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Uttarakhand

त्रिवेंद्र के कंधों पर सवार कांग्रेस

उत्तराखण्ड कांग्रेस यह मान रही है कि मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की कमजोरी विधानसभा चुनाव में उसकी मजबूती का कारण बनेगी। पार्टी के नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने की संभावनाएं देख रहे हैं। लेकिन वे भूल रहे हैं कि कहीं उनकी आपसी खेमेबाजी के चलते ‘सूत न कपास जुलाहों में लठ्म-लठा’ वाली कहावत न चरितार्थ हो जाए। उन्हें देखना होगा कि हरियाणा में जिन मनोहर लाल खट्टर को बेहद कमजोर माना जा रहा था, वे 2019 के विधानसभा चुनाव में कैसे फिर सत्ता में लौट आए

  • संजय स्वार

उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव के लिए अब एक वर्ष से भी कम का समय बचा है। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, उत्तराखण्ड क्रांति दल और आप समेत तमाम अन्य पार्टियां अपने भविष्य की रणनीति बनाने में जुट गई हैं। जहां एक ओर भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बंशीधर भगत हर विधानसभा क्षेत्र में जाकर कार्यकर्ताओं से सीधा संवाद कर रहे हैं, वहीं कांग्रेस भी सरकार के खिलाफ विभिन्न मुद्दों को लेकर सड़कों पर प्रदर्शन कर रही है। कांग्रेस इस नाजुक मौके पर दोहरी लड़ाई में व्यस्त है। कांग्रेस का आम कार्यकर्ता पार्टी को सत्ता में लाने के लिए सरकार के खिलाफ सड़कों पर है, आला नेताओं की लड़ाई भी सड़कों पर है। सड़क पर कार्यकर्ता और नेता दोनों हैं, लेकिन दोनों की प्राथमिकताएं अलग हैं। जहां कार्यकर्ता की प्राथमिकता कांग्रेस की सरकार लाना है, तो आला नेताओं की प्राथमिकता चुनाव से पहले एक-दूसरे को निपटाना है। जिससे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर उनका दावा कमजोर न पड़ जाए। साफतौर पर ‘न सूत न कपास जुलाहों में लट्ठम-लठा’ वाली हालत है।

त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार की कथित विफलताओं में अपनी संभावनाएं देख उत्तराखण्ड कांग्रेस के नेता अति आत्मविश्वास से लबरेज और आत्ममुग्ध हैं। इसी आत्ममुग्धता के बीच कई ऐसी खबरें उड़ीं और मुद्दे उठे जिनसे पार्टी के अंदर या कहें आम जनता के बीच भ्रम की स्थिति पैदा हुई। राजनीतिक हलकों में एक खबर अचानक ही फैलती नजर आई कि कांग्रेस का एक बड़ा नेता जल्द ही भाजपा का दामन थाम सकता है। उसके एवज में तीन विधानसभा सीटें और राज्यपाल का पद चाहा गया है। हालांकि इस खबर की सच्चाई की पुष्टि नहीं हो सकी है, लेकिन भाजपा के एक बड़े नेता से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर करते हुए कहा कि हमारी पार्टी में राष्ट्रीय स्तर या प्रदेश स्तर पर नेता के कद को देखते हुए बात होती है। अगर ऐसा है तो उन नेता के कद के अनुरूप बात चल रही होगी। ये राष्ट्रीय स्तर का मामला हो सकता है। शायद राजनीति का यही विरोधाभासी चरित्र है। राजनीति का स्थापित स्थाई चरित्र है कि यहां कुछ भी स्थाई नहीं है।

जिस अहम मुद्दे ने कांग्रेस की राजनीति में हलचल पैदा की वो पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने उठाया कि ‘‘आगामी विधानसभा चुनाव पार्टी का एक चेहरा आगे रखकर लड़ा जाना चाहिए फिर वो चाहे प्रीतम हों, इंदिरा जी हों या फिर कोई भी। मैं उनके पीछे खड़ा हूं।’’ हालांकि उनके इस प्रस्ताव से प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव, प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह और नेता प्रतिपक्ष डाॅ इंदिरा हृदयेश ने सहमति नहीं जताई। प्रीतम सिंह जहां अपनी असहमति जताने से ज्यादा आगे नहीं बढ़े वहीं इंदिरा हृदयेश ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया देने में देर नहीं लगाई। उन्होंने हरीश रावत को याद दिलाया कि 2017 का विधानसभा चुनाव उन्हीं के चेहरे पर लड़ा गया था और कांग्रेस 11 सीटों पर आ गई थी। खुद भी वे दोनों सीटों पर हार गये थे। इसलिए इस बार का विधानसभा चुनाव सामूहिक नेतृत्व में लड़ा जाएगा। इस बार खास बात ये थी कि उपनेता प्रतिपक्ष करन माहरा भी नेता प्रतिपक्ष के सुर में सुर मिलाते नजर आए। कांग्रेस के एक बड़े नेता का कहना है कि इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि इस बार का चुनाव प्रीतम सिंह की कप्तानी में हो रहा है तो मुख्यमंत्री का स्वाभाविक चेहरा वहीं हैं।

उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद देखें तो यहां का राजनीतिक परिदृश्य बदला है, उत्तर प्रदेश के समय 19 सीटों से विधानसभा में प्रतिनिधित्व देने वाला ये पर्वतीय क्षेत्र राज्य बनने के बाद 70 विधानसभा क्षेत्रों से अपने विधायक चुनता है। नए राज्य ने उन लोगों के लिए अपार संभावनाएं खोल दी जो उत्तर प्रदेश के समय ज्यादा पाने की संभावना नहीं देख पाते थे। कांग्रेस भाजपा सहित सभी राजनीतिक संगठनों के लिए संभावनाएं अब बढ़ गई हैं, लेकिन कांग्रेस के अंदर गुटबाजी का जो दौर राज्य बनने के बाद से शुरू हुआ था वो निरंतर जारी है। भले ही बदलते समय के साथ निष्ठाएं बदली हों, लेकिन गुटबाजी जारी है। कभी हरीश रावत के खासमखास समझे जाने वाले प्रीतम और रंजीत रावत आज एक गुट में हैं, वहीं कभी तिवारी गुट के माने जाने वाले गणेश गोदियाल, मदन बिष्ट क्षेत्रीय मजबूरियों के चलते ही सही हरीश रावत के साथ हैं।

उत्तराखण्ड पृथ्क राज्य बनने के बाद से दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में स्वाभाविक नेतृत्व विकसित होने ही नहीं दिया गया। भारतीय जनता पार्टी की अंतरिम नेतृत्व वाली सरकार में भगत सिंह कोश्यारी के स्थान पर नित्यानन्द स्वामी को प्राथमिकता मिली, जबकि 2002 का विधानसभा चुनाव हरीश रावत के प्रदेश अध्यक्ष रहते लड़ा गया, लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में कांग्रेस हाईकमान ने नारायण दत्त तिवारी पर भरोसा जताया। इस पर बहस हो सकती है कि नारायण दत्त तिवारी को उत्तराखण्ड का मुख्यमंत्री बनाया जाना समग्र हित में था। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि 2002 का चुनाव हरीश रावत के नेतृत्व में ही लड़ा गया था। 2012 के विधानसभा चुनाव के वक्त प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य थे जिनके नेतृत्व में पार्टी ने जीत हासिल की थी। कहा तो यहां तक जाता है कि पार्टी आलाकमान ने मुख्यमंत्री के रूप में यशपाल आर्य को नामित करने का मन बना लिया था, लेकिन अंतिम क्षणों में निर्णय विजय बहुगुणा के पक्ष में हो गया। 2017 के विधानसभा चुनाव में वैसे तो प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय थे, लेकिन क्योंकि सरकार का चेहरा हरीश रावत थे इसलिए हार का ठीकरा उन्हीं पर फोड़ा गया। रही- सही कसर उनकी किच्छा और हरिद्वार (ग्रामीण) से हुई हार ने पूरी कर दी। कांग्रेस के एक वरिष्ठ विधायक का कहना है कि किसी की हार को बार-बार स्मरण कराकर आप किसी को ऐसे अपमानित कैसे कर सकते हैं जबकि हार का स्वाद आपने भी चखा हो। उनका कहना है कि राजनीति में अपने और दूसरे के लिए पैमाने अलग -अलग कैसे हो सकते हंै। आज जो प्रीतम सिंह को प्रदेश अध्यक्ष के नाते स्वाभाविक चेहरा मान रहे हैं उनकी यही नैतिकता 2002 में हरीश रावत और 2012 में यशपाल आर्य के लिए कहां थी? इसी दोहरी मानसिकता ने कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया है।

राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की सांगठनिक कमजोरी का असर उत्तराखण्ड के गठन पर भी पड़ा है। 2017 मंे प्रीतम सिंह ने प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभालने के बाद 2020 में अपनी कार्यकारिणी का गठन किया। उस जम्बो कार्यकारिणी के गठन के बाद विवाद अधिक बढ़े। नए प्रभारी देवेंद्र यादव से पूर्व के प्रभारी के समय उत्तराखण्ड कांग्रेस भगवान भरोसे ही थी। जिस वक्त संगठन को मजबूत करने की कवायद होनी चाहिए थी, उस समय प्रभारी स्वयं एक गुट की धुरी भर बनकर रह गये थे। उस वक्त संगठन का ढांचा खड़ा करने का प्रयास किया गया होता तो आज कांग्रेस संगठन भाजपा का मुकाबला करने में सक्षम होता। हालांकि कांग्रेस ने कभी अपने को सांगठनिक रूप से मजबूत करने का प्रयास नहीं किया। बड़े नेताओं ने अपने क्षेत्र में अपनी सुविधानुसार नेताओं को पदों से नवाजा जो पार्टी के प्रति समर्पित हों या न हों, लेकिन उसकी निष्ठा अपने नेता के लिए होनी चाहिए। ये परंपरा वर्तमान में ही नहीं है, बल्कि पूर्व में जब यशपाल आर्य प्रदेश अध्यक्ष थे उस वक्त उनके अल्मोड़ा जिला भ्रमण के दौरान हरीश रावत गुट के नेताओं ने उनके कार्यक्रम को असफल बनाने का पूरा प्रयास किया था। अपने नेताओं के अनुरूप पार्टी कार्यकर्ताओं ने भी पार्टीनिष्ठ होने के स्थान पर नेतानिष्ठ होना शुरू कर दिया। इससे पार्टी संगठन का क्षरण शुरू हो गया है। आज हम देखें तो यशपाल आर्य और संजीव आर्य के भारतीय जनता पार्टी में जाने के बाद खासकर नैनीताल व ऊधमसिंहनगर में नेताओं का एक बड़ा धड़ा भाजपा में चला गया। इन नेताओं का खासा जनाधार था। कांग्रेस नेता भले ही कहें व्यक्ति से ऊपर पार्टी है, लेकिन व्यक्तिगत बातचीत में वो जताना नहीं भूलते कि हमने पार्टी छोड़ दी तो हमारे इलाके में पार्टी का कोई नामलेवा नहीं रहेगा। क्योंकि उन्हें पता है कि उन्होंने व्यक्तिनिष्ठ कार्यकर्ता को प्राथमिकता दी है, पार्टीनिष्ठ कार्यकर्ता को नहीं। कांग्रेस संगठन से जुड़े रहे एक नेता का कहना है पार्टी का आम कार्यकर्ता हमेशा से नेपथ्य में ही रहा है। वो पार्टी के लिए काम करता है इसलिए पीछे है। नेता के लिए काम करने वाला ही हमेशा नेता की नजर में रहता है। जैसे आप दूसरी पार्टी में पद की अपेक्षा में जाते हैं, वैसे ही आपकी पार्टी में आने वाला अपनी मांग के अनुसार आता है और मनचाहा पद पाता है। लेकिन आम कार्यकर्ता की स्थिति आज भी पहले जैसी ही है।

आज भी कांग्रेस भले ही अगली सरकार का दावा कर ले, लेकिन पार्टी में जो भ्रम की स्थिति है उसमें पार्टी की संभावनाएं बहुत अनुकूल हों ऐसा लगता नहीं। आंतरिक खींचतान में उलझी कांग्रेस में जनता के बीच मजबूती से उतरने की फौरी रणनीति का अभाव स्पष्ट दिखाई देता है। संगठन के लिए अब बूथ स्तर कमेटियों के गठन का काम भी नये प्रभारी देवेन्द्र यादव के आने के बाद शुरू हुआ है। राज्य स्तर पर लोकप्रिय जनाधार वाले नेताओं को तैयार करने में पार्टी की नाकामी और नेताओं के उभरने व विकसित होने में बाधा उत्पन्न करने की प्रवृत्ति के चलते मजबूत जनाधार वाले दूसरी पंक्ति के नेताओं का अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। भले ही संगठन में पद पा चुके कुछ नेता स्वयं को दूसरी पंक्ति का नेता मान आत्ममुग्ध हो लें। समय रहते हरकत में आने की पार्टी व नेताओं की अनिच्छा ने और हालत खराब की है।

जहां विधानसभा चुनाव में एक साल से भी कम का समय बचा है, कांग्रेस के लिए चुनौतियां बहुत हैं। अगर त्रिवेंद्र सरकार की कथित नाकामियों के रथ पर सवार कांग्रेस सिर्फ इसी को अपनी सत्ता में आने की गारंटी मान बैठी है, तो उसे हरियाणा को स्मरण रखना चाहिए। जहां मनोहर लाल खट्टर की स्थिति त्रिवेंद्र जैसी ही थी, लेकिन भाजपा संगठन की मजबूती ने खट्टर की वापसी करवा दी थी। उत्तराखण्ड कांग्रेस आंतरिक चुनौतियों से मुकाबला करना है साथ ही मुकाबला करना है संगठन के उस मजबूत कार्यकर्ता से जो पार्टी के संकल्प को स्वयं के मुकाबले बड़ा मानता है।

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