उत्तराखण्ड कांग्रेस में इन दिनों भारी उथल-पुथल का माहौल है। पार्टी विट्टाायक राजकुमार के यकायक ही भाजपा में शािमल होने के बाद नाना प्रकार की चर्चाओं का बाजार गर्म हो चला है। कहा जा रहा है कि पूर्व सीएम बहुगुणा के करीबी एक अन्य विट्टाायक और गांट्टाी परिवार से जुड़े एक वरिष्ठ कांग्रेसी भी भाजपा में शामिल होने जा रहे हैं। पार्टी भीतर अपने नेताओं के पलायन को लेकर प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव के खिलाफ रोष गहरा रहा है। राजकुमार ने सीट्टो तौर पर यादव और नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह को जिम्मेदार ठहराया है। कांग्रेसी आलाकमान की समझ पर प्रश्न उठा रहे हैं कि जिस व्यक्ति के चलते कांग्रेस की 2020 के बिहार विट्टाानसभा चुनावों में भारी भद्द पिटी उस व्यक्ति को आखिर क्योंकर उत्तराखण्ड का प्रभारी बनाया गया? प्रश्न उठ रहे हैं कि यह भलि-भांति जानते हुए भी कि मुलायम सिंह यादव के शासनकाल में राज्य आंदोलनकारियों पर हुए जुल्म को प्रदेश की जनता भूली नहीं है, एक यादव को ही क्यों राज्य का प्रभार सौंपा गया
उत्तराखण्ड में कांग्रेस को परिवर्तन यात्रा में मिला जनता का प्यार और उमड़े जनसमूह से पार्टी के वरिष्ठ नेता इतरा रहे थे। परिवर्तन यात्रा के पहले फेज में पार्टी के लिए इतनी भीड़ जुटेगी यह किसी ने सोचा भी नहीं था। एक तरफ कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा तो दूसरी तरफ सत्तासीन भाजपा की जन आशीर्वाद यात्रा। दोनों में आई भीड़ और उनके उत्साह को देखकर राजनीतिक पंडित गुणा-भाग करते देखे गए। भाजपा और कांग्रेस की जनसभाओं में राजनीतिक पंडितों को जनता का ज्यादा झुकाव कांग्रेस की तरफ दिखा। हालांकि यह एंटी इन्केमबेंसी का असर है या सूबे की जनता में भाजपा के साढ़े चार साल में बदले तीन मुख्यमंत्रियों का साइडइफेक्ट है, यह तो 2022 के विधानसभा चुनाव के परिणाम ही तय कर पायेंगे। कांग्रेस में परिवर्तन यात्रा से एक उम्मीद और उत्साह का संचार हुआ। पार्टी के वरिष्ठ नेता इस सफलता का जश्न मनाने में मशगूल थे, लेकिन दूसरी तरफ पार्टी के एक विधायक कांग्रेस के ही दो नेताओं की उपेक्षा सहन कर सके और भाजपा का पल्लू थाम बैठे। कहा तो यह भी जाने लगा था कि जब से उत्तराखण्ड कांग्रेस के प्रभारी देवेंद्र यादव बने हैं, तब से पार्टी आगे बढ़ रही है। एक बार तो लगने भी लगा था कि अब कांग्रेस मिशन 2022 का सपना हकीकत बनने की राह पर है। लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि उत्तरकाशी जिले के पुरोला से कांग्रेस के विधायक राजकुमार पार्टी का दामन छोड़ने को मजबूर हुए? राजकुमार के सामने क्या मजबूरी थी कि वह ऐसे समय पर पार्टी का साथ छोड़ चले जब पार्टी का उठान उफान पर आने लगा था? राजकुमार के पार्टी छोड़ने के साथ ही सूबे की सियासत में एक बार फिर कांग्रेस की वह कमजोर कड़ी टूटी है जिसके चलते गुटबाजी और आपसी रार पार्टी को रसातल की ओर ले जाती प्रतीत हो रही हैं। कांग्रेस के विधायक राजकुमार का भाजपा में जाना कई सवाल खड़े कर गया है। पहला सवाल यह कि पार्टी आलाकमान ने दिल्ली के जिस पूर्व विधायक को प्रभारी बनाकर भेजा क्या वह अपने नेताओं की नब्ज टटोलने में नाकाम हो रहे हैं? क्या यादव को प्रभारी बना कांग्रेस आलाकमान का पार्टी को गुटबाजी से निजात दिलाने का सपना धूमिल हो रहा है। आखिर क्यों यादव पर पार्टी के एक गुट विशेष को ही प्राथमिकता देने के आरोप लग रहे हैं? क्या प्रभारी और पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रीतम सिंह पार्टी को जोड़ने के बजाय अनजाने में ही सही लेकिन तोड़ने का काम तो नहीं कर रहे हैं? यहां यह भी याद दिलाना जरूरी है कि कांग्रेस के उत्तराखण्ड प्रभारी बनने से पूर्व देवेंद्र यादव पर बिहार विधानसभा चुनावों में मिली करारी हार का धब्बा भी लगा चुका है। तब वह बिहार विधानसभा चुनाव के प्रभारी सचिव बनाए गए थे। कांग्रेस 2020 के विधानसभा चुनावों से पहले बिहार में 40 विधायकों की पार्टी हुआ करती थी। लेकिन गत वर्ष हुए विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी बिहार में 19 विधायकों तक ही सिमट गई। कांग्रेस ने बिहार में राजद के साथ हुए गठबंधन के बाद 70 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया था। लेकिन 51 सीटों पर पार्टी हार गई। तब देवेंद्र यादव पर बिहार चुनाव में मिली पराजय का आरोप लगा तथा साथ ही यह भी कहा गया कि उन्हें बिहार के राजनीतिक धतराल का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं था यही वजह रही कि राजद के अध्यक्ष तेजस्वी यादव ने कांग्रेस गठबंधन के खाते में ऐसी सीटें डाल दी थी जहां पार्टी का कोई खास जनाधार नहीं था। पार्टी प्रत्याशियों को जब ऐसे टिकटों पर चुनाव लड़ना पड़ा था जहां उसका कोई वजूद ही नहीं था। तब देवेंद्र यादव पर नौसिखिए नेता के भी आरोप लगे। कहा गया कि चुनावी प्रबंधन में वह पूरी तरह फेल हैं। ऐसे में पार्टी आलाकमान ने देवेंद्र को साइड करने के बजाय उत्तराखण्ड जैसे राज्य का प्रभारी बनाकर सबको चौका दिया था। गत् वर्ष 4 सितंबर 2020 को जब पार्टी ने मिशन 2022 की कमान देवेंद्र यादव के हाथों सौंपी तो हर कोई हतप्रभ था कि आखिर बिहार के फ्लॉप शो के मुख्य किरदार को उत्तराखण्ड का प्रभारी बनकर क्यों भेजा गया?
देवेंद्र यादव को कांग्रेस आलाकमान ने उत्तराखण्ड का प्रभारी बनाकर प्रदेश, खासकर पहाड़ के लोगों के 26 साल पुराने जख्मों को हरा करने का काम किया है। उत्तराखण्ड की जनता अभी भी 1 अक्टूबर की रात और 2 अक्टूबर का वह काला दिन नहीं भूली है जब अविभाजित उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के एक इशारे पर दर्जनों राज्य आंदोलनकारी पुलिस की गोलियों से मारे गए और महिलाओं के साथ दुष्कर्म जैसी शर्मनाक घटना घटित हुई थी। इस दिन रामपुर तिराहा कांड हुआ था जो अभी भी उत्तराखण्डी मूल के लोगों के लिए एक डरावना सपना बना हुआ है। इस दिन जिस तरह मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल में दिल्ली जा रहे निहत्थे राज्य आंदोलनकारियों पर गोलियां चलवाई गईं उससे आज भी यहां के लोगों के यादवों के प्रति रोष व्याप्त है। यहां तक कि तब यादवों को जरनल डायर की संज्ञा तक दे दी गई थी। जो अभी भी जारी है। इस रामपुर तिराहा कांड ने उत्तराखण्ड की सियासत का रुख ही पलट दिया था। मुलायम सिंह यादव उत्तराखण्ड के लिए खलनायक हो गए थे। उसके बाद लाख कोशिशों के बावजूद भी उनकी पार्टी पहाड़ों में पैर जमा ही नहीं पाई थी। हालात यह है कि आज भी यादव समाज के प्रति पहाड़ के लोगों में नाराजगी बरकरार है।
देवेंद्र यादव के प्रदेश प्रभारी बनने के बाद सल्ट में विधानसभा का उपचुनाव हुआ। इस उपचुनाव को जिताने का जिम्मा पूरी तरह देवेंद्र यादव के जिम्मे था। इस दौरान प्रदेश के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत अस्पताल में इलाज करा रहे थे। ऐसे समय में देवेंद्र यादव सल्ट में रहकर ही यह सीट जितने की चुनावी रणनीति बनाते रहे। वह इस दौरान पूरा एक पखवाड़ा सल्ट चुनाव में रहे। लेकिन आखिर में सल्ट उपचुनाव पर कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। सल्ट चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद चर्चा थी कि देवेंद्र यादव को पार्टी के प्रभारी पद से हटा दिया जाएगा। यहां तक कि यादव की परफॉर्मंेस पर तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह और नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश ने भी अपनी नाखुशी राष्ट्रीय संगठन से जताई थी। बावजूद इसके यादव अपने पद पर जमे रहे। इसके बाद 22 जुलाई को जब पार्टी आलाकमान ने उत्तराखण्ड में नई टीम गठित की तो उसमें पहली लिस्ट के चार कार्यकारी अध्यक्षों में रणजीत रावत का नाम शािमल नहीं था। हरीश रावत के सामने कार्यकारी अध्यक्षों की सूची में भुवन कापड़ी, तिलकराज बेहड़, डॉ जीतराम और राजपाल खरोला का नाम फाइनल हो चुका था। पार्टी सूत्रों की मानें तो रावत के पंजाब जाते ही प्रीतम सिंह और देवेंद्र यादव ने खेला करा दिया। राजपाल खरोला का नाम हटाकर रणजीत रावत का डाल दिया गया। यहीं से यह संदेश गया कि देवेंद्र यादव हरीश रावत के बजाय प्रीतम सिंह गुट को तरजीह दे रहे हैं। उत्तराखण्ड में कांग्रेस के अधिकतर नेता प्रदेश का अगला विधानसभा चुनाव पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के चेहरे पर लड़ने की मांग करते रहे हैं। कई विधायक और पूर्व विधायक तो यादव के सामुहिक नेतृत्व वाले बयान के विरोध में आ चुके हैं। लेकिन फिर भी यादव ने रावत को चुनावी चेहरा बनाने की मांग को अस्वीकार कर डाला।
बात करें पुरोला के विधायक राजकुमार की तो यहां यह भी बताना जरूरी है कि वह पिछले कई महीनों से पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा का शिकार चल रहे थे। बताया जा रहा है कि राजकुमार कांग्रेस छोड़कर भाजपा में नहीं जाते अगर उनकी बात सुनी जाती। सूत्र बता रहे हैं कि जब प्रीतम सिंह पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे तब विधायक राजकुमार उत्तरकाशी जिले में अपनी पसंद के तीन ब्लॉक अध्यक्ष बनवाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने प्रीतम सिंह से गुहार लगाई थी। बताया जाता है कि प्रीतम सिंह ने तब उत्तरकाशी के तीनों ब्लॉक अध्यक्ष को राजकुमार की गैर पसंद वाले बना डाले। इससे विधायक राजकुमार और प्रीतम सिंह के बीच तकरार बढ़ी। 23-24 अगस्त को विधानसभा सत्र के दौरान विधायक राजकुमार नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह के जरिए सदन में प्रश्न उठवाना चाहा। लेकिन बताया जा रहा है कि प्रीतम सिंह द्वारा राजकुमार के द्वारा बताए गए प्रश्नों को सदन में नहीं उठाया था। इसके बाद से ही राजकुमार पार्टी से खफा चल रहे थे। पार्टी सूत्रों की मानें तो प्रदेश के प्रभारी देवेंद्र यादव के असहयोग ने राजकुमार की ओर भी उग्र किया। सूत्रों के अनुसार राजकुमार पार्टी प्रभारी यादव से मिलकर अपनी बाते उनके समक्ष साझा करना चाहते थे लेकिन यादव ने उन्हें अपनी बात रखने का मौका ही नहीं दिया। मीडिया में इस बात की हवा पहले कई दिनों से चल रही थी कि पुरोला के विधायक राजकुमार पार्टी छोड़ सकते है। लेकिन पार्टी प्रभारी ने मीडिया की खबरों को गंभीरता से नहीं लिया। पार्टी के नेताओं का कहना है कि अगर इस दौरान विधायक राजकुमार से पार्टी प्रभारी द्वारा बात कर उनकी नाराजगी दूर कर दी जाती तो शायद वह कांग्रेस छोड़ कर भाजपा की शरण में न जाते। पार्टी प्रभारी की अपने विधायकों और नेताओं की नाराजगी को गंभीरता से न लेने का ही परिणाम है कि 11 में से एक विधायक विपक्षी दल में चला गया। इसके जरिए फिलहाल भाजपा यह संदेश देने का भी काम कर रही है कि कांग्रेस के नेता आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा का पलड़ा भारी होने के चलते उनकी पार्टी में आ रहे हैं।
गौरतलब है कि 2014 के लोकसभा चुनावों से पूर्व भी भाजपा जनता के बीच ऐसा संदेश देने में कामयाब रही थी कि कांग्रेस में हार के डर से उनकी पार्टी के नेता भाजपा में जा रहे हैं। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा अपने इसी छुपे एजेंडे से कांग्रेस को कमजोर करने में जुट गई है। पुरोला विधायक राजकुमार का कांग्रेस छोड़ भाजपा में जाना यह साबित भी करता है। इसी के साथ ही कांग्रेस में चर्चाओं का बाजार गर्म है। कहा जा रहा है कि राजकुमार के बाद गढ़वाल से एक विधायक जो पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के करीबी बताए जाते हैं जल्द ही कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो सकते हैं। इसके अलावा पार्टी के एक पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और विधायक रह चुके नेता भी भाजपा में शामिल हो सकते हैं। कुल मिलाकर देवेंद्र यादव की कार्यशैली के चलते आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को नुकसान होने की आशंका बढ़ने लगी है।
राजकुमार जी भाजपा से 2017 में कांग्रेस में उस समय आए थे जब उन्हें बीजेपी ने टिकट नहीं दिया। अब शायद भाजपा ने टिकट का लालच दिया होगा तो वह वहां चले गए। उन्हें अपना चुनाव लड़ने का मतलब सिद्द करना है जो पहले कांग्रेस से किया। अब बीजेपी से कर लेंगे। चुनावों से सिर्फ तीन माह पूर्व ही पार्टी छोड़कर जाना यही सिद्द करता है कि वह चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस में आए और अब चुनाव लड़ने के लिए बीजेपी में गए। ऐसे लोग आते-जाते रहते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है पार्टी को। जो अब वह पार्टी के नेताओं के खिलाफ या पार्टी के खिलाफ बात कर रहे हैं, यह कोई नई बात नहीं है। पार्टी छोड़ने के बाद हर कोई ऐसे ही बोलता है। जब वह पार्टी में रहते हैं तब उन्हें पार्टी में कोई कमी नहीं दिखती है। जब पार्टी छोड़ देते हैं, सब कमी दिखने लगती है। मुझसे राजकुमार जी ने कोई सवाल सदन में उठाने की बात नहीं कही थी और रही ब्लॉक अध्यक्षों की नियुक्ति की बात, वह तो जिलाध्यक्ष के अधिकार क्षेत्र का मामला होता है। जिला अध्यक्ष भी वही हैं जो कभी किशोर उपाध्याय के कार्यकाल में था। हमारी पार्टी लगातार आगे बढ़ रही है।
-प्रीतम सिंह, नेता प्रतिपक्ष
कांग्रेस में मेरी कोई बात नहीं सुनी जाती थी। प्रीतम सिंह ने हमको और हमारे समाज को सदा हाशिए पर रखा। प्रदेश प्रभारी तो हमसे बात ही नहीं करते थे कभी। प्रीतम सिंह ने कभी हमसे तालमेल नहीं बनाया। वह सदा ही हमसे अलग चलते रहे। कांग्रेस में प्रीतम सिंह के प्रदेश अध्यक्ष रहते पार्टी का जनाधार घटा। वह अपनी मनमानी से संगठन को चलाते रहे। यही वजह है कि उन्होंने कांग्रेस संगठन में कोई बदलाव तक नहीं किया। जबकि हम चाहते थे कि पार्टी में अच्छे लोग आएं इस पार्टी में अनुसूचित जाति, जिससे हम आते हैं, उनकी कोई वैल्यू नहीं है। पार्टी हमारे समाज को पंगु बनाने का काम करती रही। अब हमें बीजेपी में जाने का मौका मिला है। वहां अंतिम पायदान पर खड़े आदमी की भी बात सुनी जाती है। हालांकि कांग्रेस में हरीश रावत एक सुलझे हुए नेता हैं। मैं आज भी उनका सम्मान करता हूं। उन्होंने ही मुझे 2017 में कांग्रेस से टिकट दिलाकर मुझे मौका दिया था।
-राजकुमार, विधायक पुरोला