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Uttarakhand

सरकार की पोल खोलते बर्न वार्ड

 

सरकारी अस्पतालों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधा देने का राज्य सरकार तमाम दावा करती रहती है, लेकिन जमीनी हकीकत दावों से कोसो दूर होती है। बर्न इंजरी के मामलों में सरकारी अस्पतालों की उदासीनता किसी से छिपी नहीं है। उत्तराखण्ड के अस्पतालों में बर्न मरीजों का संतोषपूर्ण इलाज न होना सरकारी सिस्टम की पोल खोलता प्रतीत हो रहा है। गंभीर रूप से जले मरीज आइसोलेशन वार्ड के भरोसे रहते हैं। अत्याधुनिक चिकित्सा देने का दावा करने वाले एम्स हॉस्पिटल में अभी तक बर्न यूनिट स्थापित न हो पाना सरकार की चिकित्सा व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है

यूं तो पूरे प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है, लेकिन अगर कोई व्यक्ति आग में झुलस जाए तो उसके उपचार की व्यवस्था पहाड़ों में नहीं है। आए दिन इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं लेकिन उन्हें समुचित इलाज नहीं मिल पाता है। जिला अस्पतालों व सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में बर्न मरीजों के उपचार की अब तक कोई व्यवस्था नहीं बन पाई है। अकेले कुमाऊं मंडल जहां 50 लाख से अधिक लोग रहते हैं और जहां हर साल बर्न केसों की संख्या करीब 500 के आस-पास होती है वहां एक भी चिकित्सालय ऐसा नहीं है जहां पर जले हुए मरीजों को बेहतर उपचार मिल सके। अगर कहीं पर बर्न यूनिट बने भी हैं तो वहां बर्न स्पेशलिस्ट ही उपलब्ध नहीं है। जनता की बर्न यूनिट की मांग प्रस्ताव, रिमाइंडर, आश्वासन व खामोशी तक सिमट कर रह गई है। यह तब हो रहा है जब बर्न यूनिट के लिए केंद्र की अपनी परियोजना चल रही है। जहां सरकारी अस्पतालों में बर्न यूनिट का अभाव है तो वहीं प्राइवेट अस्पतालों में इसका इलाज काफी महंगा होता है।


इसके अलावा जहां बर्न यूनिट स्थापित है वहां पर भी उसका पूरा ढांचा नहीं बन पाया है। कहीं सिल्वर एक्स दवा नहीं मिलती तो कहीं अलग से नर्स तैनात नहीं हैं। सफाई की पर्याप्त सुविधा नहीं है। हर पल संक्रमण की पूरी आशंका बनी रहती है। बर्न यूनिट के मानकों के अनुसार अस्पताल में सेंट्रल ऑक्सीजन सप्लाई, प्लास्टिक सर्जरी, स्टाइलाइजेशन टेंपरेचर, सेचुरेशन, डेंसिग स्पेस व ट्रेंड नर्स का होना जरूरी है। बर्न यूनिट में बर्निग के मरीजों के लिए स्पेशल वार्ड होते हैं, जहां आम लोगों की जाने की अनुमति नहीं होती। इसके लिए चिकित्सकों की स्पेशल टीम होती है। जो बर्न के मरीजों का इलाज करती है। इस वार्ड में तापमान को नियंत्रित करने, दवा, मरीज के लिए स्पेशल गद्दे आदि की व्यवस्था भी होती है। बर्न विशेषज्ञ बताते हैं कि यदि थोड़ी -सी भी धूल झुलसे हिस्से पर पड़ती है तो जीवन पर खतरा पैदा हो जाता है। एक बर्न यूनिट में आइसोलेटेड बेड, स्पेशल टॉयलेट, बाथरूम, किचन, कपड़े धुलने के लिए लॉड्री आदि की व्यवस्था होती है। मरीजों के वार्ड पूरी तरह वातानुकूलित होते हैं। अलग से डॉक्टर व नर्सिंग स्टाफ की सुविधा होती है। यहां प्लास्टिक सर्जरी, फिजिकल चिकित्सक, नर्स तकनीशियन की एक पूरी टीम काम करती है। अगर सुसज्जित बर्न यूनिट हो तो वह आपातकालीन व रिकवरी देखभाल दोनों करती है।


कुमाऊं मंडल के सुशीला तिवारी राजकीय अस्पताल में बर्न यूनिट के लिए केंद्र ने बजट दिया लेकिन राज्य सरकार इसे खर्च तक नहीं कर पाई। जनपद बागेश्वर में अलग से आइसोलेशन वार्ड बनाया गया लेकिन मानकों के अनुसार यहां कोई सुविधा उपलब्ध नहीं कराई गई। जनपद पिथौरागढ़ में बर्न वार्ड तो बना दिया गया लेकिन बर्न यूनिट की व्यवस्था नहीं की गई। जनपद के किसी भी निजी अस्पताल में भी बर्न यूनिट की सुविधा उपलब्ध नहीं है। पूरे कुमाऊं में एक मात्र प्लास्टिक सर्जन हैं जो कि एसटीएच में तैनात हैं। हल्द्वानी मेडिकल कॉलेज की बर्न यूनिट के लिए 35 पद स्वीकृत हैं लेकिन बर्न यूनिट पर काम नहीं हो पा रहा है। यही हाल दून मेडिकल कॉलेज का भी है। 2017 से बर्न व ट्रामा सेंटर बनाने की कवायद धीमी गति से चल रही है। यही हाल जनपद चंपावत का भी है। यहां पर भी बर्न यूनिट न होने से मरीजों को सुविधा नहीं मिल पाती। चंपावत के किसी भी तरह के चिकित्सालय में बर्न यूनिट न होने से मरीज आइसोलेशन वार्ड के भरोसे रहते हैं। इन वाडों का लाभ यही होता है कि इसमें बर्न मरीज को अन्य मरीज से अलग रखा जाता है ताकि इंफेक्शन न फैले। अधिक जले मरीजों को यहां से सैकड़ों किमी ़दूर हल्द्वानी रैफर किया जाता है। ऋषिकेश में वर्ष 2010 में एम्स स्थापित हुआ।

2013 में ओपीडी, आईपीडी सेवाऐं शुरू हुई। 2014 में ट्रामा सेंटर बना। 100 विशेषज्ञ चिकित्सकों के साथ हेली एंबुलेंस की सुविधा शुरू हुई। लेकिन आज तक झुलसे हुए मरीजों के लिए बर्न यूनिट नहीं बन पाई। जबकि गंभीर मरीज व घायल हायर सेंटर रेफर होने के बाद एम्स ऋषिकेश लाया जाता है। लेकिन एम्स में अभी तक बर्न यूनिट स्थापित नहीं हो पाई है। यहां अत्याधुनिक ट्रामा सेंटर तो है लेकिन झुलसे हुए मरीजों के लिए यहां कोई सुविधा नहीं है। डीप बर्न के मरीजों को देहरादून रेफर करना मजबूरी है। हालांकि यहां पर बर्न यूनिट स्थापित न हो पाने की वजह यहां के भवनों में सेंटेलाइज्ड वातानुकूलित सिस्टम को माना जाता है, जिसमें बैक्टीरिया, फंगस और वायरस पनपने की संभावना रहती है जबकि झुलसे लोगों के लिए यही सबसे बड़ा खतरा माना जाता है। यहां सुपर फीशल बर्न के मरीजों को भर्ती किया जाता है लेकिन डीप बर्न के मरीजों को रेफर कर दिया जाता है।


यूं तो अस्पतालों में झुलसे हुए मरीजों के शरीर को संक्रमण से बचाने के लिए विशेष डोम की सुविधा होती है। डोम का उपयोग आगजनी से पीड़ित मरीजों के शरीर को ढकने के लिए किया जाता है। डोम एक स्टैंड होता है जिसमें हरे रंग का कपड़ा लगा होता है जो मरीज से लगभग एक फीट की दूरी पर होता है ताकि शरीर के जले हुए भाग पर कपड़ा न चिपक सके और उपचार में परेशानी न हो। बर्न वार्ड के मानक कहते हैं कि इस वार्ड में 20 से 25 डिग्री तापमान हर दिन मैंटेन होना चाहिए। दिन में तीन से चार बार फिनाइल से वार्ड की सफाई होनी चाहिए। लेकिन प्रदेश में ऐसा देखने में नहीं आ रहा है। देश की बात करें तो भारत में हर साल जलने से जख्मी होने के कारण आठ लाख मरीज अस्पतालों में भर्ती होते हैं। व्यापक पैमाने पर जलने की घटनाएं किसी आपदा से कम नहीं हैं। जलने की घटनाओं में जीवित बचने वाले मरीजों की संख्या अमूमन ज्यादा होती है लेकिन बचे लोग पहले की तरह काम नहीं कर पाते।

उन्हें कई तरह की शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक समस्याओं से जूझना पड़ता है। जलने की घटनाओं की भयावहता को देखते हुए पूर्व में इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर बर्न इंजुरीज ने नई दिल्ली में एक सम्मेलन का आयोजन किया। जिसमें तमाम विशेषज्ञों ने सर्वसम्मति से माना कि जलने के उपचार, प्रबंधन, पुनर्वास के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम चलाए जाने की जरूरत है। इस सम्मेलन में यह तथ्य भी निकलकर सामने आया था कि बड़े पैमाने पर जलने की घटनाएं किसी स्वास्थ्य आपदा से कम नहीं हैं। इससे पीड़ित रोगों के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। इसके अलावा विशेषज्ञों ने माना कि जलने से जख्मी हुए मरीजों के इजाल के लिए उपयुक्त ढांचें की कमी है। प्रशिक्षित डॉक्टरों व नर्सों के अभाव के साथ ही पर्याप्त उपचार की भी कमी है। इसके अलावा इसका इलाज काफी महंगा है। कुल मिलाकर जलने से जख्मी हुए मरीजों के इलाज की पर्याप्त व्यवस्था का ढांचा आज की आवश्यकता है।

राज्य की स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाया जायेगा। आपसी समन्वय बनाने और राज्यों को बेहतर सुविधाएं देने को जिला स्तर पर नोडल अधिकारी नामित किए जाएंगे। अफसरों की विभागीय कार्यप्रणाली में सुधार के निर्देश दिए गए हैं। केंद्र सरकार ने राज्य स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने के लिए 1130 करोड़ का बजट मंजूर किया है। इससे राज्य में नए अस्पताल, वेलनेस सेंटर व अन्य सुविधओं का विकास होगा।
डॉ. धन सिंह रावत, स्वास्थ्य मंत्री उत्तराखण्ड

 

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