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Uttarakhand

राज्यसभा सीट पर भाजपा ने साधे निशाने

नरेश बंसल को राज्यसभा भेजकर भाजपा ने महत्वपूर्ण सियासी समीकरण साधे हैं। पहाड़ और मैदान का संतुलन रखने के साथ ही संदेश दिया है कि पैराशूट से टपकाकर किसी को राज्यसभा नहीं भेजा जाएगा

 

उत्तराखण्ड की राजनीति में राज्यसभा सीट बाहरी लोगों को संसद में पहुंचाने के लिए जानी जाती रही है। राज्य बनने के बाद उत्तराखण्ड कोटे से कई बड़े दिग्गज नेताओं को संसद का रास्ता मिलता रहा है। कांग्रेस के कैप्टन सतीश शर्मा, सत्यव्रत चतुर्वेदी, राज बब्बर तो भाजपा से सुषमा स्वराज, संघ प्रिय गौतम और तरुण विजय जैसे नेताओं की राजनीति को संभालने के लिए उत्तराखण्ड मुफीद रहा है। हालांकि बाद में राज्य के नेताओं को भी बराबर मौका मिला जिसमें कांग्रेस के महेंद्र माहरा, मनोरमा शर्मा डोबरियाल और प्रदीप टम्टा राज्यसभा पहुंचे हैं, तो भाजपा से मनोहरकांत ध्यानी, अनिल बलूनी का नाम लिया जा सकता है। इसी कड़ी में अब नरेश बंसल भी राज्यसभा सांसद निर्वाचित होकर संसद की पारी खेलेंगे।

तकरीबन पचास साल से संघ और भाजपा की राजनीति में अपनी पकड़ मजबूती से रखने वाले नरेश बंसल 2002-09 तक भाजपा के प्रदेश संगठन महामंत्री रह चुके हैं। प्रदेश भाजपा संगठन में महामंत्री का दायित्व भी नरेश बंसल संभालते रहे हैं। उत्तराखण्ड भाजपा की अंदरूनी राजनीति में कहा जाता है कि नरेश बंसल और महामंत्री का पद एक-दूसरे के लिए ही बने हैं। देखा जाए तो यह बात गलत भी नहीं है। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद से लगातार नरेश बंसल प्रदेश भाजपा संगठन में महामंत्री के पद पर नियुक्त होते रहे हैं। हालांकि प्रदेश अध्यक्ष बदलते रहे हैं लेकिन नरेश बंसल की महामंत्री की कुर्सी पर कभी कोई आंच तक नहीं आई। वर्ष 2012-019 तक नरेश बंसल प्रदेश महामंत्री के पद पर काम कर चुके हैं।

बंसल का ऐसा जलवा रहा है कि वे कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष के पद पर भी तैनात हो चुके हैं। वर्तमान त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार में बीस सूत्रीय कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति में उपाध्यक्ष के पद पर काबिज हैं। यानी उन्हें कैबिनेट मंत्री स्तर का दर्जा दिया गया है। जबकि वर्ष 2009-12 तक वह तत्कालीन भाजपा सरकार में आवास एवं विकास परिषद के उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं। इसके अलावा भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में स्थाई आमंत्रित सदस्य भी बंसल रह चुके हैं। वह प्रदेश में 2012 में चुनाव अभियान समिति के सचिव रहे।

बंसल को इस बार राज्यसभा सीट से उम्मीदवारी देकर भाजपा ने एक साथ कई तीर साधे हैं। जिसमें सबसे बड़ा पहाड़ और मैदान का समीकरण है। लोकसभा के पांचों सांसद सहित राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी पहाड़ी पृष्ठभूमि के माने जाते हैं। लिहाजा मैदानी क्षेत्र और वैश्य समाज से राज्यसभा सांसद बनाकर मैदानी क्षेत्र को साधने का प्रयास किया गया है।

उत्तराखण्ड में भाजपा-कांग्रेस ने राज्यसभा सीट पर पार्टी के नेताओं को एडजेस्ट करने का जो रवैया अपनाया है उसको लेकर दोनों ही दलों में भारी रोष भी देखा गया है। कांग्रेस के राज बब्बर का कार्यकाल समाप्त होने के बाद राज्यसभा की इस सीट पर तमाम तरह के कयास लगाए जा रहे थे। माना जा रहा था कि इस बार भाजपा किसी पैराशूट प्रत्याशी को उम्मीदवार बनाएगी। श्याम जाजू और महेंद्र पांडे का नाम सबसे ज्यादा चर्चाओं में था। साथ ही शौर्य डोभाल और सुरेश भट्ट का नाम भी राजनीतिक गलियारों में चर्चाओं में रहा। नरेश बंसल निर्विरोध राज्यसभा सांसद निर्वाचित हुए। कांग्रेस के महज 11 सदस्य होने के चलते पार्टी ने कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। लेकिन नरेश बंसल की उम्मीदवारी से भाजपा ने सभी कयासों को एक साथ समाप्त करके लगातार दूसरी बार स्थानीय नेता पर ही विश्वास जताया है।

अब राज्यसभा सीट के राजनीतिक पहलुओं की बात करें तो इसके इतिहास में राज्यसभा सीट प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के लिए अपनी ताकत दिखाने और पार्टी हाईकमान के आज्ञाकारी बनने का भी सबसे बड़ा और असरदार कारक रहा है। प्रदेश की पहली निर्वाचित कांग्रेस की तिवारी सरकार के दौरान कैप्टन सतीश शर्मा और सत्यव्रत चतुर्वेदी को उत्तराखण्ड की राजनीतिक सड़क से तिवारी राज्यसभा सांसद बनाने में सफल रहे, जबकि जानकारों की मानें तो नारायण दत्त तिवारी का तत्कालीन समय में कांग्रेस में बेहद और मजबूत दखल था। वह चाहते तो उत्तराखण्ड के किसी कांग्रेसी नेता को आसानी से राज्यसभा पहुंचा सकते थे। लेकिन जिस तरह से उस समय कांग्रेस संगठन और सरकार के बीच मतभेद और मनभेद उभर कर सामने आ रहे थे उसका ही नतीजा रहा कि कांग्रेस ने पैराशूट प्रत्याशियों को उत्तराखण्ड में उतारा और सांसद बनाया।

यह परिपाटी बाद के समय में भी अनवरत चलती रही और कांग्रेस की बहुगुणा सरकार के समय हरीश रावत को मुख्यमंत्री न बनाए जाने की नाराजगी मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा पर इस कदर भारी पड़ी कि हरीश रावत से समर्थन लेने के लिए उनके रिश्तेदार महेंद्र सिंह माहरा को राज्यसभा का उम्मीदवार बनाना पड़ा और उनको राज्यसभा भेजा गया।

हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके कार्यकाल में दो बार राज्यसभा का चुनाव करवाने का अवसर मिला जिसमें उन्होंने देहरादून की पहली मेयर रही मनोरमा शर्मा डोबरियाल को राज्यसभा का उम्मीदवार बनाकर अपने सभी विरोधियों को हताश करने में कामयाबी हासिल की थी। दुर्भाग्य से मनोरमा शर्मा डोबरियाल का असामयिक निधन होने से एक बार फिर राज्यसभा सीट पर चुनाव हुए तो इस बार कांग्रेस में पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को राज्यसभा भेजे जाने की प्रबल मांग होने लगी। चर्चा तो यहां तक रही कि स्वयं कांग्रेस आलाकमान भी बहुगुणा को राज्यसभा भेजने को तैयार हो चुका था लेकिन हरीश रावत ने तमाम राजनीतिक समीकरणों को साधते हुए आगरा से चुनाव हार चुके राजबब्बर को राज्यसभा सीट से उम्मीदवार बनाकर फिर से सांसद बना दिया।

भाजपा के तरुण विजय का राज्यसभा कार्यकाल पूरा होने के बाद कांग्रेस ने पूर्व सांसद और कांग्रेस नेता प्रदीप टम्टा को अपना उम्मीदवार बनाया। जबकि उस समय तकरीबन समस्त कांग्रेस यहां तक कि स्वयं हरीश रावत का गुट भी कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय को राज्यसभा का उम्मीदवार बनाए जाने की मांग कर रहा था। एक बार लग रहा था कि कांग्रेस स्थानीय नेता को मौका देकर राज्यसभा भेजेगी लेकिन हरीश रावत ने इस बार भी सभी कयासों और चर्चाओं को समाप्त करते हुए अपने सबसे प्रबल समर्थक और दलित नेता प्रदीप टम्टा को ही राज्यसभा भेजा।

प्रदीप टम्टा के राज्यसभा भेजे जाने के बाद हरीश रावत और किशोर उपाध्याय के बीच गंभीर मतभेद पैदा होते चले गए। प्रदेश कांग्रेस संगठन और सरकार के बीच कई मामलों और मुद्दों को लेकर तनातनी होती रही। प्रदेश संगठन सरकार से चुनावी घोषणा पत्र में किए गए वादों को पूरा करने के लिए निरंतर दबाव बनाता रहा, जबकि हरीश रावत गठबंधन की सरकार होने की दुहाई देकर संगठन की मांग को नकारते ही रहे।

अब भाजपा ने नेरश बंसल को राज्यसभा भेजा है तो इसमें भी भाजपा की राजनीति होने की चर्चाएं आरंभ हो चुकी हैं। माना जा रहा है कि अनिल बलूनी को राज्यसभा भेजे जाने का निर्णय भाजपा आलाकमान का था, जबकि इस बार मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत की पहली पसंद नरेश बंसल को ही बताया जा रहा है।

स्थानीय नेता का राज्यसभा पहुंचने में किस तरह से प्रदेश की समस्याओं और विकास में राज्यसभा सांसद मददगार होता है यह अनिल बलूनी ने बेहतर तरीके से साबित कर दिया है। कई योजनाओं औेर कामों को जिस तरह से बलूनी राज्यहितों के अनुरूप कर रहे हैं वह राज्यसभा सांसदी में पहले कभी देखा नहीं गया। सुषमा स्वराज, कैप्टन सतीश शर्मा, सत्यव्रत चतुर्वेदी और राज बब्बर चाहे किसी का भी कार्यकाल रहा हो, इन सांसदों ने सांसद बनने के बाद राज्य की तरफ देखने की जहमत तक नहीं उठाई। भाजपा के तरुण विजय रहे हों या संघ प्रिय गौतम कोई भी राज्य की विकास योजनाओं में भागीदारी करने में कामयाब रहा हो ऐसा देखने को नहीं मिला। अनिल बलूनी इसके अपवाद के तौर पर उभर कर सामने आए हैं। अब नरेश बंसल के सामने एक राज्यसभा सांसद बनने के बाद चुनौती जरूर खड़ी हो चली है। बलूनी द्वारा अपने कामकाज और कार्यशैली से जो नई लकीर खींची गई है उस लकीर पर नरेश बंसल कितना खरा उतरते हैं यह देखना बाकी है।

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