यादों का सिलसिला-पदयात्राएं -2
हरीश रावत, पूर्व मुख्यमंत्री, उत्तराखण्ड
अभी-अभी जिस चुनाव को हम बुरी तरीके से हार गए, इसमें भी सर्वाधिक पदयात्राएं वोट मांगने के लिए मैंने ही की होंगी। इस उम्र में भी पदयात्रा के नाम से मेरे पांव थिरकने लगते हैं, शरीर में भले ही शक्ति हो या न हो, लेकिन मन की शक्ति भावों को आगे बढ़ाती रहती है। यह शक्ति जिन अक्षय पात्रों से मिलती है, उन अक्षय पात्रों की एक पदयात्रा का मैंने अभी अभी आपसे जिक्र किया है और मैं यह जिक्र आने वाली पीढ़ियों तक पदयात्राओं के संदेश को पहुंचाने के लिए कर रहा हूं। बहुत सारे लोग मुझसे जुड़े हुए हैं। पार्टी में भी, पार्टी से बाहर भी बहुत सारे लोग मेरा अनुसरण करते हैं, उन लोगों तक यह संदेश पहुंचाने के लिए कर रहा हूं कि राजनीति में सब कुछ सहजता और सरलता से हासिल नहीं होता है। पदयात्रा, श्रमदान, हर तरीके का दान जिनमें विद्या दान भी सम्मिलित है, सेवा दान भी सम्मिलित है, यदि हम जीवन का हिस्सा बनाएंगे तो परमपिता परमेश्वर आपको जरूर अनुग्रहित करेंगे
यूं तो मैंने कई उल्लेखनीय पदयात्राएं की, जिनका समापनीय उल्लेख मैं 1981 की कैलाश मानसरोवर की ऐतिहासिक यात्रा के साथ करूंगा। अपने सामाजिक, राजनीतिक जीवन की एक शुरुआती पदयात्रा जिसको यदि मैं शिक्षण संस्था के लिए चंदा इकट्ठा करो पदयात्रा कहूं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, का ब्यौरा दे रहा हूं। लखनऊ विश्वविद्यालय में मैं एलएलबी कर रहा था। उस दौरान लखनऊ में अभूतपूर्व बाढ़ आ गई। कुछ दिन तो बाढ़ राहत के कामों में हम सब दोस्त लगे रहे, हॉस्टल बंद हो गए, यूनिवर्सिटी भी बंद हो गई। मैंने सोचा कि घर जाकर मां से मिल आऊं। घर आया तो घर की दशा देखकर मुझे लगा कि अपनी मां के ऊपर कितना अत्याचार कर रहा हूं। मुझे घर पर रहकर ही अपने लिए नौकरी खोजनी चाहिए। खैर, जब तक मैं नौकरी के विषय में कुछ सोचता और तलाश प्रारंभ करता, चौनलिया हाई स्कूल में कुछ दोस्त, हमउम्र मिल बैठकर अपराÐ में गपशप करने लगे। हमारी गपशप मंडली में, मैं, मोहन सिंह बिष्ट थोकदार, हरीश चंद्र चौधरी, आनंद असवाल, जीवन सिंह कड़ाकोटी जी, पितांबर पांडे जी, दुर्गा सिंह मनराल जी, कुंदन सिंह नेगी, अदबोड़ा के मोहन सिंह रावत, हउली के रामलाल जी और कभी-कभी अदबोड़ा के कुंवर सिंह रावत जी ये सब लोग इकट्ठा होते थे और आपस में गपशप करते थे। गपशप के दौरान हम लोगों ने स्कूल के लिए कुछ कमरे श्रमदान से बनाने की ठान ली। चौनलिया उस समय मान्यता प्राप्त हाई स्कूल था, मगर विज्ञान का विषय तब तक वहां नहीं था। शाम के वक्त सड़क के किनारे जंगलों से पत्थर लुढ़का कर हम इकट्ठा करते थे और उस समय रामनगर से जो ट्रक सामान लेकर के आते थे और लौटते थे, तो हम उनकी मदद लेकर उन पत्थरों को चौनलिया पर उतार देते थे। हमने दो कमरे बनाने के लायक पत्थर इकट्ठा कर लिए। फिर पैसा इकट्ठा करने की बात आई जिससे हम सीमेंट, बजरी, मिस्त्री आदि का खर्चा वहन कर सकें। हमने तय किया कि पूरे इलाके की पदयात्रा करेंगे और लोगों से मडुवा-धान इकट्ठा करेंगे। क्योंकि उस समय मडुवे-धान की फसल थी उसको बेच करके जो पैसा आएगा, उससे काम करवाएंगे। कुछ लोगों से रुपए लेंगे जो नगद दे सकेंगे। खैर हमने मुहिम प्रारंभ की तो लोगों ने उत्साह पूर्वक साथ देना शुरू किया। हमारे गांव के प्रधान नाथू सिंह जी भी जुड़ गए। अदबोड़ा के मेरे छोटे मामा कुंवर सिंह जी का बड़ा आशीर्वाद मिलने लगा। इस तरीके से इलाके के वरिष्ठ लोग चामू सिंह बिष्ट जी, खीम सिंह कठायत जी, प्रेम सिंह रौतेला जी, नरदेव जी, पदम सिंह जी जिनको लोग नेताजी कहकर संबोधित करते थे, जगत सिंह बिष्ट जी, सब मूर्धन्य लोग इस अभियान को आशीर्वाद देने लगे। हमने बहुत सारा अनाज भी इकट्ठा किया और उसको बेचा। उस समय के मूल्य के अनुसार लगभग ₹4000 मिले और ₹1000 नगद चंदा भी इकट्ठा हो गया।
फिर हमने सोचा, दिल्ली में हमारे ककलासों पट्टी के बहुत लोग रहते हैं, हम उनसे क्यों नहीं पैसा इकट्ठा करें। दिल्ली पहुंचे तो लगा कि हम जितना किसी से चंदे में लेंगे उससे ज्यादा तो हमारा आने-जाने में खर्च हो जाएगा। वहां भी हम नजदीक- नजदीक सब लोगों के पास पैदल जाते थे, तो वह पदयात्रा चलती रही और उस चंदा पदयात्रा का परिणाम यह रहा कि हम दो कक्ष तो चंदे व श्रमदान से और तीन कक्ष बड़े दानदाताओं, जगत चौधरी जी की ठुलि इजा, मोती सिंह जी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कुंवर सिंह कठायत जी ने दान देकर बनाए। अनिवार्य शर्त थी स्कूल को विज्ञान की मान्यता दिलाना। जिनके लिए विज्ञान की प्रयोगशाला का निर्माण आवश्यक था। हमको प्रयोगशाला का कक्ष बनाने में सफलता मिल गई। मैंने लखनऊ विश्वविद्यालय के अपने संपर्कों के आधार पर किसी तरीके से हाई स्कूल में विज्ञान की मान्यता प्राप्त की। हमारा उत्साह बढ़ गया, हमने इंटर की कक्षाओं की नींव साथ-साथ डाल दी। भगवान की कृपा रही कि चंदा अभियान, श्रमदान अभियान के परिणाम स्वरूप रिकॉर्ड टाइम में हमको इंटर आर्टस् की और बाद में जब मैं ब्लॉक प्रमुख हो गया तो, इंटर-साइंस की भी मान्यता मिल गई और चौनलिया एक संपूर्ण इंटर कॉलेज के रूप में स्थापित हो गया। शिक्षा आशीर्वाद देती है। शिक्षा सेवा से मुझे भी आशीर्वाद प्राप्त हुआ। यह मेरी जीवन यात्रा का पहला सार्वजनिक काम था। स्कूल कमेटी ने अपनी प्रबंधक समिति का मुझे स्थाई मंत्री भी बनाया। मोहन सिंह थोकदार, पितांबर दत्त जी, जीवन सिंह जी, मोहन जूनियर, दुर्गा सिंह जी, कुंदन सिंह जी, गुजर गड़ी के कुंदन और सब लोगों को इस शिक्षण संस्थान ने अपना आशीर्वाद दिया और सब जीवन में महत्वपूर्ण दायित्वों में लग गए। कुछ लोग वहीं से सेवानिवृत्त भी हो गए और कुछ लोग अन्यत्र सेवारत रहे। कुछ अच्छे ठेकेदार बने। आज भी उनमें से कुछ लोग सामाजिक जीवन में सक्रिय हैं। कुछ दिवंगत हो गए हैं। उस चंदा परिक्रमा यात्रा ने मुझे एक तथ्य रटा दिया। वह तथ्य था यदि चल पड़ो तो राह बनती चलती है।
हमारे गांव में जिस व्यक्ति को लोग प्रधान बनाना चाहते थे, वह प्रधान नहीं बनना चाहते थे। उन्होंने कहा नहीं, मुझे यह लिखत पढ़त का काम नहीं आता। तय यह हुआ कि यदि मैं उपप्रधान बन जाऊं, तो नाथू सिंह प्रधान बनेंगे। चचा को लेकर के, हमारे दूसरे चाचा मोहन सिंह जी जो दिल्ली में सेवारत थे, मैं विकासखंड मुख्यालय पहुंचा। वहां मेंबरी का फार्म कट रहे थे, हम वहां से ब्लॉक प्रमुख का पर्चा काट कर के आ गए। चौनलिया आकर मैंने अपनी मित्र मंडली से कहा ‘यार यह तो हो गया, अब आगे क्या होगा?’ मित्र मंडली ने कहा ‘चलो जरा सयाने लोगों से बातचीत करते हैं।’ वरिष्ठ लोगों व प्रधानों का आशीर्वाद लेने के लिए हम सब लोग अपने इलाके के गांव-गांव में गए। हमारे इलाके में थोड़ा तल्ला-मल्ला ककलासों शब्द चलता था। लेकिन हमने दोनों ककलासों यानी तल्ला ककलास पट्टी और मल्ला ककलास पट्टी को जोड़ दिया। फिर तय किया कि नया और दोरा पट्टी को भी जोड़ना है। खैर नया में तो भिकियासैंण में ही कई लोग मिल जाते थे, फिर भी हमने कहा नहीं, हमें गांव-गांव जाना है। वोट मांगने की जो पहली पदयात्रा हुई वह भी मेरे जीवन की अविस्मरणीय पदयात्राओं में है। उस पदयात्रा ने मुझे कई तरीके से संकल्पित किया और एक प्रकार से यदि स्कूल के लिए चंदा मांगने को अपने जीवन का पहला प्यार समझूं तो शादी-विवाह में जूठे पत्तल उठाना, लोगों को खाना सर्व करना, उससे पहले जब मैं हाई स्कूल इंटर में पढ़ता था, कभी छुट्टियों में घर आता था तो गांव के लड़के सब मिलकर के रास्ते साफ करते थे, यह ऐसी चीजें थी जो संस्कार गत तरीके से मेरे स्वभाव का हिस्सा बन गए। राजनीतिक कर्म क्षेत्र में ककलासों की पदयात्रा के बाद मेरी दूसरी पदयात्रा थी बाड़ीकोट से बेल्टी व जन-धमेड़ा तक। जब बाड़ीकोट से रास्ता लगे और बेल्टी की चढ़ाई दिखी और दोपहर की तपती हुई धूप तो मन में बड़ी खलबलाहट हुई। मामला जरा चुनौतीपूर्ण था। लेकिन मोहन आदि लोग साथ ही थे, उन्होंने कहा नहीं, वोट मांगने के लिए जाना तो सबके पास जाना है। वोट मांगना है। हमको प्रेरणा मिली उन महिलाओं से जो भिकियासैंण से राशन खरीद कर उसकी बड़ी- बड़ी पोटलियों के साथ दोपहर की धूप में खड़ी चढ़ाई को चढ़ रही थी। हमने सोचा कि, हम तो 1-1 झोले के साथ लदबदा रहे हैं और ये महिलाएं दूर तक, बड़े बोझ के साथ चढ़ाई चढ़ रही हैं। उस तपती दोपहरी में उन महिलाओं के श्रम देख मेरे हाथ आसमान एवं पिता परमेश्वर की तरफ जुड़े। मैंने कहा यदि मैं ब्लॉक प्रमुख बना तो मैं इस सड़क को बनाऊंगा ही बनाऊंगा और ऐसी जहां-जहां दिक्कतें होंगी उन सड़कों को भी बनाऊंगा। इस पदयात्रा का उल्लेख यहां इस बात के साथ समाप्त करना चाहूंगा कि मेरे जीवन की वह सड़क निर्माण की पदयात्रा आज भी अथक तौर पर जारी है।
मुझे बेहद खुशी है कि मैं ब्लॉक प्रमुख, युवक कांग्रेस अध्यक्ष और सांसद के तौर पर अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत के दूरदराज के इलाकों में पदयात्राओं पर गया। आप अंदाजा लगा सकते हैं कपकोट से बदियाकोट जैसी पदयात्रा भी मैंने की। इन यात्राओं में केवल कैलाश मानसरोवर ही सम्मिलित नहीं है, उसमें दर्जनों ऐसी कठिन पदयात्राएं सम्मिलित हैं, जिनकी स्मृतियां जीवन के अंतिम दम तक मेरे साथ जुड़ी रहेंगी जिनमें सैकड़ों लोग मेरी उन पर यात्राओं के सहभागी बने। अब जब मैं 1-1 पदयात्रा पर कुछ लिख रहा हूं, तो उनके चेहरे उभर कर के मेरे सामने आ रहे हैं। कई नाम, समय के प्रवाह के साथ विस्मृत जैसे हो जा रहे हैं। कहीं नाम विस्मृत हो जा रहे हैं तो कहीं गांवों के नाम विस्मृत हो जा रहे हैं। लेकिन मुझे इन पदयात्राओं ने ढाला, बनाया और आज भी उन पदयात्राओं की जुंबिश मेरे शिथिल पड़ते हुए नाड़ी तंत्र में एक नए उत्साह का संचार करती हैं। अभी-अभी जिस चुनाव को हम बुरी तरीके से हार गए इसमें भी सर्वाधिक पदयात्राएं वोट मांगने के लिए मैंने ही की होंगी। इस उम्र में भी पदयात्रा के नाम से मेरे पांव थिरकने लगते हैं, शरीर में भले ही शक्ति हो या न हो, लेकिन मन की शक्ति भावों को आगे बढ़ाती रहती है। यह शक्ति जिन अक्षय पात्रों से मिलती है, उन अक्षय पात्रों की एक पदयात्रा का मैंने अभी अभी आपसे जिक्र किया है और मैं यह जिक्र आने वाली पीढ़ियों तक पदयात्राओं के संदेश को पहुंचाने के लिए कर रहा हूं। बहुत सारे लोग मुझसे जुड़े हुए हैं। पार्टी में भी, पार्टी से बाहर भी बहुत सारे लोग मेरा अनुसरण करते हैं, उन लोगों तक यह संदेश पहुंचाने के लिए कर रहा हूं कि राजनीति में सब कुछ सहजता और सरलता से हासिल नहीं होता है। पदयात्रा, श्रमदान, हर तरीके का दान जिनमें विद्या दान भी सम्मिलित है, सेवा दान भी सम्मिलित है, यदि हम जीवन का हिस्सा बनाएंगे तो परमपिता परमेश्वर आपको जरूर अनुग्रहित करेंगे।
अपनी पदयात्रा की शृखला के अगले चरण में मैं आपसे एक बहुत ही दिलचस्प पदयात्रा का विवरण साझा करूंगा। आज भी उस पदयात्रा के 1-2 वाक्यों को याद कर एकांत में भी मुझे हंसी आ जाती है। ब्लॉक प्रमुख के रूप में नागार्जुन तक की मेरी यह पदयात्रा मेरे लिए हमेशा पथ-प्रदर्शक का काम करती रहेगी।