उत्तराखण्ड में 2017 और 2022 के विट्टानसभा चुनावों के परिणामों को देखें तो लगता है कि जैसे कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। पिछले दिनों चंपावत विट्टानसभा उपचुनाव में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह ट्टामी की एकतरफा जीत और कांग्रेस प्रत्याशी निर्मला गहतोड़ी की जमानत जब्त होना पार्टी की वास्तविक हालातों को बयां करने के लिए काफी है। बहरहाल जोट्टापुर चिंतन शिविर से प्रेरित उत्तराखण्ड कांग्रेस ने ‘नव संकल्प क्रियान्वयन शिविर कार्यशाला’ का कार्यक्रम बनाया है। जिसे पार्टी के वजूद को बचाने की कवायद माना जा रहा है
कांग्रेस के जोधपुर चिंतन शिविर से निकले कांग्रेस को मजबूत करने के प्रस्तावों और घोषणाओं को राज्यों में अमलीजामा पहनाने की शुरुआत कर दी है। इसी कड़ी में उत्तराखण्ड में भी नव संकल्प क्रियान्वयन कार्यशालाओं के माध्यम से कांग्रेस के राष्ट्रीय चिंतन शिविर के निष्कर्षों को जमीनी स्तर पर उतारने के लिए मंथन शुरू कर दी गई है। राज्य स्तरीय पर नव संकल्प क्रियान्वयन कार्यशाला के साथ जिला स्तर पर भी इसी प्रकार की कार्यशालाएं आयोजित की जा रही है। अपना जनाधार खोती कांग्रेस पार्टी को बूथ स्तर तक मजबूत करने की कवायद के लिए आयोजित ये कार्यशालाएं कांग्रेस को कितना मजबूत कर पाऐंगी, यह आने वाला वक्त बताएगा लेकिन उत्तराखण्ड के संदर्भ में देखें तो कांग्रेस के सामने चुनौतियों का बड़ा पहाड़ है।
चंपावत विधानसभा उपचुनाव में मुख्यमंत्री ‘पुष्कर सिंह धामी’ की एकतरफा जीत और कांग्रेस प्रत्याशी ‘निर्मला गहतोड़ी’ का चार हजार से भी कम मतों पर सिमट जाना कांग्रेस की वास्तविक हालातों को बयां करने के लिए काफी है। 2022 के विधानसभा चुनावों और चंपावत विधानसभा के उपचुनावों के बीच कांग्रेस के मतों में भारी गिरावट कांग्रेस के लिए चिंता का सबब है। कांग्रेस पार्टी के सिमटते जनाधार ने पार्टी के बड़े नेताओं पर शिकन की लकीरें खींच दी हैं। अगर उत्तराखण्ड में कांग्रेस की बात करें तो यहां शुरुआत से ही कांग्रेस मजबूत स्थिति में रही थी।
राज्य गठन के बाद भाजपा के पास राज्य बनाने का एक मजबूत नारा था लेकिन 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में बाजी कांग्रेस के हाथों में रही थी। 2007 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की पराजय जरूर हुई थी लेकिन उसके जनाधार का क्षरण उस हद तक नहीं हुआ था। 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की वापसी हुई थी। भले ही उस वक्त सत्ता की चाबी निर्दलीय विधायकों के हाथों में थी लेकिन संतुलन साधते हुए कांग्रेस ने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया था। 2012 की सरकार का समय कांग्रेस के लिए अंतर्विरोधों को उजागर होने का काल था जिसकी परिणति 2017 के विधानसभा चुनावों में महज ग्यारह सीटों पर सिमटने के रूप में हुई। 2016 में वरिष्ठ नेताओं का दल बदल कांग्रेस के लिए घातक सिद्ध हुआ जिसका दंश कांग्रेस उत्तराखण्ड में आज भी झेल रही है।
उत्तराखण्ड कांग्रेस के एक पूर्व महासचिव का कहना है कि कांग्रेस की कमजोरी है कि सत्ता के वक्त सारे मजबूत नेता सरकार का हिस्सा बनना चाहते हैं जिसके चलते संगठन में व्यापक जनाधार वाले नेताओं की कमी के चलते संगठन सरकार पर अपना दबाव नहीं बना पाती और जिस संगठन के बल पर आप सरकारें बना लेते हैं उसी संगठन को समानांतर महत्व देकर उसे सरकार का पिछलग्गू बना देने की फितरत ने कांग्रेस संगठन को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। शायद यही कांग्रेस और भाजपा में एक बड़ा अंतर है जिसके चलते भाजपा सत्ता विरोधी लहर के बावजूद उत्तराखण्ड में 2022 के विधानसभा चुनावों में फिर से सत्ता में आ गई। भाजपा की केंद्रीय राजनीति का संगठन जैसा भी हो लेकिन राज्य स्तर पर भाजपा ने अपने क्षेत्रीय क्षत्रपों को इतना मजबूत होने ही नहीं दिया कि वो संगठन से बड़ा अपना कद बना सकें। भगत सिंह कोश्यारी जरूर इसका अपवाद थे जिनकी संगठन पर मजबूत पकड़ के चलते संगठन में कद बहुत बड़ा था।
भाजपा में कोई भी नेता पूरे उत्तराखण्ड में सर्वमान्य होने का दावा नहीं कर सकता भले ही अपने दल की राजनीति में उसका नाम कितना ही बड़ा हो फिर भी वे रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, त्रिवेंद्र सिंह रावत, अजय भट्ट या मदन कौशिक हो। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के बारे में हालांकि कुछ कहना जल्दबाजी होगी। उत्तराखण्ड कांग्रेस में कहानी इसके उलट है। यहां नेता अपना कद पार्टी संगठन से ऊंचा मानते है। कांग्रेस के नेताओं ने प्रदेश की राजनीति में अपना बड़ा कद भले ही नहीं बनाया लेकिन अपनी विधानसभा क्षेत्रों के क्षत्रप बन कर प्रदेश की राजनीति में खुद के बड़ा नेता बनने की गलतफहमी जरूर पाल ली। आज उत्तराखण्ड की राजनीति में वह चाहे कांग्रेस हो या भाजपा इतने बड़े कद का कोई नेता नहीं है जो अपनी विधानसभा सीट के इतर दूसरी सीट से जीतने की ताकत रखता हो। हरीश रावत के विषय में जरूर भ्रम था लेकिन वो 2022 के विधानसभा चुनावों के बाद टूटता दिखा। 1989 के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में गुम हो गई कांग्रेस के लिए उत्तराखण्ड एक आस्था की किरण के रूप में जरूर था लेकिन 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों के परिणामों ने ग्रैंड ओल्ड पार्टी के समाने शायद अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है।
नव संकल्प क्रियान्वयन शिविर कार्यशाला उस वजूद को बचाने की कवायद है। लेकिन सवाल फिर वही कि जोधपुर चिंतन शिविर के संकल्पों को उत्तराखण्ड कांग्रेस के अंदर जमीन पर क्रियान्वित करने की इच्छाशक्ति बची है। बड़े नेताओं का आपसी टकराव, खुलकर दिखने वाले मतभेद कार्यकर्ताओं के बीच जो निराशा का भाव भर गये हैं उससे उपजी नकारात्मकता के चलते पार्टी के लिए जमीन पर काम करने वाला कार्यकर्ता आज भी बड़े नेताओं से सवाल पूछ रहा है कि सब कुछ अनुकूल होने के बावजूद 2022 में सत्ता से दूर क्यों रह गये? आम कार्यकर्ताओं का आरोप है कि बड़े नेताओं के झगड़ों के चलते पार्टी हार गई वर्ना प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य कुछ और होता। इन नवसंकल्प क्रियान्वयन शिविर के माध्यम से कार्यकर्ता नई दिशा की ओर बढ़ने के साथ अपने पुराने सवालों के जवाब भी अपने नेताओं से चाहता है। पार्टी के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष रहे एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता का कहना है कि 1998 और 2013 में भी ऐसे चिंतन शिविर आयोजित हुए थे उनका परिणाम क्या निकला? 2013 के चिंतन शिविर के बाद पार्टी 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के साथ कई विधानसभा चुनाव हार गइ। उनका मानना है कि दरअसल ये चिंतन शिविर बड़े नेताओं की अपनी असफलताओं को ढकने का एक तरीका है चिंतन के मंथन से जितनी बातें निकलकर आती है उसमें कितना अमल में आती हैं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण राज्यसभा चुनाव हैं जिसमें चिंतन शिविर के वायदे कि चुनावों में 50 प्रतिशत टिकट 50 वर्ष से कम के व्यक्तियों को दिए जायेंगे लेकिन दस प्रत्याशियों में से सिर्फ दो प्रत्याशी थे जो पचास वर्ष से कम के थे। अंत में बड़े नेताओं के हित पार्टी की नीतियों में आड़े आ ही जाते हैं।
उत्तराखण्ड में नव संकल्प क्रियान्वयन कार्यशाला का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कांग्रेस के एक पदाधिकारी का कहना है कि कांग्रेस को बूथ स्तर तक दोबारा मजबूत करना है। संगठन के ढीले जोड़ों को कसने के लिए कई बड़े नेताओं को अपनी महत्वाकांक्षाओं को ताक पर रखना होगा साथ ही सबको संतुष्ट करने की कवायद में भारी भरकम संगठन के ढांचे से बचना होगा। कांग्रेस के एक नेता का कहना है कि प्रीतम सिंह और गणेश गोदियाल के कार्यकाल में गुटों को संतुष्ट करने के फेर में उत्तराखण्ड की हर गली में कांग्रेस का प्रदेश महामंत्री का पद बंटता दिखाई देने लगा। हालांकि कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा का कहना है कि उत्तराखण्ड कांग्रेस को नेता आधारित नहीं कार्यकर्ता आधारित दल बनाना है। नेताओं का अपना महत्व है लेकिन पार्टी की जड़ें उसके कार्यकर्ता में बसती है और आज जरूरत है अपनी जड़ों की ओर लौटने की। संगठन का तार्किक रूप से पुनर्गठन, अगुवाई कर रहे नेताओं की जवाबदेही, पीढ़ीगत बदलाव अपने वैचारिक संदेश धर्मनिरपेक्षता और सदभाव को जमीनी स्तर तक पहुंचाना। संगठन को बूथ स्तर तक मजबूत करना प्राथमिक में शुमार होना चाहिए। भाजपा आज बूथ स्तर पर मजबूत होने के चलते ही मजबूत संगठन खड़ा कर पाई है। जहां तक पीढ़ीगत बदलाव की बात है इस वक्त नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य जहां अनुभवी हैं वहीं प्रदेश अध्यक्ष ‘करन माहरा’ और उपनेता प्रतिपक्ष भुवन कापड़ी युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं।
चिंतन शिविर का एक निर्णय, कि संगठन के हर स्तर पर पचास प्रतिशत प्रतिनिधि पचास वर्ष से कम उम्र के और चुनावों में भी पचास प्रतिशत प्रत्याशी पचास से कम उम्र के होंगे कांग्रेस में क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है बशर्ते उत्तराखण्ड में कांग्रेस इसे अमल में ला सके। जो पीढ़ी कांग्रेस का भविष्य है उसे भी पार्टी के निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदारी मिलनी चाहिए। कांग्रेस के एक प्रदेश सचिव का मानना है कि अब वक्त आ गया है कि अब कार्यकर्ता पार्टी के लिए तैयार हो न कि नेताओं के लिए। अभी तक होता आया है कि पार्टी के बूथ स्तर के संगठन से लेकर प्रदेश स्तर तक नेता अपने हितधारकों को ज्यादा तवज्जो देते हैं। ऐसे में संगठन के लिए कार्य करने वाला कार्यकर्ता संगठन में पद की होड़ में पीछे छूट जाता है। उत्तराखण्ड कांग्रेस के सामने जो चुनौतियां है उनमे पंचायत, निकाय चुनाव, 2024 के लोकसभा चुनाव मुंह बाए खड़े है। यहीं पर कांग्रेस के संगठन के कौशल की परीक्षा होगी। जब इस वक्त संभालेंगे तभी 2027 तक के लिए संघर्ष की स्थिति में बने रहेंगे।
उत्तराखण्ड में कांग्रेस को अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए किसी नए अन्वेषण या विश्लेषण की जरूरत नहीं है। उसे कैसे जिंदा रखना है उत्तराखण्ड का हर कांग्रेसी जानता है और कांग्रेस इस अवसर को भविष्य के लिए कितना भुना पाती है। शायद यह उसके अस्तित्व का भी सवाल है। अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए जब उत्तराखण्ड कांग्रेस के नेता 2022 विधानसभा चुनावों में सीटें 11 से 19 होने हैं, चार प्रतिशत वोट बढ़ने का जिक्र करते हैं तो कार्यकर्ता सवाल उठाते हैं कि 2017 से भाजपा सरकार के खिलाफ संघर्षों की कवायद अगर आठ सीटों तक ही बढ़ाने की थी तो फिर चुनाव के दौरान अपने चहेतों को टिकट दिलाने की इतनी जल्दबाजी क्यों की। बहरहाल, आत्ममुग्धता और हवा में राजनीति करने कांग्रेस और उसके नेताओं को जमीनी हालातों और हकीकतो को पढ़ना होगा वर्ना उसे उन्हीं हालातों का सामना करना होगा जैसा कि यूकेडी जैसे राजनीतिक दल कर रहे हैं।