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Uttarakhand

सेब उत्तराखण्ड का ब्रांडिंग हिमाचल की

सेब उत्तराखण्ड का ब्रांडिंग हिमाचल की

सेब उत्पादन में देश का तीसरा राज्य होने के बावजूद उत्तराखण्ड का सेब हिमाचल के नाम से बिक रहा है। काश्तकार तो अपना काम कर रहे हैं, लेकिन सरकार उनके काम को पहचान दिलाने में उदासीन रही है। शीतकाल में हुई अच्छी बर्फबारी ने सेब बागवानों के चेहरे खिला दिए हैं। आशा है कि इस बार प्रदेश में सेब का अच्छा उत्पादन होगा। वैसे भी प्रदेश सेब उत्पादन में देश में तीसरे नम्बर का राज्य है।

लेकिन सवाल यह है कि भरपूर उत्पादन एवं रेड गोल्डन, रेड डिलिशस, गोल्डन सैनी, ग्रीन स्वीप, रॉयल डिलिशस, अर्ली सनवरी जैसी स्वादिष्ट प्रजातियों एवं ए ग्रेड गुणवत्ता वाले सेब के बाद भी बाजार में यह अपनी पहचान क्यों नहीं बना पाया है? विडंबना यह है कि सेब तो उत्तराखण्ड में उत्पादित है, पर बाजार में वह हिमाचल के सेब के नाम से बिकता है।

उत्तराखण्ड के सेब की ब्रांडिंग हिमाचल के नाम से हो रही है। जिस पेटी में यह बंद होता है वह हिमाचल की होती है। बाजार में उत्तराखण्ड का ए ग्रेड सेब हिमांचल एप्पल के नाम से बिकता है। इसके अलावा सेब बागवानी का काम कर रहे काश्तकार भी कई तरह की समस्याओं से दो चार हो रहे हैं। तमाम काश्तकारों का कहना है कि उन्हें समय पर पौध, दवा एवं पेटियां उपलब्ध नहीं हो पाती। उन्हें मजबूरी में उंची दरों पर बाजार से पेटियां व दवाएं मंगानी पड़ती हैं।

मृदा परीक्षण भी समय पर नहीं हो पाता है। बाजार में सेब की मांग तो है लेकिन मंडियों तक इसकी पहुंच सुलभ नहीं है। इसके अलावा कई बार सेब के पेड़ व फल बीमारी की चपेट में आ जाते हैं। इससे बचने के लिए भी कोई तात्कालिक उपाय सेब बागवानों के पास नहीं होता। जबकि पूरे प्रदेश में 1.22 लाख मीट्रिक टन सेब का उत्पादन हो रहा है।

जनपदवार देखें तो जनपद पिथौरागढ़ में 1600 हेक्टेयर में 3012 मीट्रिक टन, अल्मोड़ा में 1577 हेक्टेयर में 14137 मीट्रिक टन, नैनीताल में 1242 हेक्टेयर में 9066 मीट्रिक टन, उत्तरकाशी में 9372 हेक्टेयर में 20529 मीट्रिक टन, टिहरी में 3820 हेक्टेयर में 1910 मीट्रिक टन, पौड़ी में 1123 हेक्टेयर में 3057 मीट्रिक टन, चमोली में 1064 हेक्टेयर में 3354 मीट्रिक टन, देहरादून में 4799 हेक्टेयर में 7342 मीट्रिक टन सेब का उत्पादन हो रहा है। इनसे करीब 3500 करोड़ रुपए के आस-पास का कारोबार होता है, लेकिन इसके बावजूद इसकी वह पहचान नहीं बन पाई जो हिमाचल और कश्मीर की बनी हुई है।

प्रदेश में सर्वाधिक सेब उत्पादन उत्तरकाशी में होता है जहां पर करीब 8700 के आस-पास काश्तकार इससे जुड़े हुए हैं। जिले में सेब की खेती का इतिहास काफी पुराना रहा है। वर्ष 1925 से ही सेब उत्पादन का काम यहां शुरू हो गया था। उत्तरकाशी के आराकोट, हर्षिल क्षेत्र में रॉयल डिलिशस, रेड डिलिशस एवं गोल्डन डिलिशस प्रजाति के सेब के साथ ही स्पर प्रजाति के रेडचीफ, सुपर चीफ, गोलगाला प्रजाति का भी अब अच्छा उत्पादन होता है। इसके अलावा नौगांव व आराकोट सेब उत्पादन के लिए जाने जाते हैं।

पुरोला का सेब तो पूरे देश में जाता है, लेकिन बिकता हिमाचल सेब के नाम से है। रंवाई घाटी सेब उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है लेकिन यहां पर कोई मंडी नहीं है। जबकि इस घाटी के किरोली, सौड़, दोणी, सांकरी, भीतरी, साकटा, डामरी, टिकोची, डगौली, चीवां, पुरोला, स्यौरी, आराकोट, जरमोला, नौटवाड़ क्षेत्र में सेब का अच्छा खासा उत्पादन होता है। गंगा- यमुना घाटी में सेब का भरपूर उत्पादन होता है। गंगाघाटी के हर्षिल, धराली, सुक्की, मुखवा, झाला तो यमुना घाटी के नटवाड़, जखोल, सांकरी, मोराल्टू, कोटिगालगांव का सेब अच्छी क्वालिटी का माना जाता है।

चंपावत जिले में 320 हेक्टेयर क्षेत्रफल में सेब के बागान स्थित हैं। इसमें करीब 300 से अध्कि मीट्रिक टन पैदावार होती है। किसी समय में यहां 619 हेक्टेयर में सेब के बागान थे। अल्मोड़ा के चौबटिया का सेब बागान में तो कई तरह की प्रजातियां हैं। नैनीताल जनपद के रामगढ़ क्षेत्रा जो फल पट्टी के रूप में जाना जाता है। यहां के छोटे आकार का हल्का लाल पीलापन लिये सेब की बाजार में काफी मांग है। रामगढ़ के नथुवाखान, मुक्तेश्वर, हरतपा, हरतोला, लेटीबूंगा, धनाचूली में करीब चार टन सेब का उत्पादन होता है।

चमोली जनपद में घाट एवं जोशीमठ सेब उत्पादक क्षेत्र हैं। जिले में 290 हेक्टेयर में सेब के बागान हैं। यहां करीब 3200 मीट्रिक टन उत्पादन होता है। जनपद पिथौरागढ़ के बौना व तौमिक का सेब काफी प्रसिद्ध रहा है। अब उद्यान विभाग व्यास घाटी में 18 हेक्टेयर भूमि पर सेब के बागान लगाने जा रहा है। अभी पूरे उत्तराखण्ड में करीब 34665 हेक्टेयर में सेब के बागान हैं। इसके अलावा सेब उत्पादन के लिए पूर्व में इंडो-डच हॉर्टिकल्चर प्राइवेट लिमिटेड ने प्रदेश में सेब के बगीचे लगाने की योजना बनाई थी जिसमें एक निजी कंपनी से अनुबंध भी था। सेब का उत्पादन तो हो रहा है, लेकिन असली काम इसकी ब्रांडिंग का है।

बागवानों की स्थिति यह है कि इन्हें समय पर पेटियां उपलब्ध नहीं हो पाती। वर्ष 2015 में उद्यान विभाग ने पेटियां बनाई तो उसकी गुणवत्ता इतनी कमजोर थी कि वह पैकिंग के वक्त ही फट गई। इससे समझा जा सकता है कि उद्यान महकमा व मंडी समितियां अपने काम के प्रति कितनी गंभीर है। मजबूरी में प्रदेश का सेब हिमाचल एप्पल की पेटियों में पैक हो जाता है। हालांकि प्रदेश के कृषि मंत्री सुबोध उनियाल कहते रहे हैं कि उत्तराखण्ड एप्पल नाम से पेटियां तैयार करने की जिम्मेदारी मंडी समितियों को दी गई है।

गुणवत्ता बनाए रखने के निर्देश मंडी समितियों को दिए गए हैं। फल उत्पादकों को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं। ट्रांसपोर्ट की समस्या भी दूर की गई है। प्रदेश में हिमाचल एप्पल से बेहतर पेटियां बनाई हैं। लेकिन हकीकत यह है कि अभी भी बाजार में कश्मीर एवं हिमांचल के सेब की ही धमक है। सवाल यह भी है कि जब हिमाचल और कश्मीर अपने सेब को बाजार में पहचान दिला सकता है तो फिर उत्तराखण्ड क्यों नहीं?

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