आरोग्य संस्थान के निदेशक डॉक्टर महेंद्र राणा पहाड़ों में युवआों को आयुर्वेद से जोड़कर रोजगार उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयासरत हैं। उनका मानना है कि आयुर्वेद का विकास पलायन रोकने में सहायक होगा
इन दिनों देहरादून, हरिद्वार सहित प्रदेश के कई जनपदों में आरोग्य संस्थान के नाम से त्वचा रोग तथा आयुर्वेदिक चिकित्सा की कई शाखाएं बखूबी देखने को मिल जाती हैं। आरोग्य संस्थान अपनी विशेष आयुर्वेदिक शोध प्रणाली की बदौलत आज प्रदेश का बड़ा विश्वसनीय चिकित्सा केंद्र बन गया है। जहां प्राचीन आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों से किये गये शोध के द्वारा मरीजों का इलाज किया जाता है। विशेष तौर से त्वचा रोगां में बड़ा मुकाम हासिल कर चुका आरोग्य संस्थान आज कई तरह की जटिल बीमारियों का आयुर्वेदिक उपचार करने में भी महारथ हासिल कर चुका है।
आरोग्य संस्थान के संस्थापक और निदेशक डॉ महेंद्र राणा से जब उनकी इस सफलता का राज जानना चाहा, तो उन्होंने बडे़ सहज भाव में इसका सारा श्रेय अपने पिता प्रेम सिंह राणा के संस्कारों को दिया।
उत्तरकाशी के छोटे से गांव मनेरी के सरकारी स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने वाले महेंद्र राणा को इंटर कक्षा में ही सन् 1999 में राष्ट्रीय बाल वैज्ञानिक पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है। एनसीईआरटी और विज्ञान प्रौद्योगिकी संस्थान द्वारा आयोजित इस शोध प्रतियोगिता में उन्हें ‘स्वस्थ भारत, स्वच्छ भारत विषय’ पर सबसे सफल शोध करने के लिए प्रथम पुरस्कार मिला। जिसके चलते उन्हें संस्थान की ओर से हैदराबाद में भेजा गया। जहां उन्हें पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम से मिलने का मौका भी प्राप्त हुआ। महेंद्र राणा बताते हैं कि इसके बाद उन्हें चिकित्सक बनने की ख्वाहिश इस कदर जाग उठी कि वह इसके लिए दिन-रात मेहनत करने लगे। उस समय उन्होंने आयोडीन नमक के लिए ग्रामीण तथा दूर-दराज के लोगों को अपनी टीम के साथ प्रेरित किया। जिसके लिए उन्हें राज्य स्तरीय ज्यूरी अवार्ड से भी सम्मानित किया गया। वर्ष 2007 में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से बीएएमएस उसके बाद वर्ष 2011 में वैकल्पिक चिकित्सा से मुंबई में एमडी तथा मुंबई से ही वर्ष 2012 में पीजी डिप्लोमा करने के बाद महेंद्र राणा खुद की प्रैक्टिस में जुट गए। राणा बताते हैं कि पहाड़ के वैद्याचार्यो से उन्हें आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति की प्रेरणा मिली।
उस समय उन्हें ऐसे दृश्य भी देखने को मिले हैं जब आयुर्वेदिक दवाओं ने एलोपैथिक से भी तेज गति से परिणाम दिए हैं। वह बताते हैं कि उत्तरकाशी के पुराने वैद्यों वेदों के साथ-साथ उन्हें चित्रकूट के नंदलाल से भी कई बीमारियों के नुस्खे मिले। जो उनके लिए संजीवनी बूटी साबित हुए। डॉ महेंद्र राणा खुद जंगलों और पहाड़ों से औषधि खोजकर लाते हैं। वह बताते हैं कि वह उत्तरकाशी, लैंसडौन के साथ-साथ हरिद्वार के चंडी देवी की पहाड़ियों से भी आयुर्वेदिक दवाएं तथा जड़ी-बूटी खोजकर लाते हैं। आयुर्वेदिक और एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में अंतर स्पष्ट करते हुए डॉ महेंद्र राणा बताते हैं कि केवल आकस्मिक चिकित्सा और शल्य चिकित्सा को छोड़कर आयुर्वेदिक औषधियां एलोपैथिक की अपेक्षा कहीं ज्यादा कारगर सुरक्षित और स्थाई लाभ देने वाली हैं। हम सब को चाहिए कि एलोपैथिक की अपेक्षा आयुर्वेद को ज्यादा महत्व देकर उन्हें अपने निजी जीवन का हिस्सा बनाएं। इससे दोहरा लाभ होगा। एक तो हमें अपने स्वास्थ्य के प्रति कोई समझौता करना नहीं पड़ेगा, दूसरा हमारी धरोहर आयुर्वेद भी सुरक्षित रहेगी। चिकित्सक होने के साथ-साथ सच्चा समाजसेवी होने की भावनाएं भी डॉक्टर महेंद्र सिंह राणा में नजर आती हैं। वह बताते हैं कि वह समय-समय पर ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य जागरूकता शिविर का आयोजन कराते रहते हैं जिसके सकारात्मक परिणाम भी देखने को उस समय मिलते हैं जब ग्रामीणों के स्वास्थ्य में बेहतर तरीके से सुधार होता है। स्वभाव से हंसमुख प्रवृत्ति के डॉक्टर महेंद्र सिंह राणा से जब उनकी भविष्य की योजनाएं पूछी गई तो उन्होंने बताया कि मैं चाहता हूं कि उत्तराखण्ड के हर जिले में आरोग्य संस्थान की बड़ी शाखाएं हों। जिनमें सैकड़ों युवाओं को रोजगार मिले इसके लिए हमने शुरूआत भी की है। माहीसन प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाकर जो किफायती दामों पर लोगों को आयुर्वेदिक दवाएं उपलब्ध कराते हैं। पहाड़ों पर पलायन का दर्द उनके चेहरे पर भी स्पष्ट दिखाई दिया। जिसके लिए वह पूरी तरह सरकार के लचीलापन को जिम्मेदार मानते हैं। उनके अनुसार सरकार पहाड़ों पर चिकित्सा और शिक्षा के बेहतर विकल्प नहीं दे पाई है जिस कारण पहाड़वासियों को मैदान का रुख करना पड़ रहा है। पलायन अपने चरम पर हैं। उन्होंने बताया कि मैं जब भी अपने गांव जाता हूं तो वहां के बच्चों को स्वरोजगार के प्रति प्रेरित करता हूं ताकि यहां के बच्चे भविष्य में पलायन का रुकवा सकें।