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जोशीमठ के लोगों की पीड़ा ने देर से ही सही सरकार और मीडिया का ध्यान खींचा है। राज्य के दूसरे हिस्सों में इसी तरह की समस्याओं की ओर आम तौर पर अनदेखी ही होती रही है। घरों में पड़ी दरारें, लोगों में पसरी दहशत और घरों से बेघर होने का दर्द, यह दास्तान अकेले जोशीमठ की ही नहीं है, बल्कि उत्तराखण्ड में ऐसे अनगिनत जोशीमठ हैं जहां के हजारों बाशिंदे मौत के साये में जी रहे हैं। दशकों से सरकारों की अदला-बदली हुई लेकिन नहीं बदली तो इनकी किस्मत। घरों में पड़ी दरारें उन्हें डराती है। लोग रातों को पहरा देने पर मजबूर हैं। ऐसे कई गांव के हजारों लोग हैं जो जिंदगी बचाने की जद्दोजहद में जूझ रहे हैं। पुनर्वास नीति 2011 के तहत इन लोगों को सुरक्षित स्थानों पर विस्थापित किया जाना है। सरकारी अधिकारियों की लचरता से अभी भी इन गांवों का विस्थापन होने का इंतजार हो रहा है

जोशीमठ के भू-धंसाव प्रकरण ने पहाड़ों की दुर्लभ होती जिंदगी की तरफ देश-दुनिया का ध्यान खींचा है। जोशीमठ के बाशिंदों की पीड़ा से उत्तराखण्ड के सैकड़ों गांवों को विस्थापित करने का मामला एक बार फिर चर्चाओं में आ गया है। जोशीमठ के भू-धंसाव की शुरुआत एक दो साल नहीं, बल्कि पांच दशक पहले शुरू हो चुकी थी। यह धंसाव 1970 के दशक में भी महसूस किया गया था। तब सरकारी स्तर पर गढ़वाल के आयुक्त महेश चंद्र मिश्रा की अध्यक्षता में धंसाव के कारणों की जांच के लिए एक कमेटी बनाई गई थी। कमेटी ने 1978 में अपनी रिपोर्ट दी थी। इस रिपोर्ट में साफ साफ कहा गया था कि जोशीमठ नगर के साथ पूरी नीती और माणा घाटियां हिमोढ़ (मोरेन) पर बसी हुई हैं। ग्लेशियर पिघलने के बाद जो मलबा पीछे रह जाता है, उसे हिमोढ़ कहा जाता है। ऐसे में इन घाटियों में बड़े निर्माण कार्य नहीं किए जाने चाहिए। लेकिन मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट को दरकिनार कर दिया गया। मिश्रा रिपोर्ट को अनसुनी कर इन घाटियां में दर्जनों जल विद्युत परियोजनाओं के साथ ही कई दूसरे निर्माण भी लगातार किए जाते रहे हैं। जिसकी परिणति में जोशीमठ ही नहीं, बल्कि प्रदेश के दर्जनों गांव खतरे की जद में है जिन्हें सुरक्षित स्थानों पर विस्थापित नहीं किया जा सका है। आज स्थिति यह है कि उत्तराखण्ड के करीब 32 गांवों में कमोबेश जोशीमठ जैसे हालात बने हुए हैं। इन गावों के डेढ़ सौ से अधिक परिवारों की विस्थापन की फाइल सालों से आज भी सरकारी दफ्तरों में इधर से उधर सरकायी जा रही है। ऐसा नहीं है कि सरकार इस ओर से बिल्कुल ही आंख मूंदे रही, बल्कि 2012 से अब तक 45 से अधिक गांवों के करीब 1400 परिवारों का विस्थापन किया जा चुका है। पहाड़ों के दरकने और भू-धंसाव का यह सिलसिला लेकिन थमने का नाम नहीं ले रहा है। इस संबंध में दशकों से प्रदेश में एक ठोस विस्थापन नीति की दरकार रही है। पुनर्वास नीति 2011 भी बनाई गई लेकिन वह सिर्फ सर्वे और आपदा प्रभावित गांवों तक ही सीमित होकर रह गई है। हालांकि 2013 की आपदा के बाद सरकारें इस दिशा में कुछ गंभीर भी नजर आईं है।

ढाई दशक पूर्व आपदा के लिहाज से संवेदनशील 225 गांव चिÐत किए गए थे। जिनका भूगर्भीय सर्वेक्षण होना है। हालांकि, वर्तमान में ऐसे गांवों की संख्या चार सौ से अधिक आंकी जा चुकी है। यह गांव ऐसे है जो रहने के हिसाब उपयुक्त नहीं ठहराए जा सकते हैं। आपदा प्रभावित गांवों की संख्या जिस तरह बढ़ रही है, उस लिहाज से इनके विस्थापन की मुहिम शुरुआती दौर में रफ्तार नहीं पकड़ सकी है। सरकार ने आपदा प्रभावितों के विस्थापन, पुनर्वास के लिए वर्ष 2011 में नीति बनाई। वर्ष 2012 से यह लागू हुई। नीति को तब कितनी गंभीरता से लिया गया, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2012 से 2015 तक केवल दो गांवों के 11 परिवारों का ही विस्थापन हो पाया। प्रदेश में विस्थापित गांवों की स्थिति देखें तो उसके अनुसार साल 2016-17 में 02 गांवों के 11 परिवारों को विस्थापित किया गया था। इसी तरह 2017-18 में 12 गांवों के 177 परिवारों का तो 2018-19 में 06 गांवों के 151 परिवारों और वर्ष 2019-20 में 03 गांवां के 270 परिवारों का विस्थापन किया गया है। इसके अलावा भी और कई गांव ऐसे हैं जहां विस्थापन किया गया। देखा जाए तो त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने इसे गंभीरता से लिया और वर्ष 2017 से लेकर सितंबर 2021 तक 80 गांवों के 1436 परिवारों को विस्थापित करने में सफलता हासिल की गई।

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी द्वारा 12 अक्टूबर 2021 को इस संबंध में एक महत्वपूर्ण बैठक ली गई थी। जिसमें अधिकारियों ने जो तथ्य रखे उसके अनुसार पुनर्वास नीति 2011 के तहत राज्य में शुरू से लेकर 31 सितंबर 2021 तक कुल 84 गांवों के 1447 परिवारों को पुनर्वासित किया जा चुका है, जिसके लिए 61 करोड़ 2 लाख 35 हजार रुपए प्रदान की गई। गढ़वाल मंडल के अन्तर्गत चमोली जनपद के 15 गांवों के 279 परिवार, उत्तरकाशी जनपद के 5 गांवों के 205 परिवार, टिहरी जनपद के 10 गांवों के 429 परिवार एवं रूद्रप्रयाग जनपद के 10 गांवों के 136 परिवार पुनर्वासित किए गए। जबकि कुमाऊं मण्डल के अन्तर्गत पिथौरागढ़ के 31 गांवों के 321 परिवार, बागेश्वर जनपद के 9 गांवों के 68 परिवार, नैनीताल जनपद के 01 गांव के 1 परिवार एवं अल्मोड़ा जनपद के 2 गांवों के 8 परिवार विस्थापित किए गए।

राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण व पुनर्वास विभाग के आंकड़े बताते हैं कि 2016 से लेकर 31 सितंबर 2022 तक चमोली जिले में 61 गांवों को संवेदनशील घोषित किया गया, जिसमें आठ गांवों का पुनर्वास कर दिया गया है। इसी तरह उत्तरकाशी में 64 में से सात, पिथौरागढ़ में 129 में से आठ, टिहरी में 33 में चार, रुद्रप्रयाग में 14 में से छह, बागेश्वर में 42 में चार, अल्मोड़ा में 12 में से एक, चम्पावत में 13 में से एक गांव का पुनर्वास किया गया है। जबकि पौड़ी में 28, देहरादून में तीन, ऊधम सिंह नगर में एक, नैनीताल में छह गांवों को संवेदनशील घोषित किया जा चुका है, परंतु इन जिलों में एक भी गांव का पुनर्वास नहीं किया गया है। जानकारी के अनुसार धामी सरकार में पांच जिलों के 13 गांवों के 86 परिवारों के विस्थापन का प्रस्ताव है। इस दिशा में कार्य चल रहा है। इन गांवों में टिहरी जिले के डौंर गांव से 11, चमोली के सरपाणी, सूना कुल्याड़ी व झलिया से 30, रुद्रप्रयाग के गिरीया, पांजणा व छातीखाल से 15, उत्तरकाशी के बग्यालगांव से एक और पिथौरागढ़ के गगुर्वा तोक स्यारी, सानीखेत व धामीगांव से 29 परिवारों का विस्थापन किया जाना शामिल है।

गढ़वाल में चमोली जिले के अलावा कुमाऊं में पिथौरागढ़ ऐसा जिला है जहां सबसे अधिक 44 गांव विस्थापित होने हैं। लेकिन शासन से सिर्फ 30 गांवों को विस्थापित करने पर सहमति बनी है। इनमें 8 गांव धारचूला और बंगापानी तहसील में विस्थापित होने हैं। जबकि मुनस्यारी तहसील में 7, तेजम में 4, डीडीहाट में 2 और कनालीछीना में एक गांव को विस्थापन के लिए पहली किस्त जारी हो चुकी है। बावजूद इसके जनपद के 14 गांवों के लोगों को अभी भी विस्थापन की दरकार है। ये गांव इतने अधिक संवेदनशील हैं कि यहां कभी भी जिंदगी खतरे में पड़ सकती है। ऐसे में प्रशासन ने इन गांवों को विस्थापित करने का प्रस्ताव शासन को तो भेज दिया है, लेकिन शासन पर कब पहल शुरू होगी, यह कहना मुश्किल है।

रैणी गांव

जोशीमठ से 8 किलोमीटर दूर है रैणी गांव। यह गांव उत्तराखण्ड के प्रख्यात ‘चिपको आंदोलन’ की प्रणेता गौरा देवी का गांव है जो अब लोगों के लिए रहने के लिहाज से असुरक्षित हो गया है। 7 फरवरी 2021 को ग्लेशियर टूटने से तबाह हुआ रैणी गांव जून 2021 में फिर से आई बाढ़ के कारण पूरी तरह असुरक्षित हो गया था। बताया जा रहा है कि गांव के ठीक नीचे जमीन अब भी लगातार खिसक रही है। गांव पर लगातार बढ़ते खतरे को देखते हुए विस्थापन के लिए 24 जून 2021 को भूगर्भ विभाग की एक टीम ने गांव का सर्वे किया था। इस सर्वे के दौरान ही भू-धंसाव वाली जगह में फिर से पत्थर गिरने लगे और सर्वे वाले उसकी चपेट में आने से बाल-बाल बचे थे। सर्वे की रिपोर्ट गांव का विस्थापन किए जाने के पक्ष में थी। उस समय आनन- फानन में ही प्रशासन ने ऐलान कर दिया कि रेणी के बगल के गांव सुभाईं में जमीन देख ली गई है और वहां इस गांव के 50 परिवारों का विस्थापन किया जाएगा। हालांकि देखा जाए तो विस्थापन जैसी जटिल प्रक्रिया का इतनी जल्दी समाधान चौकाने वाला था। इसकी प्रतिक्रिया भी तत्काल सामने आई। इसके दूसरे ही दिन गांव के लोगों ने इसका विरोध भी करना शुरू कर दिया। प्रभावित लोग तभी से ही आंदोलन की चेतावनी देने लगे थे। उनके अनुसार विस्थापन का मतलब सिर्फ 100 स्क्वायर मीटर (आधा नाली) जमीन और दो कमरों का घर नहीं होता। जल, जंगल, जमीन, चरागाह, मरघट, पनघट आदि हक-हकूक सभी कुछ होता है। इसके बाद से प्रशासन ने रैणी के विस्थापन की तरफ से चुप्पी साध रखी है। इतना ही नहीं जोशीमठ विकासखंड में 2 दर्जन से अधिक गांव ऐसे हैं जो आज भी पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं। हालांकि पैग मुरणडा, उछछो ग्वाड़, पिलखी, ऐली, तिरोसी, पप्यां चोरमी, पुलना, जुवागवाड, गणाई, दाडमी आदि ऐसे गांव है जहां पुनर्वास की कार्रवाई चल रही है। लेकिन प्रभावित गांव वालों की नजर में यह कार्रवाई कछुआ चाल से चल रही है। जनपद चमोली के जोशीमठ ब्लॉक के ये गांव ऐसे हैं जिन्हें संवेदनशील क्षेत्रों में गिना जाता है। किंतु यहां भारी-भरकम निर्माण कार्य लगातार चल रहे हैं जहां जल विद्युत परियोजना का कार्य जोरों पर संचालित है। इसके अलावा ऑल वेदर रोड का कार्य जोरों पर चल रहा है।

अटाली
जोशीमठ के बाद एक और धार्मिक नगरी ऋषिकेश के पास के इस गांव में भी घरों और जमीन पर दरारें पड़ने की खबरें आ रही हैं। अटाली गांव ऋषिकेश से करीब 25 किलोमीटर दूर है। यह गांव बदरीनाथ नेशनल हाईवे पर व्यासी के पास है। ऋषिकेश के इस गांव से होते हुए कर्णप्रयाग तक रेल की पटरी बिछाई जानी है। जिसके लिए रेल विकास निगम ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल प्रोजेक्ट के तहत सुरंग की खुदाई करवा रहा है। यहां के लोगों का कहना है कि इस सुरंग की खुदाई से ही उनके घरों और जमीनों में दरारें आ गई हैं। अटाली के लोगों का कहना है कि सुरंग खोदे जाने की शुरुआत के साथ ही जमीन में कंपन हो रहा है। इस कंपन से घरों की दीवारों, छत और फर्श में दरारें पड़ रही हैं। उनकी जमीन धंसती जा रही है और खेतों तक में दरारें आ गई हैं। अटाली के लोगों का कहना है कि अगर जल्दी ही कुछ न किया गया, तो यहां भी हालात जोशीमठ और कर्णप्रयाग जैसे हो सकते हैं। इसके मद्देनजर लोगों ने विस्थापन और उचित मुआवजे की मांग धामी सरकार से की है।

मस्ताडी
यह गांव उत्तरकाशी जिला मुख्यालय से 10 किलोमीटर दूर है। बताया जा रहा है कि इस गांव में 1991 में आए भूकंप के बाद से भू-धंसाव शुरू हो गया था। भूकंप में गांव के लगभग सभी मकान ध्वस्त हो गए थे। 1997 में प्रशासन के द्वारा इस गांव का भूगर्भीय सर्वेक्षण भी कराया गया था। तब भूवैज्ञानिकां ने गांव में तत्काल सुरक्षात्मक कार्य कराए जाने का सुझाव दिया था। लेकिन सुरक्षात्मक कार्य तो दूर आज 32 साल बाद भी गांव का विस्थापन नहीं हो पाया है। स्थिति यह है कि गांव धीरे-धीरे धंसता जा रहा है। गांव के रास्ते तक धस रहे हैं। हालात यह है कि कई जगह बिजली के पोल तिरछे हो चुके हैं। ग्राम प्रधान सत्य नारायण सेमवाल बताते हैं कि प्रशासन ने वर्ष 1997 में गांव का भू सर्वेक्षण कराया था। तब भू वैज्ञानिक डीपी शर्मा ने गांव में सुरक्षात्मक कार्यों की सलाह दी थी। उन्होंने प्रशासन को जो रिपोर्ट सौंपी उसमें उन्होंने कहा था कि भू-धंसाव वाले क्षेत्र में भूमि संरक्षण विभाग से सर्वेक्षण कराकर चेकडैम, सुरक्षा दीवार का निर्माण और पौधा रोपण कराया जाए। यही नहीं बल्कि रिपोर्ट में मकानों के चारों ओर पक्की नालियों का निर्माण कर पानी की निकासी की व्यवस्था किए जाने को भी कहा गया था। प्रशासन से विस्थापन की मांग की गई है लेकिन अभी तक विस्थापन नहीं हो पाया है।

पंच केदार के गांव
2013 की आपदा के बाद से ही पंच केदार के कल्पक्षेत्र, उरगम, वडगिणडा, देवग्राम, गिरा वाशा के तोक काफी संवेदनशील बताए जा रहे हैं। गांवों के निचले हिस्सों में लगातार जमीन का धंसना शुरू हो रहा है। स्थानीय लोगों की मानें तो कई नाली कृषि भूमि एवं वन भूमि लगातार टूटती जा रही है। जिससे आबादी वाले क्षेत्रों में नुकसान होना शुरू हो गया है। उरगम घाटी के तल्लावडगिडा देवग्राम गांव के निचले हिस्से में लगातार भूमि के कटाव से लोगों के घरां को खतरा हो गया है। देव ग्राम के प्रधान देवेंद्र सिंह रावत के अनुसार पूरे क्षेत्र में भूमि पर दरार पड़ गई है। लगभग 70 से अधिक मकान ऐसे हैं जो दरारों के चलते खतरे की जद में है। लोग अपने मकानों में रहने के लिए मजबूरी में विवश हैं। कई बार सरकार से पुनर्वास की मांग भी की जा चुकी है। लेकिन सरकार सुनने को तैयार नहीं है। वे बताते हैं कि पुनर्वास की कार्रवाई भी शिथिल पड़ी हुई हैं। जबकि उरगम की प्रधान मिकल कहती हैं कि हमारे गांव में 45 परिवारों को पुनर्वासित करने की कार्रवाई पिछले 7 साल से चल रही लेकिन अभी तक कार्रवाई पूरी नहीं हो पाई है। कई लोग ऐसे हैं जो पंचायत भवन में शरण लिए हुए हैं।

बाडिया गांव
यमुनोत्री नेशनल हाइवे के ठीक ऊपर बसा बड़कोट के बाडिया गांव के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। इस गांव में करीब 100 से अधिक परिवार रहते हैं। यहां के 35 से ज्यादा घरों में में जोशीमठ की तरह दरारें आ चुकी है। ये दरारें यहां के कई किसानों के खेतों में भी देखी जा रही हैं। बताया जा रहा है कि भू धंसाव के चलते यहां के बाशिंदे बहुत ज्यादा डरे हुए हैं। हालात ये है कि दरारों वाले खेतों में किसानों ने जाना तक करना बंद कर दिया है। यह गांव भूस्खलन की जद में 2010 के बाद से ही आना शुरू हो गया था। 2013 आते-आते यहां के करीब 35 मकानों में भू-धंसाव से दरारें आनी शुरू हो गई थी। साल 2013 की आपदा के दौरान यमुना नदी के उफान पर आ जाने से इस गांव के नीचे कटाव होने लगा था। इससे गांव के घरों में भी धीरे धीरे दरार आने लगी थी। जबकि यमुनोत्री धाम को जाने वाला एक मात्र नेशनल हाईवे भी धंसने लगा है। प्रशासन द्वारा यमुनोत्री नदी की तरफ से प्रोटेक्शन वर्क से भू धंसाव को कुछ हद तक रोका गया है। लेकिन गांव पर खतरा अभी भी बरकरार है।

कर्णप्रयाग
सीएमपी बैड सब्जी मंडी साकेत नगर पुजारी गांव के बांये तरफ आई टी आई रोड के ऊपरी और निचले भाग में रहने वाले 50 से भी अधिक परिवार दहशत में है। यहां मकानों की दीवारों और चौकों के आंगन तथा भरानो की दरारे आपदा का दर्द बयां कर रही हैं। इस भाग मे बरसात के दौरान तेजी से भू-धंसाव हुआ था। लेकिन अभी तक ट्रीटमेंट ना होने से लोग खतरे के साए में रात बिता रहे हैं। यहां बदरीनाथ हाईवे और नैनीताल हाईवे रोड के किनारे भू धसाव हो रहा है। 30 से अधिक भरानो में दो-दो फिट तक दरारें आ चुकी हैं। जिस कारण कई लोग अपना मकान छोड़ चुके हैं। लोग टूटे मकानों में खौफ के साए में रहने के लिए मजबूर हैं। हालात यह है कि भू-धंसाव के 8 महीने बाद भी प्रशासन व आपदा प्रबंधन की ओर से सुरक्षा के ठोस उपाय नहीं किए गए हैं। कर्णप्रयाग में 2011 में पहली सब्जी मंडी बनने के बाद भू-धंसाव होने के बाद दरारे आनी शुरू हुई थी। इसी दौरान कर्णप्रयाग नैनीसैण मोटर मार्ग भी बंद हो गया था। लेकिन लोक निर्माण विभाग ने उसको खोलने की जहमत नहीं उठाई नतीजा यह हुआ कि सड़क का पानी मकानों में पड़ी दरारों में जाने लगा। इस दौरान वहां अनियोजित कटिंग से भी हालात और ज्यादा बिगड़ने शुरू हो गए। पिछले साल जुलाई और अगस्त में यहां भू घंसाव में तेजी आई थी जो अभी भी जारी है। सड़क के ऊपर पंकज डिमरी, उमेश रतूड़ी, बीपी सती, राकेश खंडूरी, हरेंद्र बिष्ट, रविदत्त सती, दरवान सिंह, दिगंबर सिंह, गब्बर सिंह के सहित 25 मकानों में दरारें पड़ गई है।

दर में दर-बदर होने का डर
धारचूला की दारमा वैली का दर गांव एक दुर्गम गांव है, जहां पहुंचना आसान नहीं है। यहां दर्जनों लैंडस्लाइड जोन हैं। गांव के आस-पास की जमीन कई स्थानों पर भूस्खलन की चपेट में आ चुकी है। गांव को जाने वाली सड़क पर आने का मतलब मौत को दावत देना है। 50 से ज्यादा घर पूरी तरह धस चुके हैं। अधिकतर घरों के आस-पास की जमीन भी चारों ओर से धंस रही है। बावजूद इसके प्रशासन इन गांव वालों को लेकर अभी तक गंभीर नहीं है। गांव के लोग बताते हैं कि इस क्षेत्र में भू- वैज्ञानिकों ने पूरा सर्वे भी किया था और सरकार को बताया था कि इस गांव को विस्थापित करना जरूरी है। क्योंकि भविष्य में यह पूरा गांव भूस्खलन और भू-धंसाव की चपेट में आ सकता है। 1976 के लगभग सरकार ने इस पर नीति बनाई और 1980 में करीब 50 परिवारों को यहां से विस्थापित किया गया। लेकिन इसके बाद सरकार ने इस तरफ से आंख मूंद ली। दारमा वैली के इस गांव में पौने दो सौ परिवार रहते हैं। जो 1980 से विस्थापित होने की राह देख रहे हैं। पिछले 42 सालों में गांव की जमीन बड़े पैमाने पर धंसने लगी है। बताया तो यहां तक जा रहा है कि जिन लोगों ने नए मकान बनाए थे वह भी दरारों की चपेट में आकर बर्बाद हो रहे हैं। गांव के रहने वाले किशन सिंह दरियाल आपबीती बताते हैं कि प्रशासन के अधिकारी कभी यहां सुध लेने तक नहीं आए, विस्थापन तो बहुत दूर की बात है और तो और मानसून के सीजन में गांव के हालात देखने पटवारी तक नहीं आता। लोगां के मकान वह धंस रहे हैं उनमें बड़ी-बड़ी दरारें नजर आती है। बहुत मेहनत के साथ लोगों ने घर बनाए लेकिन अब उन में रहना मौत को दावत देना है।

क्या कहती है पुनर्वास नीति
2011 की पुनर्वास नीति में कहा गया है कि आपदा से प्रभावित गांवों या परिवारों के विस्थापन के लिए जमीन का चयन करते वक्त यह खास ख्याल रखा जाएगा कि प्रभावित गांव से जितना नजदीक हो सके सुरक्षित स्थान का चयन किया जाए, ताकि विस्थापित परिवार जीवन यापन के लिए जमीन पैतृक जमीन पर खेती बाड़ी या अपना परंपरागत व्यवसाय जारी रख सके। जहां परिवारों को बसाया जा रहा है, वह क्षेत्र न केवल सुरक्षित हो, बल्कि ज्यादा से ज्यादा सुरक्षित बनाने के उपाय किए जाएंगे। आपदा प्रभावित क्षेत्र में जिन लोगों के अपने घर हैं, उन्हें चिन्हित क्षेत्र में निःशुल्क जमीन दी जाएगी। यह जमीन अधिकतम 250 वर्ग मीटर हो सकती है। गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे परिवारों को राज्य व केंद्र सरकार की आवास योजनाओं का लाभ दिया जाएगा। जबकि जिनका अपना घर या भवन था, उन्हें भवन निर्माण के लिए तीन लाख रुपए दिए जाएंगे। ऐसे प्रभावितों को जो अपनी कृषि भूमि का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं, उन्हें निर्धारित सर्कल रेट के आधार पर कृषि भूमि के बराबर मूल्य की भूमि या पैसा देने का यथासंभव प्रयास किया जाएगा। अगर ऐसे परिवारों को बंजर जमीन दी जाती है तो उन्हें बंजर भूमि के सुधार के लिए न्यूनतम 15 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर की दर से एक मुश्त सहायता दी जाएगी। साथ ही, गौशाला निर्माण के लिए 15 हजार की सहायता भी दी जाएगी।

धरने पर टिहरी विधायक विक्रम सिंह नेगी

विस्थापन की मांग पर विधायक का धरना

टिहरी जिले में कांग्रेस विधायक विक्रम सिंह नेगी ने तो इस मुद्दे पर बकायदा धरना-प्रदर्शन किया। कई गांवों के विस्थापन को लेकर वे टिहरी के 8 जनवरी को टिहरी के पुनर्वास कार्यालय के बाहर धरने पर बैठ गए। विधायक विक्रम सिंह नेगी ने कहा कि 29 अक्टूबर 2005 को जब टिहरी झील की अंतिम सुरंग बंद की गई और भागीरथी भिलंगना नदी को रोक दिया गया तब टिहरी बांध की झील का निर्माण हुआ। जैसे-जैसे झील का जलस्तर बढ़ता गया तो ग्राम रोलाकोट, भलडियाना, पीपला उठंडा, नंदगांव उठड आदि के ऊपरी भाग में अस्थिरता उत्पन्न होने लगी। गांव के भूमि भवनों में बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गई। कुछ भवन तो ऐसे हैं जो कभी भी जमींदोज हो सकते हैं और किसी की जान माल का नुकसान हो सकता है। परंतु अभी तक इनका कोई विस्थापन नहीं किया गया। टिहरी झील से सबसे ज्यादा प्रभावित रोलाकोट गांव के परिवार है। इन गांव में 75 प्रतिशत परिवार पूर्व में ही पुनर्वास हो चुके हैं। शेष 25 प्रतिशत परिवार जिनकी संख्या 17 है उनका विस्थापन होना शेष है। इसके अलावा भलडियाना गांव के 6 परिवारों का विस्थापन किया जाना भी जरूरी है।

बात अपनी-अपनी
पलायन के चलते उत्तराखण्ड के भुतहा कहे जा रहे गांवों का अधिग्रहण सरकार करे। जितने गांव विस्थापित होने हैं, भुतहे गांव भी लगभग उतने ही हैं। यहां विस्थापित होने वालों को बसाया जा सकता है और भुतहे गांवों को भी आबाद किया जा सकता है। विस्थापन के बाद जो जमीन खाली हो, उनका भी संरक्षण करना होगा, ताकि भूमि भू-धंसाव को वहीं पर रोका जा सके। पिछले कई सालों से उत्तराखण्ड पलायन और विस्थापन जैसी गंभीर चुनौतियों से अगर जूझ रहा है तो सिर्फ इसलिए कि सरकार की विस्थापन नीति लचर व अव्यावहारिक है।
अतुल सती, संरक्षक, जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति

उत्तराखण्ड के विकास के इस मॉडल को तत्काल बदलना होगा। पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड में यहां पर्वत व पर्वत वासियों के हित व संरक्षण को ध्यान में रखते हुए राज्य के जल, जंगल, जमीन व अन्य प्राकृतिक संपदाओं पर जनता के अधिकार को मजबूत करते हुए ही राज्य की विकास योजनाओं को बनाना व क्रियान्वित करना होगा। इसके लिए राज्य में किसी भी प्रकार की बड़ी परियोजनाओं को न लगाकर स्थानीय लोगों के स्वामित्व से छोटी परियोजनाओं को विकसित करना होगा, यह राज्य व राष्ट्र के हित में है। यहां की विशिष्ट भौगोलिक-आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुए विकास के एक ऐसे नये मॉडल की जरूरत है जिसमें पहाड़ के गांवों में बसने वाले लाखों पहाड़ वासियों के हितों को सर्वोपरि रखा जाए, न कि उनको अपनी जड़-जमीन से विस्थापित करने की नौबत आए।
सुरेश भाई, पर्यावरणविद्

 

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