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Uttarakhand

देवेंद्र की विदाई तय

सुदूर दक्षिण के कर्नाटक में मिली जीत के बाद कांग्रेस आलाकमान अपना फोकस उत्तराखण्ड में केंद्रित करने जा रहा है। मिशन 2024 के साथ ही यहां इस साल के अंत में होने वाले निकाय चुनाव पार्टी के लिए महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं। जिसे आगामी लोकसभा चुनाव का लिटमस टेस्ट भी माना जा रहा है। सबसे पहले पार्टी प्रभारी पर गाज गिरनी तय है। खबर पक्की है कि कांग्रेस के राज्य प्रभारी पद से देवेंद्र यादव की विदाई की जा रही है। दो माह पूर्व पर्यवेक्षक बनकर उत्तराखण्ड आए वरिष्ठ नेता पीएल पुनिया की रिपोर्ट को इसमें अहम माना जा रहा है। सूत्रों के अनुसार इस रिपोर्ट में सूबे के अधिकतर नेताओं ने यादव को पार्टी की गिरती साख के लिए दोषी करार दिया है

चार सितंबर 2020 को जब कांग्रेस आलाकमान ने उत्तराखण्ड में मिशन 2022 की कमान देवेंद्र यादव के हाथों सौंपी तो हर कोई हतप्रभ था कि आखिर बिहार के फ्लॉप शो के मुख्य किरदार को उत्तराखण्ड का प्रभारी बनाकर क्यों भेजा गया?
कांग्रेस के उत्तराखण्ड प्रभारी बनने से पूर्व देवेंद्र यादव पर बिहार विधानसभा चुनावों में मिली करारी हार का धब्बा भी लग चुका है। तब वह बिहार विधानसभा चुनाव के प्रभारी सचिव बनाए गए थे। कांग्रेस 2020 के विधानसभा चुनावों से पहले बिहार में 40 विधायकों की पार्टी हुआ करती थी। लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी बिहार में 19 विधायकों तक ही सिमट गई। कांग्रेस ने बिहार में राजद के साथ हुए गठबंधन के बाद 70 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया था। लेकिन 51 सीटों पर पार्टी हार गई। तब देवेंद्र यादव पर बिहार चुनाव में मिली पराजय का आरोप लगा तथा साथ ही यह भी कहा गया कि उन्हें बिहार के राजनीतिक धतराल का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं था।

कुछ इसी तरह का आरोप उन पर उत्तराखण्ड कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और चकराता के विधायक प्रीतम सिंह ने लगाया है। कभी देवेंद्र यादव के प्रबल पैरोकार रहे प्रीतम सिंह ने देवेंद्र यादव को राजनीतिक अनुभवहीन नेता मानते हुए यह तक कह दिया है कि उन्हें राजनीति की एबीसीडी भी नहीं आती। उस व्यक्ति को राज्य में कांग्रेस ने प्रभारी बना रखा है। प्रीतम ने दो टूक कहा कि जो व्यक्ति कभी राज्य में आता नहीं है भला ऐसे प्रभारी से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं? प्रीतम सिंह अकेले ऐसे नेता नहीं है जिन्होंने देवेन्द्र यादव को आईना दिखाने की कोशिश की है बल्कि इससे पहले लालकुआं के पूर्व विधायक हरीश चंद्र दुर्गापाल के साथ ही द्वाराहाट के वर्तमान विधायक मदन सिंह बिष्ट ने भी यादव को राजनीतिक नौसिखिया बताते हुए पार्टी की प्रदेश में हुई गत के लिए उन्हें ही जिम्मेदार माना है। यादव के प्रदेश प्रभारी बनने के बाद से ही पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत गाहे-बगाहे उनकी नीतियों पर सवाल उठाते रहे हैं। चाहते तो देवेंद्र यादव हरीश रावत के अनुभव को देखते हुए उनको साथ लेकर पार्टी को आगे बढ़ा सकते थे। लेकिन वे रावत को अहमियत देने की बजाय उन्हें दरकिनार करते नजर आए। पार्टी के उंगली पर गिने जाने वाले महज कुछ नेताओं को छोड़ दें तो देवेंद्र यादव की कारगुजारियों का अंतर्विरोध करने वाले नेता ज्यादा हैं।

 

प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव

दो माह पूर्व यह उस समय भी नजर आया था जब पार्टी आलाकमान ने वरिष्ठ नेता पीएल पुनिया को पर्यवेक्षक बनाकर समन्वय बनाने के लिए उत्तराखण्ड भेजा था। तब पुनिया ने पार्टी में सभी नेताओं से बंद कमरों में बातचीत की। जिसमें अधिकतर नेताओं का फीडबैक पार्टी प्रभारी के प्रति नकारात्मक था। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पहले जहां पुनिया मीटिंग में देवेंद्र यादव को साथ लेकर चलने की बात करते देखे गए थे लेकिन जैसे ही उन्होंने उनके प्रति पार्टी नेताओं का आक्रोश देखा तो उन्हें मीटिंग आदि से दूर रहने की हिदायत दी गई। पार्टी सूत्र बताते हैं कि पीएल पुनिया के द्वारा जो रिपोर्ट पार्टी हाईकमान को सौंपी गई वह प्रभारी देवेंद्र यादव की खामिया और उनकी वजह से पार्टी में बढ़ रही गुटबाजी का पुलिंदा है। जिसके आधार पर अब पार्टी सुप्रीमो प्रभारी पद से यादव की छुट्टी करने का मन बना चुका है।

देखा जाए तो साल 2017 में कांग्रेस के हाथ से सत्ता जाने के बाद से ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बीच खींचतान जारी है। कभी अध्यक्ष पद को लेकर, तो कभी नेता विपक्ष को लेकर किसी ना किसी नेता का बयान सामने आता रहा है। लंबे समय से विपक्ष में बैठे कांग्रेसी नेताओं के बयान एक बार फिर से यह दर्शा रहे हैं कि पार्टी की नीति और रीति को लेकर कई नेता नाराज चल रहे हैं। फिलहाल पार्टी को मजबूत करने वाले और वरिष्ठ कांग्रेसी ही प्रदेश प्रभारी पर सवाल खड़े कर रहे हैं। यहां तक कि पार्टी में पदों के बंटवारे को लेकर बनाई गई रणनीति तक को सही नहीं बता रहे हैं। ऐसे में लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर कांग्रेस कितनी तैयार है, यह समझा जा सकता है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि कांग्रेस की स्थिति इस समय राज्य में ठीक नहीं है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा तो हैं, लेकिन उनकी कौन कितनी सुनता है, यह हर कोई जानता है। हरीश रावत अपनी अलग राजनीति में व्यस्त हैं। प्रीतम सिंह गढ़वाल के एक विशेष क्षेत्र से बाहर नहीं निकलते। हरीश धामी के जितने बयान पहले सरकार के खिलाफ देते थे। फिलहाल वे अब लाइमलाइट में कहीं दिखाई नहीं देते। कोई भी ऐसा आंदोलन या चरणबद्ध तरीके से विरोध कांग्रेस पार्टी का दिखाई नहीं देता है। जो प्रदर्शन होता भी है तो, उसमें आधे-अधूरे नेता दिखाई देते हैं।

देवेंद्र यादव पर आरोप है कि वे पार्टी में संतुलन बनाने में भी कामयाब नहीं हो पाए। अब से पहले गढ़वाल और कुमाऊं मंडल में बराबर की हिस्सेदारी दी जाती थी। लेकिन इस बार संगठन में असंतुलन भी आक्रोश का कारण बन चुका है। उत्तराखण्ड प्रदेश कांग्रेस के दो नेता जो सर्वोच्च पदों पर हैं वे दोनों ही कुमाऊं क्षेत्र से आते हैं। रानीखेत से पूर्व विधायक करण माहरा, प्रदेश अध्यक्ष और बाजपुर विधानसभा सीट से वर्तमान विधायक यशपाल आर्य नेता प्रतिपक्ष हैं। जिसके चलते नेताओं के बीच इस बात को नाराजगी भी है। उत्तराखण्ड की राजनीति में क्षेत्रवाद और जातिवाद हमेशा से ही हावी रहा है। जिसके तहत अगर प्रदेश अध्यक्ष कुमाऊं से होता है तो नेता प्रतिपक्ष गढ़वाल का बनाया जाता है। यह समीकरण इस बार उत्तराखण्ड कांग्रेस में देखने को नहीं मिल रहा है। जिसके कारण कई नेताओं में नाराजगी है। किच्छा के विधायक तिलकराज बेहड़ पिछले दिनों इसी असंतुलन से नाराज होकर पार्टी के अध्यक्ष और प्रभारी पर जमकर बरसें थे।

पूर्व कैबिनेट मंत्री हरीश चंद्र दुर्गापाल ने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस व हरीश रावत की हार के लिए प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव को जिम्मेदार ठहराया था। उन्होंने कहा था कि कांग्रेस हाईकमान स्वयं हरीश रावत को जीतते हुए देखना नहीं चाहता था। हाईकमान द्वारा बार-बार अन्य प्रभारियों को उत्तराखण्ड की तमाम सीटों पर भेजकर पार्टी के अधिकृत प्रत्याशियों को हराने का काम किया गया। दुर्गापाल ने कहा कि टिकट वितरण से पूर्व जब उन्हें दिल्ली बुलाया गया तो वहां मौजूद प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव और राष्ट्रीय महामंत्री वेणुगोपाल का व्यवहार चौंकाने वाला था। दुगार्पाल ने कहा कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अपने आप को बचाने के लिए हार का ठीकरा मोदी मैजिक पर फोड़ रहे थे, जो सही नहीं ठहराया जा सकता। पार्टी प्रभारी को लेकर फिलहाल द्वाराहाट के विधायक मदन बिष्ट भी मोर्चा खोले हुए हैं। वे कहते हैं कि कि प्रदेश प्रभारी को पार्टी नहीं बनना चाहिए था, वह पार्टी बनकर काम कर रहे हैं। जब चुनाव में हार के बाद पार्टी आलाकमान ने प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष को बदल दिया, फिर प्रभारी को क्यों नहीं हटाया गया। उन्होंने कहा कि वे संगठन में गलत के खिलाफ पहले भी आवाज उठाते रहे हैं और आगे भी उठाते रहेंगे। बिष्ट यह भी कहते है कि भाजपा चुनाव में माइक्रो मैनेजमेंट के साथ काम करती है, जबकि संगठन स्तर पर हमारी तैयारियां कहीं नहीं दिखाई देती है, उनका संगठन चुनाव लड़ाता है, जबकि कांग्रेस में प्रत्याशी खुद चुनाव लड़ रहा होता है। उन्होंने कहा वह फिर से मांग करते हैं कि प्रभारी को बदला जाना चाहिए।

कांग्रेस के ही एक नेता का कहना है कि पार्टी की स्थिति फिलहाल इतनी बदतर हो गई है कि लोग चुनाव के समय भाजपा के पक्ष में चले जाते हैं। भाजपा कार्यकर्ताओं पर खर्च करती है। भाजपा में लगातार कार्यकर्ता सम्मेलन आयोजित किए जाते हैं, ताकि कार्यकर्ताओं का मनोबल कम नहीं हो सके। लेकिन कांग्रेस में ऐसा कुछ भी नहीं है। कांग्रेस में तो पिछले कई सालों से यही देखा जा रहा है कि पार्टी में गुटबाजी चरम स्तर पर है। पहले जो प्रभारी बनकर आते थे वह इस गुटबाजी पर नियंत्रण लगाते थे। लेकिन इस बार ऐसे प्रभारी बनकर आए हैं जो गुटबाजी पर नियंत्रण लगाने की बजाय उसको बढ़ावा देने में विश्वास करते हैं। इस गुटबाजी ने ही तो कांग्रेस की लुटिया डुबोई है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि आज कांग्रेस के पास जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं की कमी है। बीते विधानसभा चुनाव में तो बूथ पर बैठने तक के लिए कार्यकर्ता नहीं मिल रहे थे। जैसे-तैसे तो विधानसभा चुनाव निपटा। यदि गुटबाजी खत्म करने की दिशा में अभी से प्रयास नहीं किए गए तो वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवारों के सामने कार्यकर्ताओं की कमी हो जाएगी। कांग्रेस का संगठन सबसे ज्यादा पहाड़ी जनपदों में काफी कमजोर है।
ऐसे में संगठन को मजबूत करने की दिशा में कांग्रेस के स्थानीय शीर्ष नेताओं को आगे आना होगा, तभी जाकर कांग्रेस भविष्य में उत्तराखण्ड में कुछ खास करने की स्थिति में हो सकती है। बहरहाल कांग्रेस के नेता गुटबाजी खत्म करने की दिशा में तुरंत कार्य करंे। यदि वाकई में कांग्रेस के दिग्गज ऐसा करने में कामयाब होते हैं तो भविष्य में उत्तराखण्ड में कांग्रेस के लिए विजय का द्वार फिर से खुल सकता है और कांग्रेस को चहुंओर कामयाबी मिल सकती है। यह तभी संभव है जब प्रदेश प्रभारी ऐसा बने जो राजनीतिक अनुभव के साथ ही सभी में समन्वय बनाकर पार्टी को आगे बढ़ाने में सक्षम हो।

 

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