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Uttarakhand

कांग्रेस पर भारी भाजपा की तैयारी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का चेहरा भाजपा की रीढ़ हैं। जैसे मोदी भाजपा के राष्ट्रीय स्तर पर ‘ब्रांड’ हैं उसी प्रकार ‘धामी ब्रांड’ उत्तराखण्ड में हावी है। राज्य बनने के बाद धामी पहले नेता हैं जो इतने सशक्त मुख्यमंत्री हैं जिनके आगे भाजपा का हर छोटा-बड़ा नेता नतमस्तक है। भाजपा के पास मजबूत संगठन उसका लोकसभा के लिए सकारात्मक पक्ष है। कांग्रेस की बात करें तो वो अभी भ्रम की स्थिति में नजर आती है। उत्तराखण्ड कांग्रेस की त्रासदी शायद यही है कि उसे चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों के चयन का इंतजार रहता है। तब पार्टी के विभिन्न गुटों के नेता उम्मीदवार के हिसाब से अपनी रणनीति और भूमिका तय करते हैं। अब जबकि लोकसभा चुनाव में चंद महीने बाकी हैं कांग्रेस पार्टी में कोई हलचल नजर नहीं आती। उत्तराखण्ड कांग्रेस के नेताओं को समझना होगा कि देहरादून में महज प्रेस कॉन्फ्रेंस के जरिए बयान जारी कर चुनाव नहीं जीता जा सकता उसके लिए तो लड़ाई जमीन पर ही लड़नी पड़ेगी

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद सभी राजनीतिक दलों का फोकस 2024 के लोकसभा चुनाव की ओर है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में जीतने के बाद जहां भारतीय जनता पार्टी उत्साह और आत्मविश्वास से लबरेज है वहीं कांग्रेस की महज तेलंगाना जीत से उसे सांत्वना के रूप में संतोष करना पड़ा है। तेलंगाना की जीत को हालांकि कमतर करके नहीं देखा जा सकता लेकिन सत्ता का सेमीफाइनल समझे जा रहे इन चुनावों ने कांग्रेस पार्टी को जख्म ज्यादा दिए हैं। मनोबल तोड़ने वाली इन पराजयों ने कांग्रेस की राह आगामी आम चुनाव के लिए कठिन कर दी है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में चार में पराजय ने कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को तो निराश किया ही है साथ ही प्रदेशों में भी कांग्रेस पार्टी के सामने कठिन चुनौती पेश कर दी है। उत्तराखण्ड भी ऐसे प्रदेशों में शामिल है। ऐसी चुनौती से पार पाने के लिए कांग्रेस को तैयार रहना होगा। 2024 के लोकसभा चुनाव महज पांच महीने दूर है। इस चुनाव में उतरने के लिए उत्तराखण्ड की राजनीतिक पार्टियां कितनी तैयार हैं मतदाताओं का सामना करने के लिए, उनके अपने किले कितने दुरुस्त हैं यह देखा जाना जरूरी है। यह भी देखना जरूरी है कि उनकी तैयारियां जमीन पर कितनी दुरुस्त हैं और क्या अभी तैयारियों के नाम पर महज हवाबाजी तो नहीं? ऐसे में सवाल यह भी है कि क्या मतदाता फिर कांग्रेस का हाथ थामेंगे या फिर मोदी के कमल को ही चुनेंगे?

उत्तराखण्ड बनने से पहले और बाद में लोकसभा चुनावों में लड़ाई कांग्रेस-जनसंघ, (बाद में भाजपा) के मध्य ही रही है। राज्य बनने से पहले कुछ अवसरों को छोड़ दे तो यहां हमेशा कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों में अपना परचम लहराया है। राज्य बनने के बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने पांचों सीटें जीती थी लेकिन 2014 एवं 2019 के चुनाव में कांग्रेस को पांचों सीटें हारने और तेजी से गिरते जनाधार को राज्य ने देखा है। अब जब 2024 का चुनाव नजदीक है और राजनीतिक पारिस्थितियों का जमीनी आकलन करें तो पता चलता है कि इस बार भी मुख्य मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी के मध्य ही नजर आता है। पिछले विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने उत्तराखण्ड की राजनीति में दस्तक जरूर दी थी लेकिन उन चुनावों में उसकी दुगर्ति ने उसकी संभावनाओं को नगण्य कर दिया है। अब सवाल है कि भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की जमीनी तैयारियां कितनी और कैसी हैं? किन चुनावी मुद्दों के साथ ये पार्टियां चुनावों में उतरेंगी? आज के राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें तो भाजपा के मुकाबले कांग्रेस जमीन पर उतनी नजर नहीं आती जैसा की चुनावों से पूर्व राजनीतिक दल को होना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो वो दिन के चौबीसों घंटे चुनावी मोड में रहती है। उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए हर कार्यक्रम चुनावी मुहिम से जुड़ा होता है। उसके अनुषांगिक संगठनों के कार्यक्रम भी अंततोगत्वा भाजपा को ही मजबूती देते हैं। सिलक्यारा जैसी सुरंग घटना को भी भाजपा अपने पक्ष में ले जाती है जबकि तकनीकी विफलता को कांग्रेस बड़ा मुद्दा बना सकती थी मगर ऐसा हुआ नहीं। भाजपा का मजबूत कैडर और उसके संगठननिष्ठ कार्यकर्ता उसकी सबसे मजबूत ताकत हैं।

नेताओं में भले ही गुटबाजी हो लेकिन संगठन स्तर पर पार्टी को कोई नुकसान पहुंचाने की फिलहाल परंपरा भाजपा में नहीं रही। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा में बड़ा बदलाव देखने को मिला है। अब भाजपा के लोग पार्टी की नीतियों पर नहीं नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांगते हैं। प्रधानमंत्री मोदी की छवि और अमित शाह के कड़े तेवरों ने पार्टी के असंतुष्टों पर लगाम लगाने का काम किया है। अब भाजपा में असंतुष्ट नेताओं के तेवर वैसे नजर नहीं आते जैसे कभी पूर्व में हुआ करते थे। उत्तराखण्ड में सरकार के अलावा भाजपा का संगठन जमीनी स्तर पर हमेशा सक्रिय रहा है। मोदी का चेहरा और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का चेहरा भाजपा की रीढ़ हैं। जैसे नरेंद्र मोदी भाजपा के राष्ट्रीय स्तर पर ‘ब्रांड’ हैं उसी प्रकार ‘धामी ब्रांड’ उत्तराखण्ड में हावी है। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद पुष्कर सिंह धामी पहले नेता हैं जो इतने सशक्त मुख्यमंत्री हैं जिनके आगे भाजपा का हर बड़ा-छोटा नेता नतमस्तक है। भारतीय जनता पार्टी के पास नरेंद्र मोदी और पुष्कर सिंह धामी का चेहरा, मजबूत संगठन उसका लोकसभा के लिए सकारात्मक पक्ष है। जिस प्रकार भाजपा में राष्ट्रीय स्तर से लेकर बूथ स्तर तक हर एक की जवाबदेही तय है उसने भाजपा संगठन के पेंच कसे हैं। कांग्रेस के एक पूर्व प्रदेश अध्यक्ष स्वीकार करते हैं कि भारतीय जनता पार्टी अगर सरकार में भी हो तो उसके संगठन को हर स्तर पर महत्व मिलता है। संगठन की अनदेखी नहीं होती और यही भाजपा को ताकत देता है। लोकसभा चुनाव की आहट के साथ भाजपा ने ईजा-बैणी सम्मेलन, कुमाऊं-गढ़वाल में अनुसूचित मोर्चा के सम्मेलन के साथ चुनावी तैयारियां शुरू कर दी हैं। भाजपा से लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार कोई भी हो लेकिन चुनाव का मुख्य चेहरा प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ही होंगे।

कांग्रेस पार्टी की बात करें तो वो अभी भ्रम की स्थिति में नजर आती है। उत्तराखण्ड कांग्रेस की त्रासदी शायद यही है कि उसे चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों के चयन का इंतजार रहता है। तब पार्टी के विभिन्न गुटों के नेता उम्मीदवार के हिसाब से अपनी रणनीति और भूमिका तय करते है। अब जबकि लोकसभा चुनाव में चंद महीने बाकी हैं कांग्रेस पार्टी में कोई हलचल नजर नहीं आती। उत्तराखण्ड कांग्रेस के नेताओं को समझना होगा कि देहरादून में महज प्रेस के जरिए बयान जारी करके चुनाव नहीं जीता जा सकता उसके लिए तो लड़ाई जमीन पर ही लड़नी पड़ेगी। वो जमीनी स्तर पर भी दिखनी चाहिए। सोशल मीडिया से चुनाव जीते जा सकते तो कांग्रेस को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हार का सामना नहीं करना पड़ता। जमीनी स्तर पर आपके कामों में सोशल मीडिया एक सपोर्ट की भूमिका जरूर निभा सकता है। उत्तराखण्ड कांग्रेस के नेता सरकार और भाजपा के खिलाफ बयान जारी कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ बैठे है। कांग्रेस पार्टी अपने दृष्टिकोण के उस अंतर को लोगों के सामने लाने में विफल रही है जिससे वो आम आदमी को समझा सके कि वो अब भी भाजपा का विकल्प बन सकती है और क्यों बन सकती है? शायद ये बड़ी चुनौती है।

2014 से पहले कांग्रेस और भाजपा में टक्कर की लड़ाई दिखाई देती थी लेकिन 2014 खासकर 2016 में कांग्रेस के कई नेताओं के भाजपा में शामिल होने के बाद कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में जो शून्य आया कांग्रेस उसे अब तक भर नहीं पाई। भाजपा में गए नेता भले ही पूरे उत्तराखण्ड में प्रभाव न रखते हों लेकिन अपनी विधानसभा क्षेत्रों के वो क्षत्रप थे ही। हमेशा सत्ता और शक्ति से पोषित कांग्रेस के नेता कांग्रेस पार्टी के सूखे चारागाह से भाजपा के हरे भरे चारागाह की तरफ निकल गए जिसने कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी की हैं। आगामी लोकसभा चुनाव के लिए चुनौतियां कम नहीं है। कई ऐसे कारक हैं जो कांग्रेस की लड़ाई को कठिन बनाते हैं। भाजपा के पास मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के रूप में चेहरा है लेकिन कांग्रेस के पास करिश्माई नेता नहीं बचा। हरीश रावत उम्र के उस पड़ाव में हैं जहां से वो सीमित भूमिका निभा सकते हैं। कोई और नेता ऐसा नहीं है जो अपने बूते पर चुनाव में कांग्रेस की संभावनाओं को उजला बना सके। मतदाताओं का विश्वास जीतने के लिए भरोसेमंद सियासी अफसानों के साथ जरूरत ऐसी रणनीति की है जो सटीक तौर पर लागू भी हो। प्रदेश में कांग्रेस का काम आंकड़ों की जुगाली से नहीं चलने वाला, क्योंकि सियासत महज गुणा-भाग से कहीं ज्यादा है और चुनावी गणित हमेशा सफल होने की गारंटी नहीं होते। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता जो पूर्व में जिलाध्यक्ष भी रहे का कहना है कि भाजपा जैसी पार्टी से मुकाबला करने के लिए एडहॉक व्यवस्था से काम नहीं चलेगा चौबीसों घंटे चुनावी मोड में रहने वाली भाजपा की मशीनरी के सामने वैसा ही विकल्प खड़ा करना होगा। कांग्रेस पार्टी महज चुनावों के वक्त जागने वाली पार्टी बनी रही तो आगे की राह और भी मुश्किल होने वाली है।

कांग्रेस के लिए बड़ी समस्या पार्टी के अंदर गुटबाजी है। शायद कमजोर सांगठनिक ढांचा इसी का कारण है। कांग्रेस सरकारों के समय पार्टी संगठन की अनदेखी और गुटबाजी के चलते पार्टी का निचला कमजोर संगठन पार्टी की योजनाओं और नैरेटिव को आम आदमी तक पहुंचाने में नाकाम रहा है। बूथ स्तर तक समितियां गठन हो जाने के दावे चुनाव के समय फेल नजर आते हैं। राज्य प्रभारी जिन पर राज्य में समन्वय की जिम्मेदारी होती है वो स्वयं गुट विशेष को तरजीह देते नजर आते हैं। कांग्रेस के एक पूर्व महासचिव का ये कहना शायद एक हद तक सही है कि प्रदेश में कांग्रेस के पास गंवाने के लिए अब बहुत कुछ बचा नहीं है। ऐसे में कांग्रेस आलाकमान पुराने क्षत्रपों को मार्गदर्शक की भूमिका में रख नए नेतृत्व को उभारने का जोखिम उठाने की हिम्मत करे तो भविष्य में नए नेतृत्व के उभरने की संभावनाएं बना सकता है। कुल मिलाकर आगामी लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस की राह आसान नहीं है। उसे अपनी किलेबंदी को दुरुस्त करने के लिए काफी कुछ करना है। आज के दिन चुनाव की तैयारियों में भाजपा कांग्रेस से काफी आगे है। देखना होगा कि कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा के खिलाफ कैसे और किन मुद्दों को लाकर भाजपा के सामने चुनौतियां पेश करती है।

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