वर्ष 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य बने गोविंद सिंह कुंजवाल उत्तराखण्ड गठन के बाद हुए पांच विधानसभा चुनावों में से चार बार जागेश्वर विधानसभा से जीतने का रिकॉर्ड बना चुके हैं। तिवारी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे कुंजवाल 2012 में राज्य विधानसभा के अध्यक्ष भी रहे। हालिया संपन्न चुनाव में जागेश्वर सीट से हारने वाले कुंजवाल कांग्रेस की करारी पराजय के लिए बगैर लाग-लपेट किए वरिष्ठ नेता प्रीतम सिंह और राज्य प्रभारी देवेंद्र यादव को जिम्मेदार ठहराते हुए उन्हें षड्यंत्रकारी करार देते हैं।
‘दि संडे पोस्ट’ के कुमाऊं ब्यूरो प्रमुख संजय स्वार से कुंजवाल की खास बातचीत
विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की पराजय और भाजपा की जीत को आप किस रूप में देखते हैं?
देखिये, चुनाव परिणामों को अप्रत्याशित कहूंगा क्योंकि पिछले पांच सालों में भाजपा सरकार की ऐसी कोई उपलब्धि नहीं थी जिसके आधार पर जनता भाजपा को वोट देती और ऐसा कोई माहौल भाजपा के पक्ष में भी नहीं था जो उसे सत्ता दिलाने का संकेत करता था। कांग्रेस की पराजय उसके अपने अंदर के लोगों के चलते हुई खासकर उन लोगों के कारण जिनके लिए कांग्रेस की जीत महत्वपूर्ण नहीं थी। हरीश रावत की पराजय उनके लिए महत्वपूर्ण थी। वो अपने षड्यंत्र में कामयाब हो गये। लेकिन आने वाले समय में उन लोगों ने कांग्रेस के लिए चुनौतीपूर्ण राह पैदा कर दी है जो कहीं कांग्रेस को उत्तराखण्ड में हाशिए में न धकेल दे।
चुनाव घोषित होने से पहले कांग्रेस के पक्ष में सकारात्मक माहौल दिख रहा था फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि कांग्रेस चुनाव में पराजित हो गई?
आज भी आप जनता की भावनाओं को जानने का प्रयास करें तो पायेंगे कि जनता भी विश्वास नहीं कर पा रही है कि कांग्रेस इन चुनावों में कैसे हार गई। लेकिन अब जो बातें खुलकर सामने आ रही हैं उससे पता चल रहा है कि पार्टी गहरे षड्यंत्र का शिकार हो गई। पार्टी के बड़े नेताओं की प्राथमिकता में कांग्रेस की जीत की मंशा तो दूर-दूर तक नहीं थी। उनकी प्राथमिकताओं में तो एक मकसद था हरीश रावत को राजनीतिक तौर पर नुकसान पहुंचाना और उनकी राजनीति को खत्म करना। सिर्फ हरीश रावत ही नहीं उनसे सहानुभूति रखने वाले पार्टी के अंदर हर शख्स को इस चुनाव में नुकसान पहुंचाने की कोशिश की गई। इन षड्यंत्रों में प्रदेश प्रभारी देवेन्द्र यादव और नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह की भूमिका सबसे बड़ी थी। जिन पर कांग्रेस को खड़ा करने की जिम्मेदारी थी वो ही इन पांच सालों में कांग्रेस की जड़ों को कमजोर करते गये।
आप बहुत बड़ा आरोप लगा रहे हैं प्रभारी देवेंद्र यादव और प्रीतम सिंह पर। आपका यह वक्तव्य अनुशासन के दायरे में नहीं आता क्या?
ये महज आरोप नहीं है सच्चाई है और फिर कांग्रेस पार्टी के हित में सच्चाई बयां करना किस अनुशासनहीनता के दायरे में आता है। कांग्रेस के ये हालात देखकर दर्द होता है। वो कार्यकर्ता जो जमीनी स्तर पर पार्टी के लिए हमेशा कार्य करता है उसकी भावनाओं से कुछ नेताओं ने अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए खेला है। प्रभारी देवेन्द्र यादव की बात करें तो उनकी जिम्मेदारी थी पार्टी के प्रदेश के नेताओं के बीच समन्वय बनाने की लेकिन उन्होंने समन्वय के बजाय पार्टी के अंदर गुटबाजी को हवा देने का काम किया और पार्टी के प्रभारी के बजाय गुट विशेष के प्रभारी बन कर रह गये। गुट विशेष को आगे बढ़ाने के चक्कर में वो जमीनी व मजबूत नेताओं को ठिकाने लगाने के षड्यंत्र में शामिल हो गये। प्रीतम सिंह की बात करें तो वो जमीनी संघर्ष से राजनीति में नहीं आए हैं। वो विरासत संभालते हुए राजनीति में आए हैं। उन्होंने संघर्ष की राजनीति नहीं की। यदि की होती तो उनके लिए समग्र संगठन का महत्व होता। ऐसे लोगों में अपनी विधानसभा को छोड़ प्रदेश के जमीनी कार्यकर्ताओं से संवाद करने की क्षमता होती नहीं। आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं अपनी विधानसभा क्षेत्र तक सीमित नेताओं ने साढ़े चार साल तक संगठन का क्या हाल किया होगा।
लेकिन चुनाव से छह माह पहले हरीश रावत की जिद पर प्रीतम सिंह को हटाकर गणेश गोदियाल को अध्यक्ष बना दिया था क्या उनकी कोई जवाबदेही नहीं बनती?
जो साढ़े चार साल तक प्रदेश अध्यक्ष रहे उन्होंने कांग्रेस की पराजय की जवाबदेही नहीं ली तो आप छह माह के अध्यक्ष से जवाबदेही की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? गणेश गोदियाल के हाथ तो प्रदेश प्रभारी देवेन्द्र यादव ने बांध रखे थे। उन्हें अपनी नई टीम चुनने की स्वतंत्रता नहीं दी गई। गणेश गोदियाल तो प्रीतम सिंह की टीम से ही काम चला रहे थे जिसने जिलों में अपनी ही पार्टी के प्रत्याशियों को हराने का काम किया। अगर गणेश गोदियाल को अपनी टीम को चुनने का अधिकार दिया होता तो आज विधानसभा चुनाव परिणाम कांग्रेस के पक्ष में होते। अब आप विरोधाभास देखिए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार पर गणेश गोदियाल के इस्तीफे के बाद एक कार्यकारी अध्यक्ष बयान देते हैं कि उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष से इस्तीफे की आवश्यकता नहीं है क्योंकि प्रदेश अध्यक्ष के इस्तीफे के बाद पूरी प्रदेश कार्यकारिणी भंग मान ली जाती है लेकिन प्रीतम सिंह के प्रदेश अध्यक्ष से हटने के बाद इन मानकों की याद किसी को नहीं आई।
क्या आपको नहीं लगता 2017 के बाद आए प्रदेश प्रभारी अपनी भूमिका पार्टी हित में निभाने में नाकाम रहे?
निश्चित तौर पर नाकाम रहे। पहले से वरिष्ठ नेता प्रभारी बनकर आते थे तो वो गुटबाजी से दूर रहते थे। उनकी नजरों में पार्टी का हित सर्वोपरि होता था। लेकिन पिछले पांच सालों में प्रभारियों ने कुछ गुट विशेष के लोगों का हित साधने और कुछ खास नेताओं की राजनीति को चौपट करने का जो षड्यंत्र किया उसने कांग्रेस को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाया है।
आप बार-बार आरोप लगा रहे हैं कि हरीश रावत और उनके शुभचिंतकों को पार्टी के अंदर से ही हाशिए पर डालने का प्रयास किया। इन आरोपों का आधार क्या है?
मैं लंबे समय से राजनीति में हूं। प्रीतम सिंह का राजनीतिक जीवन और मेरा राजनीतिक जीवन लगभग बराबर है। मैंने कभी षड्यंत्रों की राजनीति नहीं की हमेशा गांधीवादी तरीके से राजनीति की है। सबसे पहले तो हरीश रावत को चुनाव लड़ने के लिए बाध्य करना गलत था। उनकी क्षमताओं का उपयोग पूरे प्रदेश में किया जाना चाहिए था। टिकट वितरण के समय ही देखिए प्रत्याशियों की दूसरी सूची के बाद जिस प्रकार अफरातफरी का माहौल बना उसने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया। लालकुआं से संध्या डालाकोटी को टिकट फिर हरीश रावत को रामनगर से लालकुआं, महेंद्र पाल को पहले कालाढूंगी फिर रामनगर इन सबसे जनता के मध्य गलत संदेश गया। हरीश रावत को रामनगर से लालकुआं भी उनकी राजनीति को खत्म करने का ही षड्यंत्र था। हरीश रावत जैसे बड़े कद के नेता को अपनी सीट चुनने का भी अधिकार नहीं और फिर एक कार्यकारी अध्यक्ष की ब्लैक मेलिंग के चलते उन्हें लालकुआं भेज दिया जब कि हरीश रावत रामनगर से आसानी से जीतते। मैंने तो हरीश रावत को तराई की सीट से चुनाव न लड़ने की सलाह दी थी और उनसे जागेश्वर से लड़ने का आग्रह किया था।
लेकिन प्रीतम सिंह तो कहते हैं कि ‘पांच साल तक फसल कोई बोए काटने कोई और पहुंच जाए।’ शायद उनका इशारा रामनगर सीट पर रणजीत रावत के संबंध में था क्या कहेंगे?
देखिए, ये सब दोहरे मापदंड की मिसाल है अगर इस पैमाने पर बात करें तो उत्तराखण्ड में इस राजनीति का शिकार सबसे ज्यादा हरीश रावत हुए हैं। 2002 और 2012 की बात करें। 2002 की राजनीतिक फसल कांग्रेस की सरकार के रूप में सामने आई जो हरीश रावत की मेहनत का परिणाम था। काटने नारायण दत्त तिवारी आ गये। इसी प्रकार 2012 में हरीश रावत की मेहनत का फल विजय बहुगुणा ले गये। उस समय हाईकमान का निर्णय सबने स्वीकार किया। जहां तक रामनगर की बात है तो 2017 से पहले भी कांग्रेस नेताओं ने रामनगर में मेहनत की होगी उनकी फसल भी कोई 2017 में काट ले गया। हरीश रावत ने 2002 और 2012 में हाईकमान का निर्णय स्वीकारा लेकिन 2022 में वो खुद दबाव में आ गया। जहां तक हरीश रावत के शुभचिंतकों का सवाल है तो वो जब चुनाव लड़ रहे थे वहां उन्हें हराने के संदेश पहुंचाए गये। कपकोट सीट पर एक कार्यकारी अध्यक्ष द्वारा चुनाव लड़ने के इच्छुक नेताओं को संदेश भेजा गया कि कब तक ललित फर्सवाण के पीछे लगे रहोगे। जब ये हारेंगे तब अगले चुनाव में तुम्हारा नम्बर आ पाएगा। ऐसे नेता इनके झांसे में आ गये और कपकोट की जीती हुई सीट हम हार गये। अल्मोड़ा, चम्पावत, भीमताल में भी यही किया गया।
आपने तो जागेश्वर विधानसभा में काफी विकास कार्य किये फिर वहां की जनता ने इस बार आपका साथ नहीं दिया? क्या विकास अब चुनाव जीतने का पैमाना नहीं है?
मुझे अफसोस इसी बात का है कि जागेश्वर विधानसभा में मेरे द्वारा किए गये विकास कार्यों के बजाए जनता ने भावनात्मक मुद्दों को तरजीह दी। अपनी विधानसभा में मुझे भाजपा से तो लड़ना ही था साथ ही मुझे उन षड्यंत्रों से भी पार पाना था जो प्रदेश स्तर के नेतृत्व ने रचे थे। 2012 से शुरुआत करें तो विधानसभा अध्यक्ष बनने के समय भाजपा को उकसा कर मेरे विरुद्ध हरबंश कपूर को विधानसभा अध्यक्ष प्रत्याशी के रूप में खड़ा किया जब कि प्रदेश में 2002 से ही निर्विरोध विधानसभा अध्यक्ष की परम्परा रही है। मेरी विधानसभा में मोहन सिंह महरा को मेरे विरुद्ध पार्टी के अंदर विरोधी के रूप में खड़ा करने का प्रयास किया गया जबकि उन्हें और उनकी पत्नी को जिला पंचायत अध्यक्ष मैंने ही बनवाया था। सबसे बड़ा षड्यंत्र तो मेरे विरुद्ध राहुल गांधी की मेरे क्षेत्र में चुनावी जनसभा के दिन किया गया। पहले से तय व्यवस्था को धता बताते हुए प्रभारी देवेन्द्र यादव और प्रीतम सिंह राहुल गांधी की रैली की समाप्ति पर हैलीपैड पर तो आए लेकिन उन्होंने न सभा स्थल पर आने की जहमत उठाई न ही मुझसे मिलने की, इससे भाजपा ने पूरे क्षेत्र में अफवाह फैला दी कि प्रदेश के नेता ही गोविंद सिंह कुंजवाल को चुनाव हरवाना चाहते हैं।
2022 में हरीश रावत को किसी भी कीमत पर रोकना है भले ही कांग्रेस हार जाये हम 2027 तक इंतजार कर लेंगे तब तक हरीश रावत हाशिए पर जा चुके होंगे, ऐसी चर्चाओं में कहां तक दम है?
‘दि संडे पोस्ट’ ने तो इस बात का जिक्र विधानसभा चुनावों से काफी पहले ही कर दिया था। ये बातें हमसे भी लोगों ने कहीं। अगर इनमें सच्चाई है तो कांगेस हाईकमान को इसमें संज्ञान लेकर कार्रवाई करनी चाहिए। भले ही भितरघात करने वाले नेता अपने षड्यंत्रों में कामयाब हो गये हैं लेकिन उन्हें नहीं भूलना चाहिए ऐसी परिस्थितियों से हरीश रावत पहले भी दो-चार हो चुके हैं वो इनका सामना कर और मजबूत होकर उभरे हैं। हरीश रावत के बिना उत्तराखण्ड कांग्रेस की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। 2024 और 2027 दोनों चुनावों में हरीश रावत पूरे दमखम के साथ कांग्रेस के साथ होंगे। जो इस मुगालते में है कि हरीश रावत चूक गये हैं आने वाला समय उनकी गलतफहमी को खत्म कर देगा।
टिकट बेचने का आरोप उससे पहले सल्ट विट्टानसभा चुनाव में पार्टी और प्रत्याशी विरोधी वक्तव्य, कांग्रेस में अनुशासन का कोई पैमाना है या नहीं?
हरीश रावत पर टिकट बेचने का आरोप राजनीति का निम्नतम स्तर है। जहां तक अनुशासनहीनता की बात है ये सब प्रभारी देवेंद्र यादव की शह पर है। गंगा पंचोली ने सल्ट उपचुनाव में अपनी हार का जिम्मेदार रणजीत रावत को मानते हुए शिकायत की थी वो कहां धूल फांक रही है पता नहीं। अविनाश पाण्डे ने टिकट बेचने के आरोप पर नोटिस जारी करने की बात की है लेकिन उस पर कितना अमल होगा पता नहीं। सल्ट के बाद कड़ा कदम उठाया होता तो आज यह नौबत नहीं आती।
सामूहिक नेतृत्व की बात कर चेहरा न घोषित करना और चार कार्यकारी अध्यक्षों की नियुक्ति क्या कांग्रेस के लिए नुकसानदेह रहे?
निश्चित ही नुकसान हुआ। हरीश रावत तो बहुत पहले से चेहरे को आगे रखकर चुनाव लड़ने की बात कह रहे थे भले ही वो प्रीतम सिंह या कोई अन्य हो। लेकिन जो सामूहिक नेतृत्व पर चुनाव लड़ने की बात पर जोर दे रहे थे उन्हें खुद के चेहरे पर भरोसा नहीं था सो वो अपनी सीमित क्षमता को सामूहिक नेतृत्व की आड़ में छिपा देना चाहते थे। भाजपा का चेहरा पुष्कर सिंह धामी थे। जनता सवाल पूछती थी आपकी पार्टी का चेहरा कौन है? हालांकि जनता हरीश रावत में वह छवि देखती थी। चेहरा घोषित न करने का खामियाजा भी कांग्रेस को भुगतना पड़ा। जहां तक चार कार्यकारी अध्यक्षों का सवाल है उत्तराखण्ड जैसे छोटे राज्य में यह प्रयोग ही गलत था। आपने स्वयं आकलन किया होगा कि इसने गुटबाजी को बढ़ावा दिया।
कांग्रेस के लिए आप आगे का भविष्य क्या देखते हैं खासकर उत्तराखण्ड में?
2022 के विधानसभा चुनाव उत्तराखण्ड में कांग्रेस के लिए झटका जरूर है लेकिन सब खत्म हो गया हो ऐसा नहीं है। कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व को उत्तराखण्ड के परिपेक्ष्य में ठोस व कठोर निर्णय लेने होंगे। गणेश गोदियाल की सांगठनिक क्षमता को परखा जाना अभी बाकी है क्योंकि छह माह का कार्यकाल काफी कम समय है और नेता प्रतिपक्ष भी उसे चुना जाना चाहिए जिसकी
प्राथमिकता पार्टी का हित हो गुटबाजी नहीं और जिसका संवाद जनता व कार्यकर्ताओं से हो। द साथ में हरेंद्र कुमार
देवेंद्र-प्रीतम का मकसद था हरदा को हराना
‘पार्टी के बड़े नेताओं की प्राथमिकता में कांग्रेस की जीत की मंशा तो दूर-दूर तक नहीं थी उनकी प्राथमिकताओं में तो एक मकसद था हरीश रावत को राजनीतिक तौर पर नुकसान पहुंचाना और उनकी राजनीति को खत्म करना। सिर्फ हरीश रावत ही नहीं उनसे सहानुभूति रखने वाले पार्टी के अंदर हर शख्स को इन चुनाव में नुकसान पहुंचाने की कोशिश की गई। इन षड्यंत्रों में प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव और नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह की भूमिका सबसे बड़ी थी। जिन पर कांग्रेस को खड़ा करने की जिम्मेदारी थी वो ही इन पांच सालों में कांग्रेस की जड़ों को कमजोर करते गए।’
चूके नहीं हैं रावत अभी
‘भले ही भितरघात करने वाले नेता अपने षड्यंत्रों में कामयाब हो गये हैं लेकिन उन्हें नहीं भूलना चाहिए ऐसी परिस्थितियों से हरीश रावत पहले भी दो-चार हो चुके हैं वो इनका सामना कर और मजबूत होकर उभरे हैं। हरीश रावत के बिना उत्तराखण्ड कांग्रेस की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। 2024 और 2027 दोनों चुनावों में हरीश रावत पूरे दमखम के साथ कांग्रेस के साथ होंगे। जो इस मुगालते में है कि हरीश रावत चूक गये हैं आने वाला समय उनकी गलतफहमी को खत्म कर देगा।’
अनुशासनहीनता को यादव ने दिया बढ़ावा
‘हरीश रावत पर टिकट बेचने का आरोप राजनीति का निम्नतम स्तर है। जहां तक अनुशासनहीनता की बात है ये सब प्रभारी देवेन्द्र यादव की शह पर है। गंगा पंचोली ने सल्ट उपचुनाव में अपनी हार का जिम्मेदार रणजीत रावत को मानते हुए शिकायत की थी वो कहां धूल फांक रही है पता नहीं। अविनाश पाण्डे ने टिकट बेचने के आरोप पर नोटिस जारी करने की बात की है लेकिन उस पर कितना अमल होगा पता नहीं। सल्ट के बाद कड़ा कदम उठाया होता तो आज यह नौबत नहीं आती।’