने के नाम पर तारीख पर तारीख दी जाती है तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि आम आदमी को कितने महीनों तक चक्कर काटने को मजबूर होना पड़ता होगा।

सबसे ज्यादा प्रभाव विधानसभा सचिवालय में देखने को मिल रहा है। कई कर्मचारी जो अपने वेतन, वेतन वृद्धि और अन्य जानकारी के लिए अपने ही विभाग से सूचना मांग रहे हैं लेकिन उनको सूचना के नाम पर लगातार प्रथम अपील से ही दो-चार होना पड़ रहा है। एक मामले में तो एक वर्ष से भी ज्यादा का समय बीत चुका है। कई बार प्रथम अपील की सुनवाई तक हो चुकी है लेकिन अभी तक उक्त व्यक्ति को सूचना नहीं दी गई है। भुक्तभोगियों में जनसंघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष एवं जीएमवीएन के पूर्व उपाध्यक्ष रघुनाथ सिंह नेगी भी शामिल हैं। उन्होंने भी विधानसभा से संबंधित सूचनाएं मांगी लेकिन तीन माह बीत जाने के बाद भी उन्हें जानकारी नहीं दी गई है।

लेटलतीफी का कारण

‘दि संडे पोस्ट’ संवाददाता जब चार माह बाद भी सूचना पाने में कामयाब नहीं हुए तो उन्होंने इसके पीछे के कारण की जांच की। जिसमें छह साल पहले का एक दस्तावेज मिला। इसका प्रारूप कुछ इस तरह है कि अपीलकर्ता को 30 दिन में सूचना देने की बजाय उन्हें 15-15 दिन के लिए तारीखें देते रहो। यानी की सूचना देने की बजाय तारीख पर तारीख देने का अजीबो- गरीब निर्देश दिया गया है। सवाल यह है कि यह निर्देश किसने दिया।

क्या है वह निर्देश

सूचना मांगने वाले अपीलकर्ता को 15-15 दिन की तारीख देने वाले कोई और नहीं बल्कि उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्य सचिव शत्रुघ्न सिंह हैं। 17 फरवरी 2016 को पत्रांक संख्या 231 के तहत उन्होंने स्पष्ट आदेश करते हुए कहा कि प्रथम विभागीय अपीलीय अधिकारी प्रथम अपील के निस्तारण में लोक सूचना अधिकारी को सूचना 10 दिन या एक सप्ताह की अवधि में दिए जाने के मात्र निर्देश दे रहे हैं। उनके द्वारा यह नहीं देखा जा रहा है कि क्या धारा 8 के विभिन्न प्रावधानों, माननीय सर्वोच्च न्यायालय, विभिन्न माननीय उच्च न्यायालयों द्वारा पारित निर्णयों के अंतर्गत संबंधित सूचना दी जा सकती है कि नहीं। जिस कारण आयोग के समक्ष द्वितीय अपीलें करनी पड़ रही हैं। प्रथम अपीलीय अधिकारी को चाहिए कि 15-15 दिन की तारीखें लगाकर लोक सूचना अधिकारी को सूचना दिए जाने के लिए निर्देशित करें तब तक अपील का निस्तारण न करें जब तक कि अनुरोध पत्र की सभी दी जाने वाली सूचनाएं भेज न दी जाए। शत्रुघ्न सिंह ने सभी प्रमुख सचिव और सचिवों के साथ ही गढ़वाल और कुमाऊं मंडल के मंडलायुक्त, प्रदेश के सभी जिलाधिकारी और समस्त विभागाध्यक्ष को यह निर्देश दिए। इन निर्देशों के साथ ही उन्होंने साफतौर पर कहा कि निर्देशों का कड़ाई से पालन किया जाना सुनिश्चित किया जाए। इसके साथ ही शत्रुघ्न सिंह ने उत्तराखण्ड सूचना आयोग के वार्षिक प्रतिवेदन 2012-13 की संस्तुति को आधार बताकर अपना बचाव भी किया है।

 

सूचना आयोग के प्रतिवेदन की आड़

उत्तराखण्ड सूचना आयोग के वार्षिक प्रतिवेदन 2012-13 में सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 के अंतर्गत विभागीय अपील अधिकारी प्रथम अपील के निस्तारण में लोक सूचना अधिकारी महज निर्देश दे रहे हैं। यह भी नहीं देखा जा रहा है कि धारा-8 के अंतर्गत पारित परिपालन में सूचना दी जा सकती है या नहीं। याद रहे कि सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8 ऐसे विषयों को उल्लेखित करती है जिन पर मांगी गई सूचनाओं को नहीं दिया जा सकता है। ऐसे विषय देशहित में और किसी व्यक्ति के हित में होते हैं जिनसे संबंधित सूचनाओं को नहीं दिया जा सकता है।

इस तरह देखा जाए तो ‘दि संडे पोस्ट’ संवाददाता द्वारा मांगी गई सूचनाएं इस धारा के अंतर्गत नहीं आती है। इस दौरान आरटीआई एक्ट के तहत जनहित में सैकड़ों सूचनाएं मांगी गई, लेकिन इनमें से दर्जनों आरटीआई ऐसी हैं जिन पर महीनों बीत जाने के बावजूद अभी तक कोई भी जवाब नहीं मिल पाया है। दरअसल, प्रदेश में पिछले कुछ समय से सरकारी विभागों से आवेदकों को छह माह बीत जाने के बावजूद न तो सूचना दी जा रही है और न ही प्रथम अपील की सुनवाई के आदेशों का पालन किया जा रहा है। अपील के तारीखों में अधिकारी जान-बूझकर हाजिर नहीं होते हैं, जिस कारण सूचना आयुक्त भी आवेदकों को सूचना देने में नाकाम हो रहे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि जब तक प्रथम अपील का निवारण नहीं हो जाता, तब तक सूचना आयुक्त आवेदक की दूसरी अपील नहीं सुन सकते। कहा जा सकता है कि धारा 8 की आड़ में प्रदेश में आरटीआई कानून पूरी तरह से लचर हो चला है।

शत्रुघ्न सिंह के निर्देशों को किया अपने पक्ष में

तत्कालीन मुख्य सचिव शत्रुघ्न सिंह के शासनादेश को किस तरह से विभागीय लोक सूचना अधिकारी और विभागाध्यक्षों के साथ-साथ सूचना आयुक्त ने भी अपने पक्ष में लागू किया है, इसकी बानगी स्वयं सूचना आयुक्त द्वारा एक अपील के निस्तारण में किए गए निर्णय से ही सामने आ रही है। 17 अगस्त 2022 को मुख्य सूचना आयुक्त अनिल चंद पुनेठा द्वारा अपील के निस्तारण में बिंदु संख्या 9 में 2016 के शासनादेश का उल्लेख कर स्पष्ट लिखा है कि उपरोक्त निर्देश के क्रम में प्रस्तुत प्रथम अपील की पुनः सुनवाई के लिए विभागीय अपीलीय अधिकारी या संयुक्त सचिव उत्तराखण्ड विधानसभा सचिवालय को भेज दी जाती है। यानी आवेदक को प्रथम अपील के बावजूद सूचना न मिलने पर उसके द्वारा आयोग में अपील की गई लेकिन वहां से भी उसे सूचना दिए जाने का कोई निर्णय नहीं हुआ और उसे फिर से प्रथम अपीलीय अधिकारी के पास अपील करने को मजबूर होना पड़ेगा, जहां से उसे सूचना तो मिल नहीं रही, अलबत्ता तारीख पर तारीख जरूर मिलती है।

राज्य नहीं कर सकते बदलाव

राज्य के कई आरटीआई एक्टिविस्ट का स्पष्ट कहना है कि सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 में राज्य सरकार किसी तरह का कोई बदलाव नहीं कर सकती। मुख्य सचिव द्वारा जारी शासनादेश भी पूरी तरह से आरटीआई एक्ट के खिलाफ है। साथ ही सूचना आयुक्त भी इसी शासनादेश को निर्णय में ले रहे हैं जो कि पूरी तरह से आरटीआई एक्ट के विरुद्ध है। बावजूद इसके शासनादेश की आड़ में सूचना का अधिकार कानून का घोर उल्लंघन किया जा रहा है जिसमें स्वयं सूचना आयुक्त भी शामिल है।

सूचना आयुक्त बनने पर भी नहीं किए शासनादेश निरस्त

इस मामले में सबसे ज्यादा दिलचस्प बात यह हे कि 15-15 दिनों की प्रथम अपील का शासनादेश जारी करने वाले शत्रुघ्न सिंह स्वैच्छिक सेवानिवृति के बाद राज्य सूचना आयुक्त के पद पर तैनात हुए थे। जबकि उनके ही द्वारा जारी किया गया शासनादेश आरटीआई कानून के प्रावधानों के खिलाफ था। लेकिन उन्होंने राज्य सूचना आयुक्त बनने के बाद भी अपने शासनादेश को निरस्त नहीं करवाया।

क्या कहता है कानून


सूचना अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 7 (1) के तहत 30 दिन के अंदर पूर्ण सूचना देने का प्रावधान है। 30 दिन के अंदर सूचना नहीं मिलने पर एक्ट की धारा 19 (1) के तहत प्रथम अपील देने का प्रावधान है तथा प्रथम अपील का निपटारा 19 (6) के अनुसार 30 दिन के अंदर होना चाहिए। सूचना नहीं देने पर एक्ट की धारा 20 (1) के तहत जुर्माना लगाने का अधिकार भी राज्य सूचना आयोग के पास ही है।

एक्ट की धारा 20 (2) के अनुसार सूचना नहीं देने वाले या गलत सूचना देने वाले अधिकारी या कर्मचारी के खिलाफ प्रशासनिक कार्रवाई करने का अधिकार भी राज्य सूचना आयोग के पास ही है। राज्य सूचना आयोग कार्रवाई न करे तो एक्ट में आगे कोई प्रावधान नहीं है।

बात अपनी-अपनी

मुख्य सचिव का शासनादेश आरटीआई कानून के पक्ष में नहीं है। इस तरह का शानादेश जारी करने से पूर्व आरटीआई एक्ट का अध्ययन किया जाना चाहिए था। कानून में प्रथम अपीलीय अधिकारी को 15-15 दिनों की अपील किए जाने का कोई आदेश कैसे पारित हो सकता है। जहां तक धारा 8 का सवाल है उसमें आवेदक को बताया जाना चाहिए कि आमुक सूचना नहीं दी जा सकती लेकिन जो सूचना दी जा सकने वाली है उसे तो तय सीमा के भीतर देना ही होगा। नहीं तो आवेदक सूचना के लिए अपीलों में ही उलझता रहेगा और उसे सूचना नहीं मिल पाएगी। मुझे तो हैरानी है कि सूचना आयोग ने द्वितीय अपील का निस्तारण किए बिना कैसे फिर से आवेदक को प्रथम अपील में जाने का आदेश दिया है और कैसे आरटीआई काननू के प्रावधानों के विपरीत शासनादेश को माना है। यह पूरी तरह से सूचना के कानून के खिलाफ है।
विनोद नौटियाल, पूर्व सूचना आयुक्त उत्तराखण्ड

मुख्य सचिव का शासनादेश पूरी तरह से आरटीआई कानून के खिलाफ है। आरटीआई कानून केंद्र सरकार का है जिसमें राज्य सरकार कोई बदलाव नहीं कर सकती। 15-15 दिनों की अपील का कोई भी नियम कानून में नहीं है। सूचना आयुक्त भी इस नियम की आड़ में आरटीआई कानून का उल्लंघन कर रहे हैं। आयुक्त न तो तारीखें लगा सकता है और नहीं प्रथम सूचना अधिकारी को तारीखें लगाने का आदेश दे सकता है। उसका काम हरकेवल यह देखना है कि आवेदक को सूचना मिली है या नहीं। अगर नहीं मिली है तो सक्षम अधिकारी पर जुर्माना लगाकर आवेदक को सूचना देने के लिए आदेश जारी कर अपील का निस्तारण कर सकता है। राज्य में आरटीआई कानून का मजाक बनाया जा रहा है।
चंद्र शेखर करगेती, अधिवक्ता एवं आरटीआई एक्टिविस्ट हल्द्वानी

आरटीआई कानून का राज्य सरकार और शासन-प्रशासन दोनों के साथ ही सूचना आयोग ने भी मजाक बना दिया है। प्रथम अपील सिर्फ इसलिए की जाती है कि आवेदक को सूचना मिले लेकिन अब तो राज्य में प्रथम अपील ही खत्म नहीं हो रही है। यह पूरी तरह से कानून के खिलाफ है।
अनिल गुप्ता, आरटीआई एक्टिविस्ट ऋषिकेश

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