उत्तराखण्ड में पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव हरीश रावत की सक्रियता को भाजपा आलाकमान गंभीरता से ले रहा है। पार्टी को लगता है कि हरीश के मुकाबले त्रिवेंद्र एक कमजोर चेहरा साबित होंगे। लिहाजा अब तुरुप के तौर पर महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को आजमाए जाने की तैयारी है। कोश्यारी को चेहरा बनाने पर जहां भाजपा संगठन में एकजुटता आएगी, वहीं कांग्रेस के लिए भी उनकी बेदाग छवि को टारगेट करना टेढ़ी खीर साबित होगी
अगले वर्ष 6 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें से दो राज्यों- हिमाचल प्रदेश और गुजरात में ये चुनाव 2022 के अंत में तो चार राज्यों, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब और गोवा में वर्ष की शुरुआत में तय हैं। इन चारों राज्यों में चुनावी तापमान तेजी से बढ़ रहा है। अभी भाजपा पंजाब को छोड़ शेष तीन अन्य राज्यों में सत्तारूढ़ है। ऐसे में जहां उसका फोकस अपनी सत्ता बनाए रखने पर है, तो मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस किसी भी कीमत पर उत्तराखण्ड और गोवा में अपनी वापसी के लिए छटपटा रही है। पंजाब में भाजपा-अकाली गठबंधन टूटने के चलते कांग्रेस की राह आसान नजर आ रही है, तो उत्तर प्रदेश में भाजपा आश्वस्त है कि योगी का जादू और मोदी फैक्टर मिलकर उसकी सत्ता बचाए रखेंगे। भाजपा के लिए उत्तराखण्ड में सत्ता वापसी लेकिन एक चैलेंज बनता नजर आ रहा है। पिछले चार बरस से राज्य की गद्दी संभाल रहे मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की कार्यशैली से आमजन के साथ-साथ भाजपा विधायक और कार्यकर्ता त्रस्त नजर आ रहे हैं। चुनावी वर्ष में आ रहे सर्वेक्षणों में भी त्रिवेंद्र रावत को देश का सबसे कमजोर सीएम बताए जाने से माहौल भाजपा के खिलाफ जाता स्पष्ट नजर आने लगा है। गौरतलब है कि पिछले दिनों एबीपी न्यूज के एक सर्वे में देश का सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री ओडिशा के नवीन पटनायक तो सबसे फिसड्डी मुख्यमंत्री उत्तराखण्ड के त्रिवेंद्र सिंह रावत को बताए जाने बाद से ही प्रदेश भाजपा में भारी टेंशन का माहौल बन चुका है। पार्टी सूत्रों की मानें तो सीएम की कार्यशैली से खफा प्रदेश भाजपा के नेता और विधायक एक बार फिर से सीएम को हटाए जाने के लिए सक्रिय हो चुके हैं। इन सूत्रों की मानें तो इस बार असंतुष्टों की मुहिम कुछ रंग ला सकती है।
खबर है कि भाजपा आलाकमान और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मध्य इस बाबत बातचीत का दौर शुरू हो चुका है। बताया जा रहा है कि पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव हरीश रावत की अति सक्रियता से चिंतित पार्टी आलाकमान ने ‘ब्राह्मण-ठाकुर’ राजनीति वाले उत्तराखण्ड में रावत की काट के लिए कई नामों पर चर्चा कर एक ऐसे नाम पर मुहर लगा डाली है जो संघ की भी पहली पसंद है और हरीश रावत समान ही जिसका पूरे प्रदेश में व्यापक जनाधार है। यह नाम महाराष्ट्र और गोवा के वर्तमान राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी का बताया जा रहा है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के खांटी प्रचारक भगत सिंह कोश्यारी प्रदेश गठन के बाद बनी अंतरिम सरकार में मुख्यमंत्री रह चुके हैं।
भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहे कोश्यारी ने अपने तीखे तेवरों के चलते महाराष्ट्र की उद्धव सरकार को खासा मुसीबत में डाल रखा है। बताया जाता है कि इन तेवरों के चलते केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह संग उनके रिश्ते खासे प्रगाढ़ हो चुके हैं। पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच उनकी लोकप्रियता, ‘ब्राह्मण-ठाकुर’ समीकरण और प्रदेश संगठन में उनकी पकड़ को देखते हुए भाजपा आलाकमान उम्र की सीमा वाले अपने फाॅर्मूले को दरकिनार कर सल्ट उपचुनाव बाद राज्य की कमान कोश्यारी को सौंप सकता है। जानकारों का दावा है कि 2011 में ठीक चुनावों से पहले तत्कालीन सीएम रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ को हटा जनरल खण्डूड़ी को सीएम बनाने की सफल रणनीति को एक बार फिर से राज्य में आजमाया जाना तय हो चुका है।
‘अब कोश्यारी हैं जरूरी’
2011 में जनरल खण्डूड़ी के हाथों प्रदेश की कमान सौंपने के बाद भाजपा ने ‘खण्डूड़ी हैं जरूरी’ नारे को अपना चुनावी अभियान बनाया था। उसे इसका भारी लाभ भी मिला। बताया जाता है कि तब पार्टी के आंतरिक सर्वेक्षणों में मात्र 12-17 सीटें जीतने की बात कही गई थी। खण्डूड़ी की वापसी करा, जिस जोरदार- दमदार तरीके से ‘खण्डूड़ी हैं जरूरी’ कैंपेन चला उसके चलते भाजपा 32 सीटें जीत सत्ता करीब पहुंच गई थी। यदि पार्टी में आंतरिक कलह नहीं रहती तो न केवल खण्डूड़ी चुनाव जीत जाते, बल्कि तीन निर्दलियों की मदद से सरकार भी बन जाती। पार्टी आलाकमान त्रिवेंद्र सिंह रावत की कार्यशैली से उपजी नाराजगी को कोश्यारी की ताजपोशी करा दूर करने और ‘हर समस्या का समाधान कोश्यारी’ जैसे चुनावी नारे सहारे सत्ता में बने रहने का अचूक रास्ता मान रहा है। हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राज्यपालों की राजनीति में वापसी नहीं होनी चाहिए। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राज्यपालों की बाबत संविधान सभा में कहा था कि गैर राजनीतिक व्यक्ति को ही राज्यपाल बनाया जाना चाहिए ताकि वह दलगत विचारधारा से बंधा न रहे। हुआ ठीक उल्टा। कांग्रेस लगातार अपने नेताओं को राज्यपाल बना विपक्षी दलों की सरकारों पर अंकुश लगाने का काम करती रही। 1985 में कांग्रेस ने एक और स्थापित परंपरा को तोड़ा। तब उसने पंजाब के राज्यपाल अर्जुन सिंह को वापस खांटी राजनीति के मैदान में उतारा था। भाजपा भी ठीक वैसे ही राजनीति से संन्यास ले चुके कोश्यारी की वापसी का मन बना रही है। विश्लेषक यह भी मान रहे हैं कि कोश्यारी की वापसी हरीश रावत फैक्टर का असर खासा कम कर सकती है। भाजपा में कोश्यारी तो कांग्रेस में रावत ही अकेले ऐसे नेता हैं जिनका कद राष्ट्रीय स्तर का और पकड़ पूरे प्रदेश में है। ऐसे में यदि त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटा भाजपा कोश्यारी के हाथों राज्य की कमान सौंपती है तो न केवल गुटबाजी का शिकार हुए पड़े प्रदेश भाजपा संगठन में एकजुटता आएगी, बल्कि कांग्रेस के लिए भी बेदाग छवि के कोश्यारी को टारगेट करना टेढ़ी खीर बन जाएगा।
वर्ष 1985 में कांग्रेस ने एक और स्थापित परंपरा को तोड़ा। तब उसने पंजाब के राज्यपाल अर्जुन सिंह को वापस खांटी राजनीति के मैदान में उतारा था। भाजपा भी ठीक वैसे ही राजनीति से संन्यास ले चुके कोश्यारी की वापसी का मन बना रही है। विश्लेषक यह भी मान रहे हैं कि कोश्यारी की वापसी हरीश रावत फैक्टर का असर खासा कम कर सकती है। भाजपा में कोश्यारी तो कांग्रेस में रावत ही अकेले ऐसे नेता हैं जिनका कद राष्ट्रीय स्तर का और पकड़ पूरे प्रदेश में है। ऐसे में यदि त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटा भाजपा कोश्यारी के हाथों में राज्य की कमान सौंपती है, तो गुटबाजी का शिकार हुए पड़े प्रदेश संगठन में एकजुटता आएगी
खबर है कि पार्टी आलाकमान नेतृत्व परिवर्तन के मुद्दे पर भगत सिंह कोश्यारी से एक बार की बातचीत कर भी चुका है। सूत्रों की मानें तो कोश्यारी भी राजनीति में अपनी रि-एंट्री के लिए तैयार हैं। पांच राज्यों के 2 मई के दिन आने वाले चुनाव नतीजे के बाद कभी भी त्रिवेंद्र रावत को हटा कोश्यारी को सत्ता सौंप दी जाएगी। हालांकि इसमें एक पेंच भी है। यदि भाजपा असम में सत्ता बचा लेती है, तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को सत्ता से बेदखल करने में सफल रहती है तो त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाया नहीं जाएगा। चुनाव लेकिन बगैर किसी का चेहरा सामने किए केवल मेादी के नाम पर ही लड़ा जाएगा।