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Uttarakhand

सर्वदलीय समिति के सहारे कांग्रेस

प्रदेश में भाजपा को विधानसभा चुनाव में लगातार दूसरी बार मिली बड़ी सफलता से कांग्रेसी खेमे में मायूसी इस कदर व्याप्त है कि पार्टी को एक साल में अब दूसरी बार सत्तापक्ष के विरुद्ध आवाज बुलंद करने के लिए छोटे दलों का सहारा लेना पड़ रहा है। पिछले साल जुलाई माह में भी कांग्रेस सर्वदलीय समिति का गठन करके ऐसा ही प्रयोग कर चुकी है। फिलहाल इस गठबंधन के बल पर पार्टी को उम्मीद है कि धामी सरकार के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन में संयुक्त विपक्ष के माध्यम से आक्रमण को धार दी जा सकेगी। हालांकि इस कसरत के बावजूद कांग्रेस अभी तक बसपा और आम आदमी पार्टी को अपने खेमे में नहीं ला सकी है। कर्नाटक चुनाव में मिली सफलता के बाद कांग्रेस के मुखिया ‘मिशन 2024’ को लेकर बेशक उत्साहित हैं लेकिन पार्टी के दिग्गज उनके साथ नजर नहीं आ रहे हैं

उत्तराखण्ड की विपक्षी पार्टी कांग्रेस अपने जन मुद्दों को जनता के सामने ले जाने के लिए सक्षम नजर नहीं आ रही है। वह इतना कमजोर हो चुकी है कि सत्ताधारी दल भाजपा से मुकाबला करने के लिए उसे अब अन्य विपक्षी दलों का साथ लेना पड़ रहा है। गौर करने वाली बात यह है कि कांग्रेस ने प्रदेश के जिन राजनीतिक दलों को अपने साथ एक मंच पर लाने के लिए हाथ बढ़ाया है उनका जनाधार मात्र इतना है कि वे राजनतीतिक दल के रूप में प्रदेश की राजनीति में अपने आप को बचाए हुए हैं, जबकि इन दलों के पास न तो अपना कोई संगठन है और न ही इनके पास कार्यकर्ताओं का ऐसा हुजूम है जो कि जनता के असल मुद्दों को सरकार के सामने उठा सके। बावजूद इसके कांग्रेस को लगता है कि विपक्षी एकता के सहारे वे प्रदेश में भी भाजपा को मात देने में सफल होंगे। गत वर्ष भी कांग्रेस जुलाई माह में ऐसा प्रयोग कर चुकी है। कांग्रेस में इस समय कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मिली सफलता से उत्साह है जिसे वह 2024 के लोकसभा चुनाव तक कायम रखने की तैयारी में है।

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा द्वारा उत्तराखण्ड के कई राजनीतिक दलों को एक साथ एक मंच में लाने के लिए कांग्रेस भवन में एक बैठक की गई जिसमें उक्रांद, सीपीआई, सीपीआई एमएल, उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी और सीआईजीटी तथा जनता दल सेक्यूलर के पदाधिकारियों ने हिस्सा लिया। इस बैठक में कांग्रेस के साथ-साथ सभी राजनीतिक दलों द्वारा भाजपा पर प्रदेश में सांप्रदायिक माहौल खराब करने और ध्रुवीकरण की राजनीति करने का आरोप लगाते हुए जनता तक भाजपा सरकार के असली इरादों को ले जाने पर जोर दिया गया। साथ ही प्रदेश में बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार, महिला उत्पीड़न जैसे ज्वलंत मुद्दों से सरकार द्वारा जनता का ध्यान हटाने के लिए राज्य में सांप्रदायिक माहौल को बिगाड़ने का काम करने का आरोप लगाया। इसी के साथ सरकार के खिलाफ जनता को जागरूक करने का भी निर्णय लिया गया। इसके लिए हर महीने एक बैठक करने और एक्शन प्लान समिति का भी गठन किए जाने का निर्णय लिया गया। हालांकि राजनीति में इस तरह के प्रयोग हर चुनाव में देखे जाते रहे हैं जिसमें समान विचारधारा की राजनीति करने वाले दल एक मंच में एकत्र होते रहते हैं। इसलिए यह कोई नई बात नहीं है, जो प्रदेश में कांग्रेस पहली बार कर रही है। पूर्व में विधानसभा चुनावों के समय और बाद भी कांग्रेस एवं अन्य राजनीतिक दल सत्ता के खिलाफ एक साथ खड़े हुए हैं। वे सभी एक स्वर में सत्ता के खिलाफ बड़े-बड़े आंदोलन में अपनी भागीदारी निभाते रहे हैं। ज्यादातार मामलों में कांग्रेस पार्टी ही ऐसे राजनीतिक दलों का नेतृत्व करती रही है और मौजूदा समय में भी प्रदेश कांग्रेस ही करने का प्रयास कर रही है जिसका राजनीतिक असर कितना होगा यह अभी से कहा नहीं जा सकता। लेकिन जानकार इसे प्रदेश कांग्रेस में पनप रही हताशा और निराशा का ही असर बताते हुए कह रहे हैं कि आज कांग्रेस फिर से अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करने का प्रयास कर रही है।

उत्तराखण्ड में विगत 6 वर्षों से कांग्रेस सत्ता से बाहर ही रही है। यहां तक कि पंचायत और निकाय चुनाव में भी कांग्रेस भाजपा से उन्नीस ही रही है। इसके कारण कांग्रेस के नेताओं में एक तरह का निराशा का भाव पैदा हो चुका है। जिसका असर उसके जमीनी कार्यकर्ताओं पर भी पड़ा है। साथ ही कांग्रेस के बड़े नेताओं की लगातार हो रही चुनावी हार के बावजूद आपसी गुटबाजी के बढ़ने से भी कांग्रेस अपने ही मुद्दों को जनता के सामने सही तरीके से नहीं रख पा रही है। जबकि राज्य में कई ऐसे बड़े मामले सामने आ चुके हैं जिसमें भाजपा सरकार को घेरने के लिए कांग्रेस के सामने बड़े अवसर आए तब भी सत्ता के खिलाफ कांग्रेस एक बड़ी रुकावट नहीं बन पाई।

फिलहाल कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बड़े बहुमत से सत्ता मिली है। जिसके चलते कांग्रेस में एक नया उत्साह और नई ऊर्जा है जिसको प्रदेश में 2024 के चुनाव तक बरकरार रखने की चुनौती प्रदेश कांग्रेस संगठन के कंधों पर आ गई है। लेकिन प्रदेश में कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति का दुष्प्रभाव इस नई ऊर्जा और उत्साह को कांग्रेस किस तरह से लोकसभा चुनाव तक बनाए रखती है यह कांग्रेस के बड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं को अभी से ही सताने लगा है। राजनीतिक जानकारों की मानें तो राज्य के विपक्षी दलों को कांग्रेस के मंच तक लाने के पीछे कांग्रेस की नई रणनीति है जिस पर कांग्रेस आने वाले समय में काम करती नजर आएगी।

कांग्रेस के खास तौर पर प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा की विपक्षी दलों को एक साथ एक मंच पर लाने की रणनीति कितनी सफल होगी इसका अंदाजा तो अभी से नहीं लगाया जा सकता लेकिन इसका क्या असर होगा यह तो कहा ही जा सकता है। जिस तरह से आज भी कांग्रेस के भीतर बड़े नताओं में एक-दूसरे से आगे निकलने और एक-दूसरों को नीचा दिखाने की राजनीति चल रही है उससे तो नहीं लगता कि करण माहरा का यह प्रयोग 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की नैया पार लगाने मे सक्षम होगा। आज भी कांग्रेस के बड़े नेताओं ने एक-दूसरे के कार्यक्रमों से दूरी बनाए रखने का चलन छोड़ा नहीं है। स्वयं करण माहरा द्वारा आयोजित सर्वदलीय बैठक में कई बड़े कांग्रेसी नेताओं की गैर हाजिरी रहती है। इससे यह भी दिखता है कि आज भी प्रदेश कांग्रेस में सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है और न ही इसे दुरुस्त करने का प्रयास किया जा रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह के साथ-साथ अनेक वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं द्वारा प्रदेश अध्यक्ष द्वारा आयोजित की गई इस बैठक में नहीं आना भी कई सवाल खड़े कर रहा है। यहां तक कि कई ऐसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जो आज भी कांग्रेस में अपनी भूमिका को बनाए रखने की जद्दोजहद कर रहे हैं वे भी कार्यक्रमों से नदारद रहते हैं। इसमें ज्यादातर यह बात सामने आती है कि ऐसे नेताओं को समय पर सूचना तक नहीं दी जाती जिस कारण वे पार्टी के कार्यक्रम में शामिल नहीं हो पाते हैं।

अब उन राजनीतिक दलों की बात करें जो कांग्रेस के साथ एक मंच पर खड़े होकर सरकार के खिलाफ कांग्रेस का साथ देने की बात कर रहे हैं तो उनमें एक भी ऐसा राजनीतिक दल नहीं है जिसकी पंचायत, निकाय या विधानसभा चुनाव में कोई हैसियत रही हो। जबकि प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस को आइना दिखाने वाली आम आदमी पार्टी को कांग्रेस अपने साथ जोड़ने से परहेज कर रही है। यह समझ से परे है। आज भी बसपा राज्य में तीसरी राजनीतिक ताकत मानी जाती है और खास तौर पर हरिद्वार तथा उधमसिंह नगर जिले में बसपा का अपना एक बड़ा जनाधार और वोट बैंक है। हालांकि पिछले कई चुनावों में बसपा का जनाधार खिसका है लेकिन अपनी राजनीतिक ताकत से वह आज भी प्रदेश में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी का तमगा अपने नाम किए हुए है।

आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से 2022 के विधानसभा चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है उससे इस पार्टी को भी प्रदेश में चौथी बड़ी पार्टी होने से इनकार नहीं किया जा सकता। यह जरूर है कि आम आदमी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई लेकिन 70 सीटों पर उसने अपनी ताकत का अहसास भाजपा और कांग्रेस दोनों को जिस तरह से करवाया है उसको देखते हुए यह तो कहा ही जा सकता है कि आने वाले समय में आप भले ही प्रदेश की राजनीति में बड़ा विकल्प न बन पाए लेकिन कांग्रेस और भाजपा के लिए एक बड़ी राजनीतिक चुनौती तो बन ही सकती है।

इसके विपरीत कांग्रेस अपने साथ ऐसे राजनीतिक दलों को जोड़ रही है जिनका प्रदेश की राजनीति में कोई मजबूत जनाधार तो छोड़िए उनके क्षेत्रीय नेताओं तक का अपना राजनीतिक वजूद नहीं है। अगर उक्रांद को छोड़ दिया जाए तो यह भी सच है कि हर अन्य किसी भी दल के पास अपना प्रदेश में सांगठनिक ढांचा तक नहीं है। केवल प्रदेश अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के साथ साथ महामंत्री और समन्वयक जेसे पदों और अन्य पदों के पदाधिकारियों के ही नाम के चलते ही इन राजनीतिक दलों की पहचान बनी हुई है। कार्यकर्ताओं के नाम पर पदाधिकारियों का ही एक समूह है जो इन दलों को राज्य में बनाए हुए है। ऐसे में बिना पतवार की नाव में सवार हो कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनावों की नैया कैस पार लगाएगी?

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