देहरादून। सरकार के तमाम दावों के बावजूद राज्य के अफसर अपना रवेैया बदलने को राजी नहीं हैं। इसी के चलते आज प्रदेश में राजनीतिक माहौल गरमाया हुआ है। सत्ताधारी भाजपा के तीन दर्जन विधायकों ने जिस तरह से अधिकारियों की कार्यशैली और निरंकुशता पर अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला है, उससे साफ नजर आता है कि राज्य की नौकरशाही कितनी निरंकुश हो चुकी है। सरकार इस पर लगाम लगाने में पूरी तरह से नाकाम साबित हुई। सबसे बड़ी हैरानी तो इस बात की है कि शासन तक को सरकारी विभागों के अधिकारियों को अपने आदेशों का पालन करवाने के लिए पत्र लिखना पड़ रहा है। वहीं अधिकारी इतने निरंकुश हो चुके हैं कि वे अपने उच्चाधिकारियों के कार्यों में भी हस्तक्षेप करने लगे हैं।
हाल ही में दो ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जिनसे राज्य की अफसरशाही की असली तस्वीर सामने आ गई है। जिनमें एक मामला शासन स्तर का है, तो दूसरा प्राधिकरण के एक अधिकारी द्वारा अपने उच्चाधिकारी के अधिकारों को अपने में समाहित करने का सामने आया है। दोनों ही मामले बेहद दिलचस्प हैं और राज्य की बिगड़ती प्रशासनिक व्यवस्था पर सवाल खड़े करते हैं।
पहला मामला अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी द्वारा प्रदेश के सभी सरकारी विभागों में पदोन्नति और रिक्त पदों के संबंध में सप्ताह के भीतर कार्यवाही करने का आदेश जारी किया है। यह आदेश शासन के सभी अंगों, अपर मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव, सचिव और सचिव प्रभारी, राज्य के सभी विभागों के अध्यक्ष, कार्यालय प्रमुखों, गढ़वाल और कुमाऊं आयुक्तों, समस्त जिलाधिकारी के साथ-साथ सभी प्रबंध निदेशकों, संस्थानों और निगमों को जारी करते हुए आदेश दिया गया है कि वे हर हाल में एक सप्ताह के भीतर पदोन्नतियों और रिक्त पदों के संबंध में कार्यवाही करें।
गोर करने वाली बात यह है कि प्रदेश सरकार ओैर शासन द्वारा कई बार विभागों और संस्थानों के अलावा शासन स्तर पर आदेश जारी किया गया था कि वे अपने विभागों आदि में रिक्त पदों और पदोन्नतियों के संबंध में कार्यवाही करें। जिससे रिक्त पदों पर नई भर्तियां-पदोन्नतियां की जाएं। लेकिन अफसरों के कानों में जूं तक नहीं रेंगी और लगातार शासन के आदेशां की अवहेलना होती रही।
आखिरकार अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी ने कड़ा आदेश जारी कर कार्यवाही के लिए एक सप्ताह का समय निश्चित किया है। इसका बड़ा असर यह देखने को मिला कि 1 सितंबर को ही नौ विभागों ने प्रमोशन के पदों की सूची अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी को सौंप दी है जिसमें सभी विभागों में अनेक पदां पर प्रमोशन रुके हुए हैं।
दूसरा मामला देहरादून मसूरी विकास प्राधिकरण का बेहद दिलचस्प और हैरान करने वाला सामने आया है जिसमें प्रधिकारण के सिस्टम एडमिनिस्ट्रेटर के पद पर तैनात अधिकारी द्वारा मानचित्र पास करने के सभी असीमित अधिकार स्वयं अपने ऊपर ले लिए गए हैं, जबकि यह सभी अधिकार प्राधिकारण के बीसी के पास ही होते हैं। उक्त अधिकारी के पास केवल टेक्निकल सपोर्ट देने का ही अधिकार है।
हैरानी की बात यह है कि प्राधिकरण के अधिकारी संजीवन सूठा इस काम को एक वर्ष से कर रहे थे। इसमें मानचित्र को स्वीकार या अस्वीकार करने के अधिकार का भी जमकर पालन किया जा रहा था जो कि केवल और केवल प्राधिकारण के बीसी को ही होता है।
सबसे दिलचस्प यह है कि इस मामले में प्राधिकरण के किसी अन्य अधिकारी द्वारा खुलासा नहीं किया गया। यह खुलासा भी एमडीडीए में नक्शा पास करवाने का सॉफ्टवेयर प्रदान करने वाली कंपनी द्वारा मामले की शिकायत बीसी को की गई जिसमें बताया गया कि संजीवन सूठा केवल टेक्निकल सपोर्ट देने के लिए अधिकृत हैं। लेकिन उसने अपने आप को सुपर एडमिनिस्ट्रेटर का एकाउंट बनाया है जिसमें किसी भी नक्शे को पास या रद्द करने का अधिकार है। बताया जाता है कि बीसी के कई अधिकार भी संजीवन सूठा ने अपने पास रख लिये थे जिनका दुरुपयोग किया जा रहा था। शिकायत पर बीसी रणवीर सिंह चौहान द्वारा सूठा को निलंबित कर दिया।
इस मामले में यह भी सामने आया है कि एमडीडीए में सिस्टम एडमिनस्ट्रिटर रूप में अधिकारियों और कर्मचारियों में जानकारी का अभाव होने के चलते सूठा ने बड़ी आसानी से यह काम किया। हैरानी तो इस बात की है कि दर्जनों कर्मचारी और अधिकारियों की तैनाती होने के बावजूद अभी तक सिस्टम एडमिनिस्ट्रेटर को सही तौर पर जानने में प्राधिकारण के कर्मचारी और अधिकारी नाकाम रहे हैं। बताया जा रहा है कि सिस्टम एडमिनिस्ट्रेटर का काम अधिकारी और कर्मचारी टेक्नोलॉजी फ्रेंडली नहीं है यानी जानकार नहीं है तो सवाल एमडीडीए के प्रशासन पर भी उठता है कि किस आधार पर ऐसे अधिकारियों और कर्मचरियों को तैनाती दी है जो अपने ही विभाग के सिस्टम और तकनीक को नहीं जान पा रहे हैं। क्यों नहीं उनको इसके लिए प्रशिक्षण दिया गया। अगर प्रशिक्षण दिया गया तो एक अधिकारी द्वारा किस तरह से ऐसा काम किया जा सका।
इससे साफ होता है कि प्रदेश में अफसर इतने निरंकुश हो चुके हैं कि वे अपने अधिकारों से भी आगे जाने के लिए उच्चाधिकारियों के अधिकारों में हस्तक्षेप कर सकते हैं। साथ ही यह भी साफ हो गया है कि सरकार भले ही कितने दावे करे, लेकिन अपने ही अधिकारियों और कर्मचारियों पर सरकार का कोई अंकुश नहीं है।
मौजूदा समय में जिस तरह से भाजपा के तीन दर्जन विधायकां ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है उसके पीछे असल कारण यही बताया जा रहा है। प्रदेश के अधिकारी विधायकों की सुनना ही नहीं चाहते। विधायकों को अपने क्षेत्र में विकास कार्यों को करवाने के लिए अधिकारियों के आगे जी हुजूरी करनी पड़ रही है। बावजूद इसके काम करवाने के लिए विधायकों को भी एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है। अब देखना बाकी है कि सरकार अपने ही विधायकों के विरोध जो कि राज्य की अफसरशाही की कार्यशैली को लेकर भी समने आया है इससे कैसे निपटती है।