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The Sunday Post Special Uttarakhand

‘पुलिस के लिए छवि सुधारने का अवसर लाया कोरोना’

कुमाऊं के डीआईजी जगतराम जोशी उत्तराखण्ड में उन चुने हुए अधिकारियों में हैं जिनके लिए सरकारी सेवा सिर्फ नौकरी का माध्यम नहीं है, सामाजिक दायित्वों के निर्वहन का एक महत्वपूर्ण साधन भी है। देहरादून जिले के जौनसार क्षेत्र के सुदूर गांव में जन्मे जगतराम जोशी एक साधारण परिवार से आते हैं। प्रांतीय पुलिस सेवा के माध्यम से पुलिस की नौकरी चुनने वाले जोशी का मानना है कि समाज की निकट से सेवा करने का पुलिस विभाग से कोई बेहतरीन माध्यम हो ही नहीं सकता। अपने सामाजिक कार्यों से पुलिस महकमे को प्रेरणा देने वाले जगतराम जोशी ने लोगों के सामने पुलिस का एक नया चेहरा प्रस्तुत किया है जिसमें पुलिस जनता के सामने नहीं जनता के साथ खड़ी दिखाई देती है। सन् 2012 में आईपीएस कैडर पाने वाले जगतराम जोशी उत्तर प्रदेश के मेरठ, मैनपुरी, मुफ्फरनगर, रामपुर, सहारनपुर एवं उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री की सुरक्षा में रहने के बाद उत्तराखण्ड में 2003 में एएसपी बने। उसके पश्चात देहरादून, काशीपुर, हल्द्वानी में सेवा देने के बाद एसपी उत्तरकाशी तथा एसएसपी पौड़ी रहे। डीआईजी पद पर पदोन्नति के बाद डीआईजी कार्मिक के बाद  डीआईजी कुमाऊं हैं। केरोना संक्रमण में पुलिस की भूमिका, उसकी छवि और पुलिस को मानवीय-सामाजिक छवि देने वाले डीआईजी जोशी से बातचीत के अंशः

कोरोना महामारी में कानून व्यवस्था के इतर आप पुलिस की क्या भूमिका देखते हैं?
इस कोरोना संक्रमण के दौर में पुलिस का जो अपना मूल दायित्व है वो तो वह निभा ही रही है। हमारा जवान 12 घंटे सड़क पर खड़ा है। इसके अलावा वो ये भी देख रहा है कि कहां कोई प्यासा है, कहां कोई भूखा है, किसके पास दवाई नहीं है, किसके पास राशन नहीं है। बहुत से वरिष्ठ नागरिकों का हमारे पास सीधे फोन आता है कि उनके पास दवाई नहीं है, राशन नहीं है। हम तुरंत उनके पास राशन एवं दवाइयां पहुंचा देते हैं। पुलिस विभाग को इन सब कार्यों के लिए कोई अतिरिक्त बजट नहीं मिला है। ये सब हमने अपने वेतन से किया है। हमारे जवान से लेकर हमारे उच्च अधिकारियों ने अपने वेतन से सहयोग किया है। कुछ अपने व्यक्तिगत संपर्कों के सहयोग से आम लोगों ने सहायता की है। इन सबके चलते पुलिस की सुंदर छवि आई है और पुलिस के प्रति जो एक नकारात्मक सोच आम लोगों में थी उससे पूरे हिंदुस्तान में एक सकारात्मक बदलाव आया है। इस बीच सोशियल मीडिया में, इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया में जो देखने में आया है, उसने ऐसा संदेश दिया है कि पुलिस देव स्वरूप कार्य कर रही है।

क्या इस कोरोनाकाल में पुलिस की परम्परागत छवि के अलावा क्या कोई नई छवि गढ़ी है?
मेरा व्यक्तिगत विचार है और मैं शुरू से ही इस पक्ष का रहा हूं कि पुलिस महकमा ही एकमात्र ऐसा महकमा है, अगर कोई अच्छा कार्य करना चाहे तो इससे बेहतर कोई प्लेटफार्म हो ही नहीं सकता। अब ये आप पर निर्भर करता है कि आप सही मार्ग पर चलते हैं या गलत मार्ग पर। पुलिस के पास दिन में सैकड़ों लोग ऐसे आते हैं जो पीड़ित हैं, सताए हुए हैं अगर हमारा जवान, हमारा दारोगा उसे एक गिलास पानी पिला दे, प्यार से बैठाकर उसकी शिकायत सुन ले तो आधी तकलीफ उसकी ऐसे ही दूर हो जाती है। लेकिन कभी उचित व्यवहार नहीं किया जाता और उचित रूप से ट्रीट नहीं किया जाता है तो उसकी वजह से पुलिस की नकारात्मक छवि बन जाती है। इस वक्त पुलिस को अवसर मिला है अपनी छवि सुधारने का और इसे अपने लिए अवसर में बदलने का कार्य पुलिस ने किया है।

क्या आपको नहीं लगता कि इस महामारी में पुलिस की नकारात्मक नहीं, बल्कि सकारात्मक छवि की ओर लोगों का ध्यान गया है?
बिल्कुल जैसा मैंने कहा पुलिस को कोरोना ने अवसर उपलब्ध कराया है। हमने उस अवसर का उपयोग किया लोगों के नजदीक आने में। पुलिस में कार्य करने वाले लोग भी समाज के बीच में से ही आते हैं। मानवीय संवेदनाएं उनमें भी कम नहीं होती हैं। मैं अपने विभाग के लोगों से उम्मीद और अनुरोध करता हूं जो अच्छी छवि बनी है उसे बरकरार रखें।

जब कोरोना वारियर्स की सूची में डॉक्टर, पैरामेडिकल स्टाफ के साथ पुलिसकर्मियों को भी सम्मानित होते देखते हैं, तो कैसा महसूस होता है?
बहुत अच्छा लगता है कि पुलिस का सम्मान हो रहा है। देखिए, डॉक्टर तो फ्रंट लाइन पर लड़ रहे हैं उनकी जितनी प्रशंसा करें वो कम है। उसके साथ ही पैरामेडिकल स्टाफ एवं सफाई कर्मचारियों की भूमिका बखूबी रही है। जनता से जो फीडबैक मिल रहा है उससे बहुत खुशी होती है।

आपके नेतृत्व में पुलिस ने स्वयं को कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी के अलावा सामाजिक दायित्वों की ओर भी प्रेरित किया है। इसकी प्रेरणा आपको कहां से मिली और इसकी शुरुआत कहां से हुई?
जब मैं रामपुर में पोस्टेड था तो एक संस्था सामने आई जो पुराने कपड़े एकत्र करके गरीबों में बांटते थे, साथ ही रक्तदान भी करते थे। मुझे विचार आया कि ये कार्य तो हम भी कर सकते हैं। इसकी शुरुआत मैंने सहारनपुर से की। उसके बाद तो ये अभियान लगातार चलता रहा। स्थानांतरित होकर जहां भी गया इसे निरंतरता देता गया। जब मैं हरिद्वार में एसपी सिटी रहा तो वहां से मैंने इस अभियान को विस्तार दिया। सर्दियों में सभ्रांत लोगों के सहयोग से गरीबों में एक हजार कंबल बांटकर शुरुआत की। हरिद्वार में ही 40 बटालियन में था तो मैं एक कुष्ठ आश्रम गया था। वहां कुष्ठ रोगियों की दशा देखकर मैं बहुत व्यथित हुआ जिसकी चर्चा मैंने अपने सहयोगियों से की। शुरुआत में हम 17 लोगों ने 200 रुपये प्रति व्यक्ति 3400 रुपए एकत्रित कर राशन के लिए हर माह दिए। ये 2003 की बात है। आज हमारे साथ इस सहयोग में 375 लोग जुड़े हैं। कुष्ठ एवं लोक सेवा असहाय समिति हरिद्वार के माध्यम से कुष्ठाश्रम में हर माह राशन भेजते हैं, साथ ही समय-समय पर मेडिकल कैंप भी लगाते हैं। उत्तरकाशी में पोस्टिंग के दौरान राष्ट्रीय दृष्टिबाधित संस्थान (एनआईबीएस) के सहयोग से हमने दिव्यांगों के लिए कार्य शुरू किया। 6 हजार लोगों को व्हीलचेयर, वैशाखी, कान की मशीन एवं चश्मे उपलब्ध कराए। एसएसपी पौड़ी के दौरान हमने सीनियर सिटीजन से जुड़ने की पहल की। हम विभाग के लोगों के साथ जाकर बुजुर्गों से मिलकर उनकी समस्याओं को सुनते थे और उनकी आवश्यकतानुसार राशन, दवाइयों की व्यवस्था करते थे। पिछली सर्दियों में हमने हल्द्वानी में 1500 गरीबों को रजाइयां वितरित की थी। कोरोना संक्रमण की शुरुआत से ही हमने सभी जिलों के एसएसपी को संदेश दिया था कि सभी चौकियों एवं थानों के मैस खोल दीजिए। कोई असहाय भूखा न रहने पाए।

पुलिस की नौकरी का चयन क्या समाज से भी प्रेरित था?
नहीं ऐसा नहीं था, सामान्य घर से हूं पहला उद्देश्य तो रोजगार का साधन पाना था। लेकिन पुलिस सेवा में आने के बाद मैंने महसूस किया कि ये तो समाज सेवा का बेहतरीन माध्यम है और सेवा भाव के लिए अथाह सागर है यहां। अच्छा करना चाहे तो असीमित ऊंचाई छू सकते हैं और अगर खाई में गिरना चाहें तो पाताल की गहराई भी कम है।

संजय स्वार

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