मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को सितंबर, 2022 के भीतर-भीतर राज्य विधानसभा सदन का सदस्य बनना होगा। संविधान के अनुच्छेद 164(4) के अनुसार सरकार में शामिल व्यक्ति को छह माह के अंदर सदन का सदस्य बनना जरूरी है। उत्तराखण्ड के राजनीतिक गलियारों में इस उपचुनाव को लेकर नाना प्रकार के कयास लगाए जा रहे हैं। जानकार मुख्यमंत्री के लिए सबसे सुरक्षित सीट डीडीहाट को मानते हैं। लेकिन चर्चा कालाढुंगी, कपकोट और चंपावत सीटों को लेकर भी हो रही है
अपनी सीट हार कर 47 विधायकों को जीत का श्रेय दिलाने वाले नवनियुक्त मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की एक बार फिर परीक्षा होगी। उनकी यह परीक्षा विधानसभा उपचुनाव के रूप में होगी। जिस तरह से वह अपनी चिर-परिचित सीट खटीमा से चुनाव हारे हैं उससे अब उनके लिए सुरक्षित सीट की तलाश बहुत मायने रखती है। ऐसे में धामी के लिए आधा दर्जन विधायक अपनी सीट छोड़ने को तैयार हो चुके हैं। हालांकि इन विधायकों की किस सीट से धामी चुनाव लड़ेंगे यह आधिकारिक रूप से घोषणा नहीं हुई है।
चर्चा है कि विपक्षी दल कांग्रेस का मनोबल कम करने और दबाव बनाने की रणनीति के तहत दूसरे दल का विधायक भी उनके लिए सीट खाली कर सकता है। बताया तो यहां तक जा रहा है कि विपक्षी दल कांग्रेस के कई विधायक उनके संपर्क में है। जिनमें से धामी एक सीट खाली कराकर चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन इतना तय है कि इस बार धामी कच्चा खेल नहीं खेलने वाले हैं। फिलहाल अपने विश्वस्त सूत्रों को उन्होंने कई विधानसभा क्षेत्रों में फीडबैक लेने के लिए लगा दिया है। जहां से संतोषजनक रिपोर्ट मिलने के बाद ही वह किसी एक विधानसभा से उप चुनाव लड़ने का एलान करेंगे।
मुख्यमंत्री रहते हुए हारने की अगर बात करें तो हिमाचल प्रदेश में वर्ष 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में प्रेम कुमार धूमल खुद चुनाव हार गए थे, जबकि वहां भी उत्तराखण्ड की तरह पार्टी चुनाव जीत गई थी। तब धूमल को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया था। लेकिन इस दफे बड़ा नीतिगत बदलाव कर भाजपा ने अपनी सीट हारे पुष्कर धामी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला लिया।
पहले भी हुए मुख्यमंत्री बनने के बाद उपचुनाव
ऐसा पहली बार नहीं है कि उत्तराखण्ड में मुख्यमंत्री बनने के बाद विधायक चुने जाने की जरूरत आन पड़ी हो। उत्तराखण्ड के इतिहास में मुख्यमंत्री के लिए अब तक 4 बार उपचुनाव हो चुके हैं। संविधान के अनुच्छेद 164(4) के तहत 6 महीने के भीतर सदन की सदस्यता लेनी जरूरी होती है। इसमें विधानसभा और विधान परिषद का सदस्य होना जरूरी होता है। क्योंकि उत्तराखण्ड में विधान परिषद नहीं है इसलिए विधानसभा का सदस्य बनना होता है। पूर्व में ऐसे कई नेता मुख्यमंत्री बने हैं जो अनुच्छेद 164(4) के तहत उपचुनाव लड़कर विधानसभा पहुंचे। 2002 में पहली निर्वाचित कांग्रेस की सरकार में एनडी तिवारी को मुख्यमंत्री चुना गया। एनडी तिवारी ने रामनगर सीट से चुनाव लड़ा। इस चुनाव में कांग्रेस के योगम्बर रावत भाजपा के दीवान सिंह बिष्ट से 4915 मतों से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। योगम्बर रावत ने इस्तीफा देकर रामनगर सीट एनडी तिवारी को उपचुनाव लड़ने के लिए छोड़ दी। तिवारी ने यह चुनाव 23,220 मतों से जीता था।
इसके बाद 2007 में भाजपा सरकार में तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खण्डूड़ी के लिए कांग्रेस के विधायक टीपीएस रावत ने सीट छोड़ी थी। पहले खण्डूड़ी के लिए निर्दलीय विधायक यशपाल बेनाम को सीट छोड़ने को कहा गया था। लेकिन जब वह नहीं माने तो भाजपा ने कांग्रेस में सेंधमारी कर धुमाकोट सीट से टीपीएस रावत को इस्तीफा दिलाकर चुनाव जिताया। बाद में टीपीएस रावत ने खण्डूड़ी की पौड़ी गढ़वाल लोकसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की।
2012 में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए सितारगंज से भाजपा के विधायक किरण मंडल को इस्तीफा दिलवाकर कांग्रेस में शामिल किया गया। बहुगुणा इसी सीट से विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे। इसके बाद 2014 में हरीश रावत के लिए कांग्रेस के ही विधायक हरीश धामी ने धारचूला सीट छोड़ी थी। रावत धारचूला से विधायक बनकर विधानसभा पहुंचे थे।
कांग्रेस में लगा सकते हैं सेंध
इस दौरान यह भी चर्चा जोरों पर है कि भाजपा विपक्षी दल कांग्रेस पर दबाव बनाने की नियत से उनकी ही पार्टी के किसी विधायक को तोड़कर अपने खेमे में ला सकती हैं। साथ ही भाजपा उस विधायक की सीट खाली होने पर वहां से मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को चुनाव लड़ा सकती है। ऐसा प्रयोग भाजपा पूर्व में कर चुकी है। 2007 में मुख्यमंत्री खण्डूड़ी को विधायक बनाने के लिए भाजपा ने कांग्रेस के टीपीएस रावत को अपने पाले में शामिल कर लिया था।
छह विधायक धामी के लिए सीट छोड़ने को तैयार
छह विधायक मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के लिए अब तक अपनी सीट छोड़ने का एलान कर चुके हैं। उनमें चंपावत के विधायक कैलाश गहतोड़ी, जागेश्वर के मोहन सिंह मेहरा, लालकुआं के डॉ ़मोहन सिंह बिष्ट, कालाढूंगी के बंशीधर भगत, रुड़की के प्रदीप बत्रा और खानपुर के निर्दलीय विधायक उमेश कुमार का नाम शामिल है।
पहला विकल्प डीडीहाट
सबसे बड़ा सवाल यह है कि धामी के लिए सबसे सुरक्षित सीट कौन सी रहेगी, जहां वह जोखिम नहीं ले सकेंगे। फिलहाल बात करें तो पहले नंबर पर डीडीहाट विधानसभा है। डीडीहाट विधानसभा सीट को पुष्कर सिंह धामी के लिए सबसे उपयुक्त इसलिए कहा जा रहा है कि यहां उनका पैतृक निवास भी है। डीडीहाट का हडखोला पुष्कर सिंह धामी का पैतृक गांव है। पिछली बार जब वह मुख्यमंत्री बने तो सबसे पहले डीडीहाट के गांव हडखोला पहुंचे थे। जब वह हडखोला गए थे तो तब गांव के लिए सड़क नहीं थी। लेकिन उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में गांव तक सड़क पहुंच गई है।
डीडीहाट विधानसभा का राजनीतिक समीकरण देखें तो यह सीट मूल रूप से भाजपा की ही रही है। यहां से अब तक भाजपा के बिशन सिंह चुफाल जीतते रहे हैं। वह लगातार पांच बार यहां से जीत दर्ज करा चुके हैं। इस बार के विधानसभा चुनाव के पहले यह चर्चा जोरों से चली थी कि पुष्कर सिंह धामी अपनी सीट परिवर्तन कर सकते हैं। तब कहा गया था कि वे खटीमा से डीडीहाट जाकर चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन अंतिम समय पर पार्टी ने यह परिवर्तन न करके उन्हें खटीमा से ही चुनाव लड़वाया।
राजनीतिक पंडितों की मानें तो भाजपा पुष्कर सिंह धामी के रूप में लंबी पारी खेलना चाहती है। पुष्कर सिंह धामी की कम उम्र और सौम्य व्यवहार के साथ ही सबको साथ लेकर चलने की नीति उनकी कामयाबी का कारण रही है। भाजपा अब चाहती है कि पुष्कर सिंह धामी के लिए एक सीट ऐसी हो जहां वह लगातार अपनी जीत दर्ज करा कर अपना स्थान बरकरार रख सके। ऐसे में डीडीहाट विधानसभा सीट के समीकरण उनके पक्ष में बनते दिखाई दे रहे हैं।
यह सीट ठाकुर बाहुल्य है। इस सीट पर बिशन सिंह चुफाल के अलावा कभी भाजपा के जिला पंचायत अध्यक्ष रहे किशन भंडारी दावेदारी करते रहे हैं। पार्टी द्वारा टिकट न दिए जाने से नाराज भंडारी पिछले दो बार से निर्दलीय चुनाव लड़ते आ रहे हैं। वह चुनाव तो नहीं जीते लेकिन उनकी वोटों का प्रतिशत हमेशा दमदार रहा है। इस बार भी उन्हें 17000 से अधिक वोट मिले हैं। पुष्कर सिंह धामी के मुख्यमंत्री बनने से 1 दिन पहले ही किशन सिंह भंडारी ने सोशल मीडिया के एक लाइव कार्यक्रम में यह घोषणा की कि धामी को उपचुनाव डीडीहाट से लड़ना चाहिए। इसके लिए भंडारी ने हर तरह की सहायता और सहयोग करने की बात कही है। लेकिन अभी तक बिशन सिंह चुफाल के द्वारा सीट छोड़ने की सहमति नहीं दी गई है। चुफाल मंत्री न बनने से भी नाराज बताए जा रहे हैं।
डीडीहाट निवासी राजेंद्र सिंह बोरा कहते हैं कि ‘पुष्कर सिंह धामी के लिए डीडीहाट से बेहतर विकल्प कोई नहीं हो सकता। यहां धामी मतदाताओं की संख्या बहुत ज्यादा है। पूर्व में अलग विधानसभा रही कनालीछीना ब्लॉक में धामी मतदाताओं का
बोलबाला है। यहां के मडमानले, पीपली और गहतोड़ी क्षेत्र के अलावा काफी गांव ऐसे हैं जो धामी बाहुल्य है।’ राजेंद्र सिंह बोरा दावा करते हैं कि यह सीट धामी के लिए राजनीतिक करियर में मील का पत्थर साबित हो सकती है।
दूसरा विकल्प चंपावत
दूसरी विधानसभा सीट चंपावत है। चंपावत के भाजपा विधायक कैलाश गहतोड़ी ने ही सबसे पहले पुष्कर सिंह धामी को अपनी सीट ऑफर की थी। चंपावत की भौगोलिक स्थिति को देखें तो यह सीट खटीमा विधानसभा क्षेत्र से सटी हुई है। उपचुनाव में इसका भी फायदा धामी को मिल सकता है। इस सीट के मतदाता उत्तराखण्ड बनने से पहले पिथौरागढ़ और खटीमा विधानसभा सीट में शामिल थे। तब टनकपुर-बनबसा का हिस्सा खटीमा और चंपावत का था तो शेष पहाड़ी क्षेत्र पिथौरागढ़ सीट में शामिल था। राज्य बनने के बाद बनी चंपावत सीट में हुए अब तक के चार चुनाव में दो बार भाजपा और दो बार कांग्रेस के हाथ जीत लगी है। हालांकि इस विधानसभा सीट पर पुष्कर सिंह धामी के लिए भी भितरघात की संभावनाएं हैं।
भितरघात की वजह से पिछले दिनों भाजपा के विधायक बने कैलाश गहतोड़ी क्षुब्ध हो गए थे। गहतोड़ी ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके अपनी पार्टी के नेताओं पर ही उन्हें हराने की कोशिश करने के गंभीर आरोप लगाए थे। हालांकि स्थानीय नेता इसकी संभावना से इनकार करते हैं। भाजपा नेता और चंपावत के मनोनीत पार्षद कैलाश पांडेय के अनुसार ‘अगर पुष्कर सिंह धामी यहां से चुनाव लड़ते हैं तो पार्टी के सभी नेता उनके लिए एकजुट होंगे। जिस तरह कैलाश गहतोड़ी के चुनाव में एकजुटता नहीं थी ऐसा उनके चुनाव में नहीं होगा।’
तीसरा विकल्प कपकोट
बागेश्वर जिले की कपकोट विधानसभा सीट को भी पुष्कर सिंह धामी के लिए बेहतर विकल्प बताया जा रहा है। कारण यह है कि यहां से भाजपा के टिकट पर चुनाव जीते सुरेश गढ़िया पूर्व में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के ओएसडी रहे हैं। ऐसे ही कोश्यारी के ओएसडी कभी पुष्कर सिंह धामी रहे थे। दोनों गुरु भाई हैं।
यहां पर धामी के लिए बाहरी होने का मुद्दा भी इतना महत्वपूर्ण नहीं होगा। कारण यह है कि यहां से कांग्रेस का चुनाव लड़ने वाले ललित फर्स्वाण भी कपकोट विधानसभा क्षेत्र के रहने वाले नहीं हैं। वह गरुड़ के निवासी हैं और उनका विधानसभा क्षेत्र बागेश्वर है। इस विधानसभा चुनाव में ललित के लिए बाहरी होना हार के कारणों में शामिल था। वैसे भी यह सीट भाजपा आधिपत्य वाली रही है। यहां कांग्रेस के ललित फर्स्वाण 2012 का विधानसभा चुनाव जीते हैं। इसके अलावा यह सीट कभी कांग्रेस के खाते में नहीं रही। 2012 से पहले कांडा और कपकोट दो विधानसभा सीट हुआ करती थी। लेकिन परिसीमन के बाद कांडा सीट को खत्म कर कपकोट में ही विलय कर दिया गया।
उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री और महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी भी यहां से दो बार चुनाव जीत चुके हैं। इसके चलते ही कपकोट विधानसभा सीट को धामी के गुरु कोश्यारी की परंपरागत सीट कहा जाता है। दूरदर्शन के वरिष्ठ पत्रकार केशव भट्ट की मानें तो ‘पुष्कर सिंह धामी के लिए यह सीट कई मायनों में महत्वपूर्ण मानी जा सकती है। एक तो अपने गुरु का विधानसभा क्षेत्र और दूसरा भाजपा के पक्ष में मजबूती प्रदान करने वाला समीकरण खनन लॉबी का भी है। खड़िया खनन लॉबी फिलहाल अप्रत्यक्ष रूप से पुष्कर सिंह धामी के समर्थन में खड़ी दिखाई दे रही है। खनन लॉबी के इसी अप्रत्यक्ष समर्थन की बदौलत भाजपा कैंडिडेट सुरेश गढ़िया को जीत हासिल हुई थी।’
चौथा विकल्प कालाढुंगी
23 मार्च को जब मुख्यमंत्री के साथ ही आठ मंत्रियों ने शपथ ग्रहण की तो उसमें वरिष्ठता के क्रम में पहले से ही मंत्री बनते आ रहे बंशीधर भगत का नाम न होना सबको चांका गया। इसके पीछे भी भाजपा की एक सोची समझी रणनीति बताई जा रही है। जिसके अनुसार भगत को उम्र ज्यादा होने का हवाला देकर विधानसभा से हटाकर राज्यसभा भेजने की तैयारी है। गौरतलब है कि जुलाई माह में उत्तराखण्ड की राज्यसभा सीट खाली हो रही है। यहां कांग्रेस के प्रदीप टम्टा का राज्यसभा कार्यकाल जुलाई में समाप्त हो जाएगा। इसके बाद भाजपा अपने किसी एक नेता को इस सीट से राज्यसभा भेज सकती है। ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि भाजपा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को कालाढुंगी से विधानसभा का उपचुनाव लड़ाएंगी और इसी के साथ ही बंशीधर भगत को राज्यसभा भेज दिया जाएगा।