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Uttarakhand

संकट में ‘भोजपत्र’

भोजपत्र का प्राचीनकाल से ही बहुत महत्व रहा है। प्राचीनकाल में जब कागज की खोज नहीं हुई थी तब ऋषि मुनियों ने ग्रंथों की रचना भोजपत्र पर की थी जो आज भी हमारे संग्रहालयों में मौजूद है। पांडुलिपियों को भी भोजपत्र पर ही लिखा गया है। छोटे रेशों के कारण उसकी लुगदी से टिकाऊ कागज भी बनता है। यही नहीं इसकी लकड़ी का उपयोग ड्रम, सितार, गिटार आदि बनाने में भी किया जाता है। बावजूद इसके भोजपत्र के पेड़ों को संरक्षित करने की तरफ सरकार का ध्यान नहीं है। फलस्वरूप आज भोजपत्र संकट की स्थिति में है

भोजपत्र के पेड़ से लुगदी उतारता ग्रामीण

महत्वपूर्ण हिमालयी पादप ‘भोजपत्र’ फिर चर्चा में है। चर्चा के दो मुख्य कारण हैं। पहला यह कि उच्च हिमालयी गांव माणा की महिलाओं द्वारा भोजपत्र पर आरती लिखकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजी गई। दूसरा यह कि महत्वपूर्ण पादप निरंतर विलुप्ति के कगार पर है। भोजपत्रों के जंगल संकट में हैं और यह तेजी से सिकुड़ रहे हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाने वाले भोज पत्र के जंगलों पर खतरा मंडरा रहा है। गढ़वाल के साथ ही कुमाऊं के आदि कैलाश को जाने वाले मार्ग पर भी इसके जंगल हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन, सड़कों के निर्माण व यात्रा मार्ग में जाने वाले पर्यटकों द्वारा इसे पहुंचाए जाने वाले नुकसान एवं मलबे के चलते इसका अस्तित्व संकट में पड़ रहा है।

हिमालयी बुग्यालों से पहले भोजपत्र ट्री लाइन बनाते हैं। यह 9 से 12 हजार फीट की ऊंचाई पर उगते हैं। इस पादप को इको फ्रैंडली माना जाता है। यह जल संरक्षण की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। पर्यावरणीय दृष्टि से भी इसे विशेष महत्व के पौधे के रूप में रखा जाता है। यह हिमालयी क्षेत्र का महत्वपूर्ण पेड़ है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी इसका विशेष महत्व है। यह अपनी जड़ों से जल संरक्षित करता है। इसकी छाल का उपयोग प्रचीन समय में पेपर वर्क के लिए किया जाता था। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में इसके बाद कोई पेड़ नहीं दिखाई देता है। उसके बाद यहां वनस्पति, फूल एवं सफेद बर्फ की चादर ही दिखाई देती है। हिंदुओं के वेद, पुराण से लेकर कई धर्मिक ग्रंथ इसमें लिखे गए हैं। वनस्पति वैज्ञानिकों का कहना है कि इसका जीवन बहुत लंबा होता है। सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से भी भोजपत्र का बहुउपयोग किया जाता रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन और लगातार पेड़ों के कटने से भी भोज वृक्ष नामक प्रजाति पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। अब उत्तराखण्ड में भोजपत्र के जंगल बहुत कम बचे हैं।

 

भोज पत्र को संस्कृत में भुर्ज भी कहते हैं। इसका वैज्ञानिक नाम ठमजनसं नजपसपे (बेतुला युटिलिस) है। अंग्रेजी में इसे भ्पउंसंलंद इपतबी (हिमालयन बर्च) कहते हैं। वैज्ञानिक


भोजपत्र बना राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन का हिस्सा

वर्गीकरण के अनुसार यह पादप जगत में आता है। इसका वंश एवं उपवंश बेतुला है। इसका कुल बैतुलसाए माना गया है। यह ठंडे वातावरण में उगने वाला पतझड़ी वृक्ष है। इसकी लंबाई 20 मीटर ऊंची होती है। यह एक बहुउपयोगी वृक्ष रहा है। इसके पत्ते छोटे और किनारे दांतेदार होते हैं। इसकी लकड़ी से प्लाईवुड भी बनता है। इसके रेशों की लुगदी से टिकाऊ कागज बनता है। इसकी लकड़ी का उपयोग ड्रम, सितार, गिटार बनाने में भी किया जाता है। इसकी छाल सफेद रंग की होती है जो पतली व कागजनुमा होती है। भारतीय वन अनुसंधान केंद्र, देहरादून के वैज्ञानिकों की एक रिपोर्ट के अनुसार भोजपत्र का उपयोग दमा व मिर्गी जैसे रोगों के इलाज में भी किया जा सकता है। इसकी छाल कसावट भरी होती है जो बहते खून व घावों को साफ करने में भी प्रयोग में लाई जाती है। इसकी बाहरी छाल चिकनी होती है। इसके पेड़ हल्के, अच्छे पानी की निकासी वाली अम्लीय मिट्टी में अच्छी तरह से पनपते हैं। इसकी छाल प्राचीन काल से ग्रंथों की रचना के लिए उपयोग में लाई जाती थी। इसकी खासियत यह है कि भोजपत्र पर लिखा हुआ सैकड़ों वर्षों तक संरक्षित रहता है। आज भी प्रदेश के गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में भोजपत्र में लिखी कई पांडुलिपियां सुरक्षित रखी हुई हैं।

असल में जिसे भोजपत्र कहा जाता है वह इस वृक्ष के पत्ते न होकर उसकी छाल होती है। भारतीय वन अनुसंधान केंद्र, देहरादून के वैज्ञानिकों के अनुसार भोजपत्र का उपयोग दमा और मिर्गी जैसे रोगों के इलाज के लिए किया जाता है। इसे कामला व पित्त ज्वर में दिया जाता है। इसके पत्ते उत्तेजक एव स्तंभक माने जाते हैं। ठंडे क्षेत्र में शरीर को गर्म बनाए रखने के लिए इसके तने में मिलने वाले भुजलिस पदार्थ को चाय में मिलाकर पिया जाता है। इस भुजलिस पदार्थ का उपयोग त्वचा रोग की बीमारियों के इलाज में भी किया जाता है। यह उच्च हिमालय का मुख्य वृक्ष माना जाता है। धार्मिक दृष्टि से देखें तो मंदिरों में भी इसका उपयोग शुभ माना जाता है। नंदा राजजात यात्रा की छंतोली के ऊपर भी भोजपत्र लगाया जाता है।

भोजपत्र के सिमटते हुए जंगलों को देखते हुए पूर्व में पर्वतारोही रही हर्षवती बिष्ट ने भोजबासा के पेड़ों को बचाने की मुहिम चलाई थी। उन्होंने इन्हें बचाने के लिए इसके पौधे भी रोपे थे। जब वह यह मुहिम चला रही थी तो उनका कहना था कि जहां पहले भोज के पेड़ हुआ करते थे उन्हें इंसानों ने बर्बाद कर दिया। उत्तरकाशी के गंगोत्री नेशनल पार्क में गौमुख के रास्ते में भोजबासा गांव से करीब डेढ़ किलोमीटर आगे उन्होंने भोजपत्र के पौध लगाए थे। यहीं चिरबासा में उन्होंने भोजपत्र की नर्सरी भी तैयार की थी। भोजपत्रों के जंगल के कारण ही इस जगह का नाम भोजबासा पड़ गया, अब वहीं पर लगातार इसके वृक्ष कम होते जा रहे हैं। गंगोत्री केडनास दर्रे में भी इनकी संख्या पहले बहुतायत थी लेकिन यहां भी अब यह सिमट रहे हैं। उल्लेखनीय है कि जब कागज की खोज नहीं हुई थी तब लिखने के लिए भोजपत्र के छाल का इस्तेमाल किया जाता था।


स्वरोजगार के लिए प्रशिक्षण लेती महिलाएं

माना जाता है कि प्राचीन ग्रंथों की रचना में इसका इस्तेमाल होता था। कई पांडुलिपियां भी इसमें लिखी गई। गढ़वाल के साथ ही जनपद पिथौरागढ़ के उच्च हिमालयी क्षेत्र में इसके जंगल स्थित हैं। लेकिन यहां सड़क निर्माण से कई पेड़ मलबे के नीचे दब गए हैं। जनपद के खलिया, बुर्फू, बिल्जू, मर्तोली, कुटी, जौलीड़कांग, दारमा एवं व्यास क्षेत्र के उच्च हिमालय क्षेत्र में भोजपत्र के जंगल हैं। गुंजी तक भोजपत्र व कालापानी से ऊपर सुंगधित धूप के पौधे होते हैं। भोज वृक्ष धार्मिक महत्व के साथ ही टिंबर लाइन क्षेत्र की पारिस्थिकीय संतुलन को बनाए रखता है। गढ़वाल क्षेत्र में यह नंदादेवी बायो स्पेयर रिजर्व, फूलों की घाटी, गंगोत्री नेशनल पार्क, हरकी दून क्षेत्र के बुग्यालों में पाया जाता है। उल्लेखनीय है कि जिन स्थानों पर पेड़ समाप्त होते हैं वहां बुग्याल से शुरू होते हैं। उसी टिम्बर लाईन क्षेत्र में यह वृक्ष पाए जाते हैं।

इस वृक्ष की छाल पतली- पतली परतों के रूप में निकलती है। पर्यटकों के चलते इस प्रजाति को सर्वाधिक खतरा पैदा हो रहा है। कांवडियों और पर्यटक गंगोत्री से पानी लेने के लिए आने के दौरान इन वृक्षों को नुकसान पहुंचाते हैं। वह भोजपत्र को अपने साथ ले जाना शुभ मानते हैं। इसके चलते भोज वृक्ष सिमट रहे हैं। गोमुख जाने वाले यात्री व पर्यटक भी इसे नुकसान पहुंचाते हैं। माना जाता है कि भोजपत्र व भोज छड़ी शुभ होती है। हर माह हजारों यात्री भोजबासा से गुजरते हैं। पर्यावरणविदों का कहना है कि इन पेड़ों को संरक्षण की आवश्यकता है, वरना ये पेड़ विलुप्त हो जाएंगे।

भोजपत्र, माणा की महिलाएं व प्रधानमंत्री मोदी
पिछले दिनों माणा की महिलाओं ने भोजपत्र पर भगवान बदरी विशाल की आरती लिखकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजी। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री मोदी जब माणा गांव में आए थे तो उन्होंने भोजपत्र में की गई माणा की महिलाओं द्वारा चित्रकारी को सराहा था। तब महिलाओं ने उन्हें भोजपत्र पर बनी कई कलाकृतियां भेंट की थी। तब पीएम ने कहा था कि बदरी धाम जाने वाले यात्री अपने कुल यात्रा व्यय का पांच प्रतिशत खर्च स्थानीय उत्पादों की खरीद पर करें। इसके जबाव में महिलाओं ने पीएम मोदी को भोजपत्र में आरती लिखकर भेजी। उल्लेखनीय है कि माणा की भोटिया जनजाति की महिलाओं के लिए यह आजीविका का साधन बना हुआ है। वह भोज पत्र में चित्रकारी करती हैं और स्वयं सहायता स्टॉलों में इसे रखती हैं। बदरीनाथ धाम जाने वाले यात्रियों को यह काफी लुभाते हैं और इनकी खासी बिक्री होती है। इसलिए भी जरूरी है कि भोज वृक्ष का संरक्षण भी हो और आजीविका भी चलती रहे।

बात अपनी-अपनी
भोजपत्र उच्च हिमालय का मुख्य वृक्ष है। इसकी विशेषताएं इस क्षेत्र को विशेष बनाती हैं। उच्च हिमालय में वहां की वनस्पतियों को संरक्षित रखना आवश्यक है। हमने गुंजी, कालापानी, नावीढांग सहित उच्च हिमालयी क्षेत्रों में भोजपत्र, रूद्राक्ष व धूप के पौधों का रोपण किया है। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में सड़क बन जाने से काफी संख्या में पर्यटक यहां तक पहुंच रहे हैं, इससे यहां का पर्यावरण भी प्रभावित हो रहा है। पर्यावरण को संरक्षित रखने के लिए पौधारोपण के साथ ही हिमालयी प्रजातियों के वृक्षों का संरक्षण भी आवश्यक है।
दिनेश गुरुरानी, ‘एक पौधा घरती के नाम’ से अभियान के संरक्षक भोज पत्र जिसे हमारे पूर्वजों ने कागज के रूप में उपयोग किया। जिसने हमारे इतिहास को हम तक पहुंचाया। प्राचीन काल में ग्रंथों की रचना के लिए इसका उपयोग होता था। कागज की खोज से पूर्व हमारे देश में लिखने का काम भोजपत्र पर किया जाता था। उसका विलुप्त होना वाकई चिंताजनक है। हर हाल में इस हिमालयी वृक्ष को संरक्षित करना जरूरी है।
शिव कुमार सिंह, हिमालयी पादपों के जानकार

हमने इसे बचाने के लिए सेव भोजपत्र आंदोलन चलाया। यह हमारी प्राचीन संस्कृति का परिचायक वृक्ष है। यह हिमालयी वृक्षों का एक प्रतिनिधि पेड़ है। यह औषधीय गुणों से भरपूर है। इसे बचाया जाना जरूरी है। पर्यटन से हमें इकोनॉमिकली फायदा मिल रहा है लेकिन इकोलॉजिकली संकट पैदा हो रहा है।
हर्षवंती बिष्ट, पर्वतारोही

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