[gtranslate]
Uttarakhand

‘हम नहीं सुधरेंगे’ की तर्ज पर कांग्रेस

वर्ष 1980 में कांग्रेस केंद्र की सत्ता में धमाकेदार तरीके से दोबारा काबिज हुई थी। इसी वर्ष बॉलीवुड फिल्म ‘हम नहीं सुधरेंगे’ भी रिलीज हुई और छा गई थी। उत्तराखण्ड कांग्रेस के नेता इस फिल्म के शीर्षक से प्रेरणा लेते हुए हालिया संपन्न विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार से सबक लेने के बजाय एक-दूसरे की छीछालेदर करने में जुट गए हैं। आत्मनिरीक्षण, आत्मचिंतन और गंभीर मंथन से बचने के इस प्रवृति के चलते ही कभी पूरे देश में राज करने वाली पार्टी आज मात्र दो राज्यों की सत्ता तक सिमट कर रह गई है

देहरादून में 2 फरवरी 2022 को कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी जब कांग्रेस का लोक लुभावन वायदों से भरा ‘उत्तराखण्ड स्वाभिमान प्रतिज्ञा पत्र-2022’ जारी कर रही थीं तब उन्हें इस बात का जरा भी भान नहीं रहा होगा कि अनेक घोषणाओं से भरपूर यह दस्तावेज सिर्फ समारोह में दिखाने भर के लिए रह जाएगा और चुनाव के दौरान कांग्रेस कार्यालयों और प्रत्याशियों के गोदाम की शोभा बढ़ा रहा होगा। उसी प्रकार लंबे समय तक प्रदेश कार्यकारिणी की घोषणा को लटकाने वाली कांग्रेस द्वारा चुनाव के दौरान प्रदेश के लिए एक अतिरिक्त कार्यकारी अध्यक्ष सहित महामंत्री, मंत्री सचिव जैसे पार्टी पदों को रेवड़ियों की तरह बांटने की कवायद कैसे जनता के बीच पार्टी की पैठ जमाने में सहायक रही होगी ये चुनाव परिणामों से जाहिर होता है। प्रीतम सिंह के प्रदेश अध्यक्ष रहते बनी जम्बों कार्यकारिणी का सुरसा के मुंह की तरह विस्तार प्रदेश में कांग्रेस की संभावनाओं को ही निगलता चला गया। ये दो मिसालें उत्तराखण्ड विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के प्रचार अभियान और उसकी चुनावी रणनीति की झलक दे देती हैं। दूर दृष्टि का अभाव, आपसी तालमेल की कमी और एक अच्छे प्रतिज्ञा पत्र को जनता के बीच न पहुंचा पाना कांग्रेस की वो रणनीतिक कमियां थी जिसने कांग्रेस के लिए सत्ता के दरवाजे 2027 तक के लिए बंद कर दिए। सवाल है कि इन पांच सालों में कांग्रेस उसी अंतर्कलह का शिकार रहेगी जो 2017 से 2022 तक पार्टी संगठन और उसके शीर्ष नेतृत्व के मध्य देखने को मिली थी जिस चलते अनुकूल माहौल होने के बावजूद कांग्रेस सत्ता की देहरी से एक बार फिर दूर हो गई? मुफ्त राशन की योजना, मोदी लहर जैसे कारणों को गिनाकर अपनी नाकामियों को छुपाना और इसीं नैरेटिव के सहारे अपनी हार के कारणों को खोजना कांग्रेस पार्टी के उन हजारों कार्यकर्ताओं से धोखा करना होगा जो बड़े नेताओं के आपसी घात प्रतिघातों के बीच भी पार्टी के लिए निःस्वार्थ लगा रहता है।

उत्तराखण्ड में कांग्रेस की पराजय के कारण उसकी अपनी अंदरूनी राजनीति में छिपे हैं लेकिन कांग्रेस के बड़े नेता शायद ही इस नजरिये से आत्मविश्लेषण की हिम्मत जुटा सकें क्योंकि इस हार की जवाबदेही से केंद्र से लेकर प्रदेश स्तर के नेता बच नहीं सकते। कांग्रेस का सत्ता की दहलीज से दूर रह जाना वह भी तब जब भाजपा के खाते में कोई उपलब्धि नहीं थी बल्कि तीन मुख्यमंत्री बदलना, सरकारी कर्मचारियों, पुलिसकर्मियों की नाराजगी, बढ़ती बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई और कथित रूप से विकास पर ब्रेक जैसे कई मुद्दे चुनावी फिजा में तैर रहे थे। दरअसल उत्तराखण्ड में कांग्रेस के पराजय की जड़ें दिल्ली के 24 अकबर रोड स्थित कांग्रेस मुख्यालय में है जहां जनाधारविहीन पदाधिकारियों की छोटी सी चौकड़ी, जिनका जनता से जुड़ाव नाम मात्र का है राज्यों में कांग्रेस और नेताओं के विषय में ऐसे अजीबो गरीब निर्णय लेती है जिनका राज्य की राजनीति से कोई सरोकार नहीं होता। 2017 के चुनावों में करारी हार के बावजूद न ही कांग्रेस कें केंद्रीय नेतृत्व, न ही राज्य के नेताओं ने कोई सबक लिया। कांग्रेस के एक पूर्व महासचिव का कहना है कि ‘‘2022 के चुनावों में पराजय की पठकथा तो 2017 में ही लिख दी गई थी जब पराजय के कारणों की समीक्षा से पार्टी ने बचने की कोशिश की क्योंकि ऐसा कर तत्कालीन मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष और मंत्रियों की जवाबदेही तय होती। जीत का श्रेय लेने की होड़ और पराजय की जवादेही से बचने की प्रवृति ने पार्टी को नुकसान तो पहुंचाया ही भविष्य में उत्तराखण्ड के अंदर कांग्रेस की संभावनाओं पर भी प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।’’

 

सत्ता पाने के खेल में नेताओं के खुद को मजबूत करने के प्रयासों ने कांग्रेस संगठन के ढांचे को ही चरमरा दिया। जमीनी स्तर पर कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा कमजोर होता चला गया। प्रीतम सिंह खुद तो जीते मगर टिहरी गढ़वाल, पौड़ी, चमोली, उत्तरकाशी, रूद्रप्रयाग, देहरादून जिलों में कांग्रेस की करारी हार चलते वे अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते क्योंकि साढ़े चार साल तक उन्होंने उत्तराखण्ड में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली थी। छह जिलों में मात्र तीन सीट प्रीतम सिंह की नेतृत्व क्षमता पर निशान लगाती हैं। दूसरी तरफ 2017 की पराजय के बाद भी हरीश रावत का कद तो पार्टी में निरंतर बढ़ता गया लेकिन उत्तराखण्ड के संदर्भ में उनकी हठधर्मिता कांग्रेस की पराजय के कारणों में एक है। पूरे पांच साल उत्तराखण्ड कांग्रेस में अस्थिरता के आरोप उन पर भी लगते हैं। मुख्यमंत्री का चेहरा बनने की उनकी महत्वाकांक्षा के चलते पार्टी के अंदर उन्होंने अपने कई विरोधी खड़े कर लिए। अपनी बातों में स्पष्टता का अभाव हरीश रावत के करीबियों को उनसे दूर कर गया। आज उनके विरोधी गुट में शामिल सभी नेता कभी उनके ही शिष्य हुआ करते थे। किशोर उपाध्याय जैसे लोग आज भारतीय जनता पार्टी में हैं तो उसके लिए एक हद तक हरीश रावत ही जिम्मेदार हैं

वर्ष 2017 की पराजय के बाद जिस प्रकार उत्तराखण्ड में कांग्रेस पार्टी के प्रदेश प्रभारियों और नेताओं ने पार्टी को चलाया उससे इन नेताओं को जनता की नजर में संदिग्ध बना दिया। पहले प्रदेश अध्यक्ष फिर मुख्यमंत्री पद की होड़, ऊपर से चौतरफा छाई गुटबाजी ने 2017 की पराजय से कांग्रेस को उबरने ही नहीं दिया। 2017 से 2022 के पांच वर्ष प्रदेश कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने एक- दूसरे को ठिकाने लगाने की जुगत में गंवा दिए। नेताओं का अहं और एक-दूसरे पर अविश्वास पार्टी को आज उस स्थिति में ले आया है कि पार्टी की आगे की राह कठिन नजर आती है। प्रीतम सिंह के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद प्रभारी बनकर आए अनुग्रह नारायण सिंह की कार्यशैली ने कांग्रेस को बहुत नुकसान पहुंचाया। प्रदेश कांग्रेस में संगठन और नेताओं के बीच समन्वय बनाने के अपने मूल दायित्व के इतर अनुग्रह नारायण सिंह गुट विशेष के प्रभारी बनकर रह गये। उनके प्रभारी रहते कांग्रेस संगठन में आई जड़ता के चलते संगठन पंगु बनकर रह गया। हरीश रावत के विरोध चलते प्रीतम सिंह भी निश्चिंत रहकर अपनी कार्यकारिणी का ढ़ाई साल तक गठन नहीं कर पाए। जब कार्यकारिणी का गठन हुआ तो असंतोष के उभरे स्वरों ने कांग्रेस के अंदर जो उबाल पैदा किया उसने कांग्रेस की आंतरिक राजनीति का सच सामने ला खड़ा किया। अनुग्रह नारायण सिंह के प्रभारी रहते तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश और प्रीतम सिंह ने चुन-चुन कर हरीश रावत समर्थकों को प्रदेश संगठन से बाहर करने की मुहिम छेड़ दी। अनुग्रह नारायण सिंह को प्रभारी पद से हटाने के बाद नये प्रभारी बनकर आए देवेन्द्र यादव ने संगठन की इस आपसी रार को खत्म करने के प्रयास जरूर किए लेकिन समय बीतने के साथ ही वे भी अनुग्रह नारायण सिंह के ढर्रे पर चलते दिखे। उनके द्वारा प्रीतम गुट को प्रश्रय और हरीश रावत को कम आंकने की गलती ने उन्हें हरीश रावत के सामने एक संदिग्ध के रूप में खड़ा कर दिया जिसकी परिणति हरीश रावत की उस पोस्ट के रूप में सामने आई जिसमें हरीश रावत ने कुछ मगरमच्छों की बात कह सनसनी फैला दी। उनके निशाने पर प्रभारी देवेन्द्र यादव ही थे। चुनाव से पूर्व प्रदेश नेतृत्व में बदलाव उस सहज तरीके से नहीं हुआ जैसा कि सामान्यतः होना चाहिए। गणेश गोदियाल की प्रदेश अध्यक्ष पर नियुक्ति के साथ चार कार्यकारी अध्यक्षों की नियुक्ति शायद रणनीतिक रूप से सही कदम नहीं था। चार कार्यकारी अध्यक्ष पार्टी को मजबूत करने के लिए नहीं सिर्फ गुटीय संतुलन साधने की कवायद भर थी। गणेश गोदियाल के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद उनके देहरादून आगमन के दिन प्रीतम सिंह गुट तीन कार्यकारी अध्यक्षों भुवन कापड़ी, जीतराम और रणजीत रावत के साथ जिस प्रकार अलग से देहरादून की सड़कों पर प्रदर्शन करता दिखा, कांग्रेस की पराजय की नींव उसी दिन पड़ गई थी। कांग्रेस का विभाजित प्रदेश नेतृत्व और कांग्रेस का लचर संगठन भारतीय जनता पार्टी के मजबूत संगठन का मुकाबला विभाजित होकर नहीं कर सकता था। सत्ता पाने के खेल में नेताओं के खुद को मजबूत करने के प्रयासों ने कांग्रेस संगठन के ढांचे को ही चरमरा दिया। जमीनी स्तर पर कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा कमजोर होता चला गया। प्रीतम सिंह खुद तो जीते मगर टिहरी गढ़वाल, पौड़ी, चमोली, उत्तरकाशी, रूद्रप्रयाग, देहरादून जिलों में कांग्रेस की करारी हार चलते वे अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते क्योंकि साढ़े चार साल तक उन्होंने उत्तराखण्ड में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली थी। छह जिलों में मात्र तीन सीट प्रीतम सिंह की नेतृत्व क्षमता पर निशान लगाती हैं। 2017 की पराजय के बाद भी हरीश रावत का कद पार्टी में निरंतर बढ़ता गया लेकिन उत्तराखण्ड के संदर्भ में उनकी हठधर्मिता कांग्रेस की पराजय के कारणों में एक है। पूरे पांच साल उत्तराखण्ड कांग्रेस में अस्थिरता के आरोप उन पर भी लगते हैं। मुख्यमंत्री का चेहरा बनने की उनकी महत्वाकांक्षा के चलते पार्टी के अंदर उन्होंने अपने कई विरोधी खड़े कर लिए। अपने राजनीतिक जीवन के अंतिम पड़ाव में वे अपनी ही पार्टी के भीतर अपने विरोधियों के दुष्चक्र में ऐसे फंसे कि उनके राजनीतिक भविष्य पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। रामनगर से उनके चुनाव लड़ने का हठ और फिर अपने रूख पर कायम न रहना 2022 के चुनाव में उनकी करारी हार का कारण बन गया। अपनी बातों में स्पष्टता का अभाव हरीश रावत के करीबियों को उनसे दूर कर गया। आज उनके विरोधी गुट में शामिल सभी नेता कभी उनके ही शिष्य हुआ करते थे। किशोर उपाध्याय जैसे लोग आज भारतीय जनता पार्टी में हैं तो उसके लिए एक हद तक हरीश रावत ही जिम्मेदार हैं।

2019 के लोकसभा चुनाव दौरान राहुल गांधी ने कहा था ‘भारत में एक आदत है कि शक्तिशाली लोग सत्ता से चिपके रहना चाहते हैं, कोई त्याग का साहस नहीं दिखाता। लेकिन हम सत्ता की इच्छा का त्याग गिए बिना और गहरी वैचारिक लड़ाई बगैर, अपने विरोधियों को हरा नहीं पायेंगे।’ उनका यह कथन प्रदेश कांग्रेस के बड़े नेताओं पर सटीक बैठता है। कांग्रेस के नेता वैचारिक लड़ाई से दूर सत्ता से चिपके रहने की प्रवृत्ति पर ज्यादा उत्साहित दिखाई दिए। चुनाव घोषित होने से पूर्व जो कांग्रेस जमीनी स्तर पर मजबूत दिख रही थी प्रत्याशियों के चयन करते- करते  बिखराव की स्थिति में आ गई। दिसंबर महीने में प्रत्याशियों की घोषणा कर देने का दावा करने वाली कांग्रेस कई प्रत्याशी नामांकन तिथि के एक दो दिन पहले घोषित कर पाई। प्रभारी देवेन्द्र यादव और प्रत्याशियों के चयन के लिए बनाई गई स्क्रीनिंग कमेटी के अध्यक्ष अविनाश पाण्डे का रिकॉर्ड पूर्व में भी अच्छा नहीं रहा है। प्रत्याशियों के चयन में जिस प्रकार गड़बड़ी के आरोप लगे उसने चुनाव में कांग्रेस को एक हद तक नुकसान पहुंचाया। अपने-अपने लोगों को समायोजित करने के फेर में कई मजबूत सीटों को गंवा दिया। पुरोला सीट पर दुर्गेश्वर लाल को हरीश रावत टिकट दिलाना चाहते थे लेकिन प्रीतम सिंह भाजपा से आए मालचन्द के टिकट पर अड़ गए। मजबूत प्रत्याशी दुर्गेश्वर लाल को एन वक्त भाजपा ने पार्टी में शामिल कर पुरोला से टिकट भी दे दिया वो जीतकर भी आ गए। यमुनोत्री से संजय डोभाल मजबूत दावेदार थे लेकिन हरीश रावत की जिद के चलते एन वक्त पर दीपक बिल्जवाण को यमुनोत्री से टिकट मिला लेकिन वे निर्दलीय चुनाव लड़े संजय डोभाल से हार गये। इसी प्रकार डोईवाला सीट पर मेहनत हीरा सिंह बिष्ट ने की लेकिन प्रीतम सिंह ने टिकट दिलवा दिया गौरव कुमार को। लालकुआं सीट पर संध्या डालाकोटी किसी भी रूप में मजबूत प्रत्याशी नहीं थीं। कांग्रेस के एक नेता का कहना था कि ‘बेटी हूं, लड़ सकती हूं’ के तहत मजबूत उम्मीदवार सरिता आर्या तो टिकट नहीं पा सकीं लेकिन कमजोर दावेदार संध्या डालाकोटी टिकट पा गई। उसके बाद उनका टिकट कटना, हरीश रावत का लालकुआं आना और संध्या डालाकोटी का बागी होकर चुनाव लड़ना पूरे प्रदेश में नकारात्मक संदेश दे गया।

टिकट वितरण की कवायद में गंभीरता का पता इसी से चलता है कि भीमताल से टिकट मांग रहे महेंद्र पाल को पहले कालाढूंगी फिर रामनगर से टिकट दे दिया गया। ऐन चुनाव से पहले प्रत्याशी चयन में हड़बड़ी ने मतदाताओं में कांग्रेस के प्रति गंभीरता को और भी कम कर दिया। चुनाव प्रचार के दौरान जहां भाजपा के राष्ट्रीय नेता सड़कों में पार्टी के नाम पर वोट मांग रहे थे वहीं कांग्रेस के नेता देहरादून में सिर्फ प्रेस कॉन्फ्रेंस तक सीमित थे। पूरे प्रदेश में प्रत्याशी अपने बूते पर चुनाव लड़ रहे थे। जहां एक विधानसभा में भाजपा के कई स्टार प्रचारक घूम रहे थे वहीं कांग्रेस प्रत्याशियों को प्रदेश स्तर के बड़े नेता भी प्रचार के लिए नसीब नहीं थे। प्रीतम सिंह अपनी विधानसभा चकराता से पूरे पांच साल बाहर नहीं निकल पाए। हरीश रावत लालकुआं में उलझ गये वहीं चारों कार्यकारी अध्यक्ष अपनी सीट बचाने में उलझे रहे। 2022 के विधानसभा चुनावों के नतीजे कांग्रेस के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। आने वाले लोकसभा चुनावों में चुनौती और भी कठिन होने जा रही है। जिस प्रकार पंगु संगठन के सहारे कांग्रेस 2022 के विधानसभा चुनावों उतरी उस संगठन से बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। भारतीय जनता पार्टी जिस प्रकार पीढ़ीगत् बदलाव की दिशा में बढ़ी है उसने उसे विधानसभा चुनावों में भारी सफलता दिलाई। संगठनात्मक ढांचे को दुरूस्त करने के साथ ही गतिशील संगठन की दरकार कांग्रेस को इस वक्त है। पांच साल तक जनता के मध्य सक्रिय रहने वाले संगठन ही चुनावों में सफल हो पाते हैं। सिर्फ चुनावों के वक्त सक्रिय होने वाले संगठनों को जनता नकार देती है। कभी कांग्रेस से जुड़े रहे एक पदाधिकारी का कहना है कि ‘अपनी जड़ों से दूर हो चुकी कांग्रेस सिर्फ नेताओं की पार्टी बनकर रह गई है, अगर उसे उत्तराखण्ड में अपने को जीवित रखना है तो उसे अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा और जमीनी स्तर पर संगठन को पुनर्जीवित करना होगा। यदि वह ऐसा कर पाती है तो प्रदेश स्तर पर खुद पार्टी मजबूत होती जाएगी।

वर्ष 2017 की पराजय के बाद जिस प्रकार उत्तराखण्ड में कांग्रेस पार्टी के प्रदेश प्रभारियों और नेताओं ने पार्टी को चलाया उसने इन नेताओं को जनता की नजर में संदिग्ध बना दिया। पहले प्रदेश अध्यक्ष फिर मुख्यमंत्री पद की होड़, ऊपर से चौतरफा छाई गुटबाजी ने 2017 की पराजय से कांग्रेस को उबरने ही नहीं दिया। 2017 से 2022 के पांच वर्ष प्रदेश कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने एक-दूसरे को ठिकाने लगाने की जुगत में गंवा दिए। नेताओं का अहं और एक-दूसरे पर अविश्वास पार्टी को आज उस स्थिति में ले आया है कि पार्टी की आगे की राह कठिन नजर आती है

 

अनुग्रह नारायण सिंह के प्रभारी रहते तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश और प्रीतम सिंह ने चुन-चुन कर हरीश रावत समर्थकों को प्रदेश संगठन से बाहर करने की मुहिम छेड़ दी। अनुग्रह नारायण सिंह को प्रभारी पद से हटाने के बाद नये प्रभारी बनकर आए देवेन्द्र यादव ने संगठन की इस आपसी रार को खत्म करने के प्रयास जरूर किए लेकिन समय बीतने के साथ ही वे भी अनुग्रह नारायण सिंह के ढर्रे पर चलते दिखे। उनके द्वारा प्रीतम गुट को प्रश्रय और हरीश रावत को कम आंकने की गलती ने उन्हें हरीश रावत के सामने एक संदिग्ध के रूप में खड़ा कर दिया जिसकी परिणति हरीश रावत की उस पोस्ट के रूप में सामने आई जिसमें हरीश रावत ने कुछ मगरमच्छों की बात कह सनसनी फैला दी

You may also like

MERA DDDD DDD DD