उत्तराखण्ड में कांग्रेस बेहद नाजुक दौर में है। अगर आलाकमान ने समय रहते इसे गंभीरता से नहीं लिया तो आने वाले दिनों में कार्यकर्ता दूसरी पार्टियों में भविष्य तलाशने को विवश हो जाएंगे। मौजूदा नेतृत्व का हाल यह है कि प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह टिहरी लोकसभा क्षेत्र की चौदह में से तेरह विधानसभा सीटों पर बुरी तरह हार गए। इसी तरह पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत नैनीताल में तीन लाख 39 हजार वोटों से हारे। पौड़ी में पार्टी का दांव बुरी तरह फेल हुआ। पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खण्डूड़ी के पुत्र मनीष खण्डूड़ी सभी विधानसभा सीटों पर पिछड़ गए। पार्टी को लगातार मिलती हार के बावजूद नेताओं ने सबक नहीं लिया। आपसी गुटबाजी और संगठन में अपने-अपने चहेतों को आगे बढ़ाने की जिद पार्टी को ले डूबी
उत्तराखण्ड कांग्रेस के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस को आत्म मंथन कर सबक लेने की जरूरत थी, लेकिन पार्टी पुराने ढर्रे पर ही रही। इसका यह असर हुआ कि कांग्रेस लगातार हर मोर्चे पर हारती रही। कांग्रेस ने अपने प्रदेश संगठन को न तो भाजपा के मुकाबिल मजबूत किया और न ही इसके लिए कोई प्रयास किया। सत्ता से दूर होने के बाद कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने की पहली परीक्षा थराली विधानसभा उपचुनाव की थी। इसमें कांग्रेस को सफलता नहीं मिल पाई। हार का सिलसिला लगातार बना रहा। सहकारी संघों और निकाय चुनावों में कांग्रेस का जनाधार बुरी तरह से फिसल गया। हालात यहां तक बन गए कि निकाय चुनावों में कांग्रेस को निर्दलियों से भी कम सीटें मिली। लोकसभा चुनाव में तो प्रदेश की पांचों सीटां पर कांग्रेस बुरी तरह से हार गई। पार्टी उम्मीदवार कोई हल्के उम्मीदवार नहीं थे। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, कई बार के विधायक और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रीतम सिंह, राज्य सभा सांसद प्रदीप टम्टा, पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खण्डूड़ी के सुपुत्र मनीष खण्डूड़ी तथा हरिद्वार के बड़े नेता अंबरीश कुमार जैसे दिग्गजों पर कांग्रेस ने दांव लगाया था। लेकिन कांग्रेस के सभी उम्मीदवार करीब ढ़ाई से साढ़े तीन लाख मतों के अंतर से हार गए।
हेरत की बात यह है कि दो वर्षों से जारी हार के सिलसिले को कांग्रेस सामान्य बता रही है। पार्टी यह मानने को तैयार नहीं है कि वह उत्तराखण्ड में कमजोर है। स्वयं प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह का कहना है कि कांग्रेस प्रदेश में पूरी तरह से मजबूत है। उनका कहना है कि अगर कांग्रेस का संगठन कमजोर होता तो निकाय चुनाव में बड़ी जीत नहीं होती। पार्टी भाजपा को कड़ी टक्कर नहीं दे पाती।
प्रीतम सिंह के इस बयान से साफ है कि कांग्रेस आज भी जमीनी हकीकत से परहेज कर रही है। वह दिवास्वप्नों के घेरे में ही दिखाई दे रही है, जबकि भाजपा सत्ता में होने के बावजूद संगठन को नई धार और नए चुनावी हथियारों से लैस कर चुनाव में जीत हासिल कर रही है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर भाजपा से आधे में ही सिमट गया। भाजपा का वोट शेयर 61.1 फीसदी रहा, जबकि का कांग्रेस महज 31.40 फीसदी ही रह गया। यह हाल तब है जब वर्ष 2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में जनता ने उसे सत्ता में आने का मौका दे दिया था।
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का हर उम्मीदवार हर विधानसभा क्षेत्र में वोट के लिए तरसता रहा। दो से तीन लाख मतां से पराजित होना अपने आप में एक ऐतिहासिक हार मानी जा रही है। पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस में चुनावी रणनीति के माहिर समझे जाने वाले हरीश रावत तो सबसे ज्यादा 3 लाख 39 हजार मतों से हारे हैं। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह 3 लाख 586 मतों से पराजित हुए हैं। विधायक और सांसद की सीट कांग्रेस में अपने लिए आरक्षित समझने वाले प्रदीप टमटा भी 2 लाख 32 हजार 986 मतां से पराजित होकर अपने राजनीतिक जीवन पर प्रश्न चिन्ह लगा चुके हैं। पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खण्डूड़ी की राजनीतिक विरासत का असली हकदार उनके ही सुपुत्र मनीष को कांग्रेस ने समझा। लेकिन मनीष के हालत सबसे बुरे रहे। वे पौड़ी लोकसभा क्षेत्र की सभी चौदह विधानसभा सीटों में पिछड़ गए। तीरथ सिंह रावत ने मनीष खण्डूड़ी को 3 लाख 26 हजार वोटों से करारी हार दी है। हरिद्वार के बड़े नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाने वाले और मैदानी, पहाड़ी तथा बाहरी नेता का नारा देने वाले अलग-अलग पार्टियों में अपना राजनीतिक जीवन देखने वाले, अंबरीश कुमार भी 2 लाख 58 हजार 729 वोटों से पराजित हुए। हालांकि 2014 के चुनाव में भी कांग्रेस की हार हुई थी। लेकिन तब जनता ने उसके उम्मीदवारों को इस कदर नहीं ठुकराया था।
अब कांग्रेस के मौजूदा राजनीतिक हालात की चर्चा करें तो पार्टी प्रदेश में जबर्दस्त गुटबाजी से घिरी रही है। यह हालात स्वयं पार्टी नेताओं ने बनाए हैं। कांग्रेस आलाकमान भी इस बात को बहुत अच्छी तरह से जानता रहा है। लेकिन इस पर लगाम लगाने का साहस किसी भी में नहीं रहा। राज्य बनने के बाद से लेकर न जाने कितने कांग्रेस के राज्य प्रभारी आए और गए, लेकिन वे इस छोटे से प्रदेश में कांग्रेस के भीतर पनप चुकी गुटबाजी और नेताओं की आपसी जंग को खत्म नहीं कर पाए जिसका असर कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर इतना गहराई से पड़ा कि वे स्वयं को कांग्रेस कार्यकर्ता के बजाए नेता विशेष का कार्यकर्ता समझने लगे।
लोकसभा चुनाव में भी इसका बड़ा असर देखने को मिला। देहरादून और गढ़वाल क्षेत्र के हरीश रावत समर्थक नेता और कार्यकर्ता नैनीताल में डटे रहे। इसी तरह कुमाऊं के प्रीतम सिंह समर्थक नेता और कार्यकर्ता टिहरी लोकसभा क्षेत्र में प्रचार करने पहुंचे। तकरीबन ऐसा हर सीट पर देखने को मिला, जबकि नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपने मूल स्थानों पर ही रहने की सबसे ज्यादा जरूरत थी। अपने क्षेत्र की राजनीति पर जिनकी थोड़ी सी भी पकड़ रही, वे अपने-अपने नेता के प्रचार में दूसरे स्थानों में काम करते रहे। इसका खमियाजा कांग्रेस के उम्मीदवारों को भुगतना पड़ा।
राजनीतिक जानकार नेता विश्ेष के पक्ष में कार्यकर्ताओं का जुटना ठीक नहीं मानते हैं। नेता विशेष के कार्यकर्ता और समर्थक स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं पर इस कदर हावी हो जाते हैं कि हर निर्णय में हस्तक्षेप करने लगते हैं। जिसके चलते स्थानीय स्तर पर नाराजगी पैदा हो जाती है। 2012 के विधानसभा चुनाव में यही देखने को मिला। बीसी खण्डूड़ी के कोटद्वार से चुनाव लड़ने पर देहरादून के समर्थकों ने कोटद्वार में डेरा डाल दिया था। खण्डूड़ी समर्थक स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं को देहरादून के नेताओं और समर्थकों ने तरजीह देना बंद कर दिया। यहां तक कि खण्डूड़ी के कार्यक्रमों में उनकी सहमति तक लेने से परहेज किया गया जिसका बड़ा असर यह हुआ कि जो खण्डूड़ी प्रदेश के लिए जरूरी समझे गए वे पांच हजार मतों से विधानसभा का चुनाव हार गए।
अब कांग्रेस के प्रदेश संगठन पर गौर करें तो प्रीतम सिंह को प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभाले दो साल हो चुके हैं। लेकिन आज तक वे अपनी कार्यकारिणी का गठन नहीं कर पाए हैं, जबकि इन दो वर्षों में कांग्रेस तीन-तीन चुनाव में उतर चुकी है। आज भी पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय की कार्यकारिणी से प्रीतम सिंह संगठन को चला रहे हैं। या यूं कहे कि किसी तरह से धकेल रहे हें। राजनीतिक तौर पर कांग्रेस जनता के मुद्दों को सदन और सड़कां पर उठाने के लिए कुछ समय के लिए प्रयास तो करती रही है, लेकिन उतना ही तेजी से उनको भूलने का काम भी करती रही है। मीडिया में बयान देने के अलावा कांग्रेस के नेता गंभीरता से ऐसे मुद्दों को धार देने में कामयब नहीं हैं जिनसे भाजपा को घेरा जा सकता था। सरकार के खिलाफ चार्जशीट देने की बात करने वाली कांग्रेस घोटालां और भ्रष्टाचार के मामलां में भी सरकार पर दबाब नहीं बना पाई है। सरकार को घेरने में पार्टी नेता होमवर्क नहीं करते। मुख्यमंत्री की पत्नी और मुख्यमंत्री के मित्र की पत्नी द्वारा जमीन खरीदने के मामले में सदन में कांग्रेस के उपनेता करण माहरा ने आरोप लगाए गए कि सूर्यधार में करोड़ां की जमीनें खरीदी गई हैं। लेकिन दस्तावेज सहस्रधारा की जमीन के दिखाए गए। ‘दि संडे पोस्ट’ इस समाचार को पिछले वर्ष ही प्रकाशित कर चुका है।
कांग्रेस नेताओं के जनाधार का हाल यह है कि चकराता विधानसभा सीट से प्रीतम सिंह को महज 4 हजार 786 मतों से बढ़त हासिल हुई, जबकि अन्य तेरह विधानसभा सीटां पर वे भाजपा से कमजोर रहे हैं। इस पर भी प्रीतम सिंह यह मानते हैं कि उनका व्यक्तिगत जनाधार पूरे प्रदेश में है और वे इसी के बलबूते कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बने हैं। देहरादून शहर की सभी विधानसभा सीटों पर प्रीतम सिंह को मतदाताओं ने इस तरह से नकारा है कि भाजपा को मिले मतों से आधे ही मत प्रीतम सिंह को मिले हैं। जहां भाजपा की महारानी माला राज लक्ष्मी को 565333 वोट मिले तो वहीं प्रीतम सिंह को महज 264747 ही मत मिले। मत प्रतिशत में भी भाजपा कांग्रेस को पछाड़ने में कामयाब रही है। भाजपा का वोट शेयर 64 ़53 रहा तो कांग्रेस का महज 30 ़22 ही रहा।
जिस विकास नगर क्षेत्र को कांग्रेस, प्रीतम सिंह और कांग्रेस घोषणा पत्र कमेटी के अध्यक्ष पूर्व कैबिनेट मंत्री नव प्रभात का भी गढ़ माना जाता रहा है, उसी में कांग्रेस पिछड़ गई। यहां भाजपा को 46935तो कांग्रेस को सिर्फ 25503 ही वोट हासिल हो पाए हैं। टिहरी जिले की तीनों ही सीटों पर भाजपा कांग्रेस से आगे रही है। इसी तरह उत्तरकाशी जिले की विधानसभा सीटों पर भी कांग्रेस बुरी तरह पिछड़ गई।
दरअसल, जनाधारविहीन नेताओं की पूरी जमात जिला और महानगर कार्यकारिणी में बनी हुई है। इन पदां पर प्रीतम सिंह ने अपने समर्थकों को चुन-चुनकर बिठाया, जबकि इन नेताओं की कार्यक्षमता और नेतृत्व पर पहले ही सवाल खड़े हो चुके हैं। आज प्रदेश में युवा कांग्रेस अध्यक्ष का नाम भी कोई पूरा नहीं जानता होगा, जबकि पूर्व में कांग्रेस की छात्र इकाई एनएसयूआई और युवा कांग्रेस संगठन की पहली रीढ़ मानी जाती रही है। चुनाव में कांग्रेस का युवा संगठन कहीं नहीं दिखाई दिया।
महानगर कार्यकारिणी में जनाधारविहीन नेताओं का बोलबाला बना हुआ है। पूर्व देहरादून महानगर अध्यक्ष पृथ्वीराज चौहान को हटाकर लालचंद शर्मा को महानगर अध्यक्ष पद से नवाजा गया। लेकिन लाल चंद ऐसे नेता हैं जिनका कोई जनाधार कहीं दिखाई नहीं दिया है। वे केवल सोशल मीडिया में ही सक्रियता दिखाते रहे हैं। देहरादून नगर की कैंट, राजपुर रोड़ रायपुर विधानसभा सीटों पर कांग्रेस की करारी हार की जिम्मेदारी से वे बच नहीं सकते।
अब कांग्रेस के बड़े दिग्गजां की भूमिका पर नजर डालें तो पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत पर पार्टी कार्यकर्ता अपने परिवार और चहेतों को आगे बढ़ाने के आरोप लगाते रहे हैं। फिर वे संगठन को बगैर विश्वास में लिए अपने कार्यक्रम देकर गुटबाजी को हवा देते रहे हैं। हाल ही में नैनबाग क्षेत्र के बसाण गांव में दलित युवक की हत्या के विरोध में रावत ने देहरादून के गांधी पार्क में महज एक घ्ांटे के उपवास का कार्यक्रम किया। इस कार्यक्रम को उन्होंने अपने समर्थक नेताओं और कार्यकर्ताओं तक ही सीमित रखा, जबकि यह कार्यक्रम कांग्रेस के प्रदेश मुख्यलय से महज 50 मीटर दूर था। हरीश रावत ने इस कार्यक्रम को अपना व्यक्तिगत बनाकर कांग्रेस के भीतर मचे घमासान को एक बार फिर से पूरी तरह उजागर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसी तरह से नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदेश का नाम भी बड़े नेता के तौर पर लिया जाता है। लेकिन नेता प्रतिपक्ष होने के बावजूद वे कुमाऊं और खास तौर पर हल्द्वानी में ही अपने आप को सीमित कर चुकी हैं। अपने पुत्र को राजनीतिक विरासत सांपने के प्रयास में इंदिरा हृदेश पूरे प्रदेश में कांग्रेस के लिए काम करने से परहेज करती रही हैं। और भी कई ऐसे बड़े नेता हैं जो खुद तक सीमित रहे।