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Uttarakhand

गंदी होती, दम तोड़ती नदियां

दुनिया की विख्यात नदियों में शुमार गंगा-यमुना के उद्गम स्थल उत्तराखण्ड की नौ नदियां देश की सबसे प्रदूषित नदियों की सूची में शामिल हैं। यह तब है जब ‘नमामि गंगे योजना’ के तहत नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के भागीरथी प्रयास चल रहे हैं। प्रदेश की धामी सरकार ने 2025 तक उत्तराखण्ड को देश का अग्रणी राज्य बनाने का संकल्प लिया है। इसमें राज्य के विकास से जुड़ी योजनाओं के अलावा पर्यावरण की सुरक्षा और स्वच्छता के लक्ष्य भी शामिल हैं। फिलहाल सरकार के सामने गंदी होती और दम तोड़ती नदियों को पुनर्जीवित करने के साथ ही उन्हें स्वच्छ रखने की चुनौती भी है

मानव में जो गुण हैं वह नदियों में भी पाए जाते हैं। भोजन, सेंटीमेंट, बीमारियां, रक्त संचार, पाचन क्रिया, ऑक्सीजन आदि। नदियां भी ऑक्सीजन ग्रहण करती हैं और लंबे समय तक इसे अपने भीतर बनाए रखती हैं। लेकिन अब प्रदूषण के चलते नदियों का ऑक्सीजन स्तर लगातार कम होता जा रहा है। नदियों की बिगड़ती सेहत को देखते हुए आज से कुछ वर्ष पहले जब उच्च न्यायालय नैनीताल ने अपने एक आदेश में नदियों को विधिक व्यक्तित्व (लिविंग इंटिटी) का दर्जा दिया था तो उम्मीद जगी थी कि देवभूमि में बहने वाली नदियों की स्थिति में शीघ्र ही बदलाव देखने को मिलेगा। लेकिन लंबा समय गुजरने के बाद भी प्रदेश की नदियां दम तोड़ती नजर आ रही हैं। उच्च न्यायालय ने तब गंगा व यमुना को विधिक व्यक्तित्व का दर्जा देने के मूल मकसद को स्पष्ट करते हुए कहा था कि इन नदियों के अधिकारों को सुरक्षित एवं संरक्षित करना है। नदी का अधिकार उसकी निर्मलता एवं अविरलता में है। नदी का जीवन उसका प्रवाह होता है। उसमें बाधा उत्पन्न होने से उसके टूटने की संभावना बढ़ जाती है। अविरलता को मानवीय छेड़छाड़ एवं गाद भरने की वजह से खतरा पैदा हुआ है। बांधों के निर्माण से नदियों की सांस रुक जाती है। गाद जमने से नदियों की जल ग्रहण क्षमता कम होती जा रही है। यही नहीं अभी हाल में नैनीताल हाईकोर्ट ने उत्तराखण्ड में मशीनों से नदियों पर होने वाले खनन पर भी रोक लगा दी थी।


खनन ने भी उत्तराखण्ड में बहने वाली नदियों की सेहत को खराब किया है। प्रदेश में मुख्य नदियों के साथ ही शायद ही कोई ऐसा गाढ़-गधेरा हो जहां पर खनन न हो रहा हो। वैध से अधिक अवैध खनन नदियों के जीवन को नुकसान पहुंचा रहा है। चूंकि खनन प्रदेश की आय का एक बड़ा स्रोत रहा है। खनन व्यवसायी राज्य की राजनीति को भी प्रभावित करते रहे हैं। ऐसे में प्रदेश में यह कथन अब मशहूर हो चुका है कि ‘बजरी बालू की लूट है, लूट सके तो लूट।’ लेकिन इस लूट में सर्वाधिक नुकसान नदियों को पहुंच रहा है। खनन के बाद नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र पर क्या असर पड़ रहा है, इसको लेकर कोई व्यवस्था नहीं है। वहीं विशेषज्ञों का कहना है कि खनन व बांधों के जरिए पानी के अंदर की पारिस्थितिकीय भी प्रभावित होती है। पानी के अंदर पाए जाने वाले मिनरल का अपना महत्व होता है। रेत बरसात के समय पानी को सोखती है। ग्राउंड वाटर को रिचार्ज करने का काम करती है। बड़े बोल्डर से नदी का पानी टकराने से पानी के अंदर ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती है, जो नदी के अंदर रहने वाले जीवों के लिए आवश्यक मानी जाती है जो नदी के बहाव को भी नियंत्रित करता है। यही नहीं अब हर नदी के बेसिन क्षेत्र की पारिस्थितिकीय भी प्रभावित हो रही है।

नदियों पर काम करने वाले प्रो जेएस रावत के अनुसार राज्य में सभी 353 गैर हिमानी नदियों के अस्तित्व में खतरा मंडरा रहा है। अगले 20 साल में कई सदानीरा नदियां बरसाती नाले में तब्दील हो जाएंगी। नदियों के अस्तित्व को बचाने के लिए नदियों के उद्गम स्थल के उपर चाल, खाल और खंतियों के निर्माण पर फोकस करना होगा। जहां तक उत्तराखण्ड में नदियों की बात है तो यहां पर हिमानी व गैर हिमानी नदियां हैं। नदियां उत्तराखण्ड की पहचान से जुड़ी हैं। इनकी अपनी सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहचान है। यहां की 70 प्रतिशत आबादी गैर हिमानी नदियों पर निर्भर हैं। कई बड़े मंदिर इन नदियों के किनारे स्थित हैं। ये पेयजल, सिंचाई के साथ ही अर्थव्यवस्था में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। हल्द्वानी की गौला एवं अल्मोड़ा की कोसी नदी संकट में हैं। अगर यह सूख गई तो एक बड़ी आबादी के समक्ष पेयजल का संकट पैदा हो जाएगा। कोसी नदी अल्मोड़ा नगर व इसके आस-पास के करीब सवा लाख आबादी के साथ ही रामनगर के 1.35 लाख लोगों की प्यास बुझाती है। रामनगर में तो 45 प्रतिशत कृषि इसी पर निर्भर है। अब इस नदी का जल स्तर लगातार कम हो रहा है। हल्द्वानी की पूरी अर्थव्यवस्था गौला नदी पर टिकी है। यह नदी चार लाख से अधिक लोगों को रोजगार देती है। सात हजार से अधिक डंपर मालिक, कई स्ट्रोन क्रशर व हजारों मजदूरों का यह नदी पेट भरती है। नंधैर और दाबका का अस्तित्व भी संकट में है। इन नदियों से भी लाखों लोगों के परिवार चलते हैं। चौखुटिया की रामगंगा व बागेश्वर की गोमती नदी की स्थिति भी ठीक नहीं हैं। बनबसा में पवित्र शारदा नदी गंदगी से पट रही है। यह भारत- नेपाल में पवित्र नदियों में शुमार है। यह दोनों देशों की विभाजन रेखा है। भारत में इसे शारदा व नेपाल में महाकाली के नाम से पुकारा जाता है। यहां पर अंतिम संस्कार होता है लेकिन साफ- सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता। ऐसे ही पिथौरागढ़ में बहने वाली नदियों के घाटों पर गंदगी के अंबार लगे हैं। रामेश्वर घाट, झूलाघाट, तल्लाबगड़, जौलजीवी, धारचूला के घाटों में शवदाह के बाद की गंदगी रह जाती है। जनपद पिथौरागढ़ और अल्मोड़ा की सीमा को विभाजित करने वाली सेराघाट के पास की सरयू नदी का भी यही हाल है।

पिथौरागढ़ जिले में काली, गोरी, धौली और सरयू नदी की कई सहायक नदियां भी प्रदूषित हैं। यही हाल लोहाघाट की लोहावती नदी का भी है। शहर का गंदा पानी व सीवर भी इसमें मिल जाता है जबकि लोहाघाट नगर पालिका क्षेत्र में इसी नदी का पानी सप्लाई होता है। नदी के किनारे बसे श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार के बाद के अवशेष वैसे ही रह जाते हैं। झूलाघाट में काली नदी में अपशिष्ट प्रभावित हो रहा है। चंपावत जनपद में टनकपुर में शारदा नदी और लोहाघाट में लोहावती नदी बहती है। बागेश्वर जिले में सरयू, गोमती, गरूड़, गंगा नदी बहती हैं। इसमें गरूड़ व कठायतबाड़ा का कूड़ा नदी में समाहित हो रहा है। उत्तरकाशी में भागीरथी नदी में कचरा प्रभावित होता है तो गोपेश्वर का अलकनंदा नदी में कूड़ा समा रहा है। नई टिहरी में घनसाली में भी कूड़ा नदी में प्रभावित हो रहा है। हरिद्वार में गंगनहर के किनारे कूड़ा नदी स्वच्छता को प्रभावित कर रहा है।

दूसरी तरफ तापमान बढ़ने से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं जो नदियों को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। प्रदेश में छोटी-छोटी नदियों के संरक्षण के लिए काम नहीं हो रहा है। तेजी से जल प्रवाहों एवं स्रोतों में सूखा आ रहा है। इससे भूजल का स्तर घट रहा है। नदियों में मिलने वाले स्रोत भी सिकुड़ रहे हैं। पूरे प्रदेश में नदियों में जमकर कूड़ा-कचरा समा रहा है। नमामि गंगा प्रोजेक्ट के तहत गंगा और उसकी सहायक नदियों में साफ-सफाई के नाम पर करोड़ों खर्च किए जा चुके हैं। प्रदेश में मजबूत सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट सिस्टम न होने के कारण लगातार जल प्रदूषण बढ़ रहा हैं। यह हाल सिर्फ उत्तराखण्ड की नदियों का ही नहीं है, बल्कि पूरे देश में बहने वाली नदियों में बहाया जा रहा अपशिष्ट जल नदियों के पानी की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहा है। जबकि जीवन के लिए नदियों का होना बेहद जरूरी है। कई नदियों में बहाव की स्थिति काफी कमजोर पड़ रही है। जिससे शहरी आबादी को पानी के संकट से जूझना पड़ रहा है। कई नदियों का जल प्रभाव कम हो रहा है। नदी बचाओ अभियान से जुड़े कार्यकर्ताओं का कहना है कि अगर लोगों के जीवन को बचाना है तो पहले नदियों को बचाना जरूरी है। देश में छोटी-बड़ी एक लाख नदियां हैं। जरूरत है इन नदियों के भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक, पर्यावरणीय और कानूनी अधिकार के बारे में जानने की। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार सतही जलस्रोतों का करीब 80 फीसदी भाग इस्तेमाल करने लायक नहीं बचा है। सीपीसीबी की रिपोर्ट कहती है कि देश के अधिकांश नदियों का जल प्रदूषित है। सीपीसीबी ने 2015 में जो रिपोर्ट प्रकाशित की थी उसके अनुसार 275 नदियों के 302 प्रवाह तथा 2018 की रिपोर्ट के अनुसार 350 से ज्यादा नदियों के 381 प्रवाह प्रदूषित हैं।

सॉलिड वेस्ट, औद्योगिक कचरा, कृषि रसायन, पूजा-पाठ सामग्री का नदियों में बहना, पानी का शोधन न हो पाना, खुले में शौच का नदियों में समाने की वजह से तमाम मीठे और स्वच्छ जल स्रोत प्रदूषित होते जा रहे हैं। कहने को तो नदियों को बचाने के लिए कई उपाय किए गए हैं। जिसमें गंगा व यमुना एक्शन प्लान, गंगा बेसिन अथॉरिटी, नेशनल मिशन ऑन क्लीन गंगा, नमामि गंगा, नदियों को इंसान का दर्जा मिलना, गंगा एक्शन प्लान सहित दर्जन भर से अधिक योजनाओं में पैसा खर्च हो रहा है लेकिन नदियों की सेहत दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही है। हालात ये हैं कि पूरे देश में 445 में से 275 नदियां प्रदूषित हैं। 64 नदियों का ऑक्सीजन लेवल घट रहा है। यह तब हो रहा है जब नदियों को इंसान का दर्जा मिल चुका है। जबकि नदियां हमारे ग्रह की जीवनदाता हैं ये हमें कई तरह के विविध लाभ देती हैं। लेकिन इसके बाद भी इनकी अनदेखी की जाती है। जिन नदियों पर बांध बनाए जाते हैं उस बेसिन क्षेत्र के वास्तविक कारणों का अध्ययन नहीं किया जाता है। स्वस्थ नदी का ताजा जल मछलियों का भंडार है। यह दुनिया के करोड़ों लोगों की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करती है। बाढ़ एवं सूखे के असर को कम करती है। मिट्टी के कटाव को रोकती है। जैव विविधता की संपत्ति को बरकरार रखने में मदद करती है।

उत्तराखण्ड हिमालय में हिम पोषित और वर्षापोषित दो प्रकार की नदियां हैं। इन नदियों का जल लगातार घट रहा है। नदियों के सिरहाने की जैव विविधता बड़े निर्माण कार्यों के कारण संकट में पड़ रही है। जैसे-जैसे नदियां अपने उद्गम से आगे पहुंचती हैं तो ये अतिक्रमण, प्रदूषण, शोषण से प्रभावित होती हैं। नदियों में घटती जलराशि के कारण प्रदूषण दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। यह जरूर है कि बरसात के समय दोनों प्रकार की नदियों में जल की मात्रा बहुत बढ़ जाती है। बाद में सभी मौसमों में नदियों की धार बहुत संकरी दिखाई देती है। नदियों का इस्तेमाल खनन के लिए अधिक हो रहा है। जीवनदायनी नदियों के जल के प्रति जो संवेदनशीलता होनी चाहिए थी उसकी बहुत बड़ी कमी दिखाई देती है। उत्तराखण्ड की छोटी-बड़ी नदियों पर 558 से अधिक जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं जिसमें अधिकांशतः सुरंग आधारित हैं। सुरंगों के निर्माण के दौरान हो रहे विस्फोटों से जलस्रोत प्रभावित हो रहे हैं, वे सूख रहे हैं। नदियों की बबार्दी अधिक से अधिक जल शोषण पर टिकी हुई है। अतः समय रहते प्रकृति ने हमें नदी से जो जीवन जीने की ताकत दी है उसकी कीमत पहचाननी होगी।
सुरेश भाई, संयोजक, नदी बचाओ आंदोलन

 

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