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Uttarakhand

लालकुआं में निहित है हरदा के साथ कांग्रेस का भविष्य

 

  • नवीन बिष्ट, वरिष्ठ पत्रकार

 

एक बात जो बिना किसी लाग-लपेट कही जानी चाहिए कि उत्तराखण्ड में हरीश रावत को लेकर कांग्रेस है, न कि कांग्रेस को लेकर हरीश रावत। उनके बिना उत्तराखण्ड में कांग्रेस कैसी होगी कहा नहीं जा सकता है। पार्टी और प्रदेश की कमान संभाल चुके हरीश रावत अभी सबसे मजबूत चेहरे हैं। रावत ने अपनी पार्टी में ही कई भस्मासुरों को वरदान देकर शिवाजी वाली भाजा-भाज की स्थिति जनित की है। ऐसे में हर बार उन्हें भगवान विष्णु की तरह मोहनी रूप धारण कर भस्मासुर से मुक्ति दिलाने वाले तारनहार की दरकार होती रही है। आशुतोष की तरह आंख बंद कर वरदान देने की उनकी प्रवृति ने उन्हें झंझावतों में धकेला है, लेकिन भोले बाबा की तरह क्षणे तुष्टे हो वर देने से लगता नहीं कि सबक लिया हो

 

यूंतो देश के पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव पर भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा सहित तमाम क्षेत्रीय दल अपने-अपने वर्तमान व भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं। साम-दाम, दण्ड-भेद सारे हथकंडे आजमाने का कोई मौका नहीं चुकेंगे। इसी क्रम में बात करते हैं उत्तराखण्ड के विधानसभा चुनाव 2022 की। इस बार का चुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण होने जा रहा है। कहने को तो सभी राजनीतिक दलों की नजर हर एक प्रत्याशी के विधानसभा क्षेत्र की हर हलचल पर बनी रहती है। कुछ सीटें ऐसी होती हैं जिन पर पार्टी का दारोमदार होता है। ऐसी ही सीट है नैनीताल जिले की लालकुआं विधानसभा, जिस पर कांग्रेस ने चुनाव संचालन समिति के प्रमुख एवं पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को उम्मीदवार बनाया है। चुनावी गणितज्ञों की माने तो कांग्रेस पार्टी प्रदेश में धनात्मक दिशा की ओर बढ़ रही है। इस बयार को कितना भुनाने में कामयाब होती है कांग्रेस, यह देखने वाली बात है।

एक बात जो बिना किसी लाग-लपेट कही जानी चाहिए कि उत्तराखण्ड में हरीश रावत को लेकर कांग्रेस है न कि कांग्रेस को लेकर हरीश रावत। हरीश रावत के बिना उत्तराखण्ड में कांग्रेस कैसी होगी कहा नहीं जा सकता है। पार्टी और प्रदेश की कमान संभाल चुके हरीश रावत अभी सबसे मजबूत चेहरे हैं। रावत ने अपनी पार्टी में ही कई भस्मासुरों को वरदान दे कर शिवजी वाली भाजा-भाज की स्थिति जनित की है। ऐसे में हर बार उन्हें भगवान विष्णु की तरह मोहनी रूप धारण कर भस्मासुर से मुक्ति दिलाने वाले तारनहार की दरकार होती रही है। आशुतोष की तरह आंख बंद कर वरदान देने की उनकी प्रवृति ने उन्हें झंझावतों में धकेला है, लेकिन भोले बाबा की तरह क्षणे तुष्टे हो वर देने से लगता नहीं कि सबक लिया हो। अपनी पुस्तक ‘मेरा जीवन लक्ष्य उत्तराखण्डियत’ में वे स्वयं इसे स्वीकारते हुए लिखते हैं ‘कभी-कभी जब मैं 2016 की स्थितियों पर गहन चिंता करता हूं तो अनेक ख्याल एवं सोच मेरे मानस पटल पर आती हैं और जाती हैं। मगर एक चुभन बार-बार उभरती है, यह कटु चुभन है, गैरसैंण में दो सत्रों के दौरान, सरकार गिराए जाने की पुष्ट खबरों से बेखबर रहना। यह एक बड़ी भूल थी। जब लोग मुझे वरिष्ठ, अनुभवी राजनीतिक व्यक्ति की संज्ञा देते हैं, मैं अपने आप पर हंसता हूं। मेरे स्थान पर यदि कोई साधारण राजनेता होतातो उसे इन खतरनाक संकेतों के बाद समझ जाना चाहिए था, आगे क्या होने जा रहा है। जितने दिन की बादशाहत थी, अपना सिक्का चला देना चाहिए था।

कभी-कभी सोचता हूं, क्या अच्छा है, क्या तर्कसंगत है, इसमें सर खपाने के बजाय, तुम्हें अपने मन का निर्णय थोप देना चाहिए था। मोम्मदबीन तुगलक ने भी ऐसा निर्णय लिया था और सारा राजपाठ लेकर दौलताबाद चल पड़ा था। अच्छा, स्वस्थ्य, राजनीतिक निर्णय था, दिल्ली पर बार-बार वाह्य आक्रमण होते थे, दौलताबाद दूर था। आक्रमणकारी वहां पहुंचने तक रास्ते में ही मर-खप जाते। कदम अच्छा उठाया, मगर व्यावहारिक नहीं थ। इसके बावजूद तुगलकी फरमान हमेशा के लिए अमर हो गया। मैं भी अमर हो जाता। मैंने अपनों से धोखा खाया। अपने लोगों पर बड़ा भरोसा कर लिया।’ इस बार भी यही हुआ पूर्व नियोजित उनकी योजना पर उनके ही परम भक्त ने उन्हें भागने पर विवश कर दिया। मजेदार बात यह है कि बिना एक दूसरे से सलाह मशविरे के गुरु-चेले ने एक ही विधानसभा से ताल ठोकने का ऐलान कर दिया। दोनों ने पिछले लंबे अर्से से अपने को केंद्रित कर जमीन तैयार की थी, वहीं से दोनों बेदखल हो गए। परिणामतः अंतिम समय पर कांग्रेस के पुरोधा एवं खेवनहार हरीश रावत को चुनावी रण में लालकुआं भेज दिया गया, जहां की जटिलता ने उन्हें असहज स्थिति में डाल दिया। इस जटिलता को सरल करने का मेहनत तो जी-तोड़ करनी होगी तभी यहां पर विजय पताका कांग्रेस के हरीश रावत फहराने में कामयाब हो सकते हैं, यदि यहां कांग्रेस चूकी, तो उत्तराखण्ड कांग्रेस के अस्तित्व को लेकर बड़ा सवाल खड़ा हो सकता है। उत्तराखण्ड की जीत-हार का असर पूरे प्रदेश की राजनीति को ही नहीं, देश की राजनीति को प्रभावित करेगा। यह चुनाव 2024 के लोकसभा चुनाव को भी दिशा देने वाला साबित होगा।

बहरहाल, यहां बात सही है कि उत्तराखण्ड में हरीश रावत की कदकाठी का राजनेता नहीं है। हाल के सालों में इसकी कोई उम्मीद नहीं दिखाई देती क्योंकि दूसरी पंक्ति की लीडरशिप के लिए कांग्रेस के पास भी दूसरा चेहरा फिलवक्त नहीं दिखाई देता है। भाजपा सहित दूसरे दलों के पास हरीश रावत की कद का नेता नहीं है। जीत-हार को लेकर बात करते हैं तो यहां पर कई दिग्गज नेताओं एवं राजनीतिक दलों के भविष्य के लिए निर्णायक साबित होने जा रहा है यह चुनाव।
रही बात लालकुआं विधानसभा सीट की तो राजनीतिक सुरों के आरोह-अवरोह तय करेंगे कि हरीश रावत जैसा लीडर जो उत्तराखण्ड के लिए जरूरी है या नहीं लालकुआं के लोग इस बात को कितना समझ पाते हैं। उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के दिग्गज नेता हरीश रावत की हार-जीत कई राजनीतिक मायनों के अर्थ व्याख्या करने वाली साबित होगी। लालकुआं विधानसभा क्षेत्र में हरीश रावत के मुकाबले भाजपा से डॉ. मोहन सिंह बिष्ट, आप से चंद्र शेखर पांडे, सपा से मनोज कुमार पांडे, बसपा से पृथ्वीपाल सिंह रावत, निर्दलीय संध्या डालाकोटी, निर्दलीय पवन चौहान, कुंदन मेहता, नवीन पंत नाभादास, यशपाल आर्या, विरेंद्र पूरी, भाकपा माले से बहादुर सिंह जगी, आरपीआई से राम सिंह चुनाव मैदान में हैं। हरीश रावत को जहां अपनी ही पार्टी की विद्रोही संध्या डालाकोटी से लड़ना है तो भाजपा जैसी साधन संपन्न पार्टी के उम्मीदवार डॉ. मोहन सिंह बिष्ट से मुकाबला है।

इस सीट पर उत्तराखण्ड के सुदूर गांव के ऐसे ग्रामवासी जिसका दलगत राजनीति से कोई सरोकार नहीं है, से लेकर भारत जैसे विशाल देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी दृष्टि टिकी है। 2017 के चुनाव की याद करें तो याद होगा कि वह चुनाव मोदी बनाम हरीश रावत हो गया था, इस बात की तस्दीक तत्कालीन बड़े अखबारों ने ही नहीं एनडीटीवी जैसे टीवी चैनलों ने भी की थी। उत्तराखण्ड के जनसरोकारों की पैरवी करने के लिए हरीश रावत का जीतना जरूरी है। यदि हरीश रावत हारते हैं तो निश्चित जानिए कि राज्य की जनता एक अच्छा पैरोकार खो देगी। दलगत राजनीति से उठ कर हम सोचें तो राज्य की जनता को हरीश रावत जैसे पैरोकार की आने वाले पांच सालों तक गहन दरकार है।

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