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Uttarakhand

रणनीतिक मोर्चे पर कमजोर कांग्रेस

प्र देश कांग्रेस रणनीति बनाने और उस पर अमल करने में पूरी तरह से कमजोर है। आचरण से यह नहीं दिखाई देता है कि वह सत्ताधारी भाजपा के सामने मजबूत विपक्ष की भूमिका निभा रही है। सड़क से लेकर सदन में  सरकार को घेरना हो या फिर चुनाव में भाजपा को पछाड़ने की बात हो, हर दृष्टि से कांग्रेस पिछड़ती रही है। इसका एक बड़ा असर रहा कि कांग्रेस विगत ढाई वर्षों में भाजपा से हर बार पटखनी खाने को मजबूर है। पार्टी के भीतर हताशा का माहौल इस कदर है कि उम्मीदवारों को अपनी जीत के लिए नेतृत्व का साथ मिला या न मिला, इसका कोई बड़ा फर्क नहीं रह गया है।
माना जाता है कि किसी भी राजनीतिक दल के लिए चुनाव अपनी ताकत बढ़ाने का सुनहरा अवसर होता है, जबकि कांग्रेस इसमें हमेशा पिछड़ती रही है। स्थानीय निकाय चुनाव, त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव हों या विधानसभा के उपचुनाव कांग्रेस की रणनीति भाजपा को देखने और परखने तक सीमित दिखाई दी है। कांग्रेस नेताओं का सबसे ज्यादा फोकस इस बात पर ही रहा है कि भाजपा किस उम्मीदवार को मैदान में उतारती है और उसकी जातिगत-क्षेत्रगत क्या रणनीति बनेगी। उसके हिसाब से ही कांग्रेस अपनी रणनीति बनाएगी।
प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में इस वक्त कांग्रेस सबसे कमजोर स्थिति में है। महज 11 विधायकों के साथ वह सदन में अपनी ताकत दिखाने का प्रयास कर रही है, लेकिन एक विपक्षी पार्टी होने के नाते जो रणनीति उसके पास होनी चाहिए या उसके नेतृत्व को दिखानी चाहिए थी, वह कांग्रेस कभी नहीं दिखा पाई। कांग्रेस नेतृत्व में रणनीतिक कमी इस बीच पिथौरागढ़ विधानसभा उपचुनाव में भी देखने को मिली है। स्वर्गीय प्रकाश पंत के निधन से रिक्त हुई इस सीट पर छह माह के भीतर उपचुनाव होना निश्चित था, लेकिन कांग्रेस का प्रदेश नेतृत्व तैयारी करने के बजाए हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। कांग्रेस नेतृत्व पूर्व विधायक मयूख महर पर ही दांव लगाने के लिए तैयार बैठा रहा। हैरानी इस बात की है कि मयूख महर ने 30 जून को पिथैरागढ़ में कांग्रेस की बैठक में साफ भी कर दिया था कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे। इस बैठक में प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह और नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदेश दोनों ही शामिल थे। इसके बावजूद नेतृत्व ने उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया।

प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व रणनीतिक मोर्चे पर भाजपा के मुकाबले निरंतर कमजोर साबित होता आ रहा है। सही समय पर उचित निर्णय लेने में असमर्थ नेतृत्व के कारण कार्यकर्ता हताशा-निराश हैं। उन्हें लगता है कि पार्टी नेतृत्व जानबूझकर सत्तारूढ़ भाजपा को फायदा पहुंचाने का काम कर रहा है। थराली उपचुनाव में यदि कांग्रेस नेतृत्व समय पर नींद से जाग जाता तो यह सीट आज पार्टी की झोली में होती। अब पिथौरागढ़ उपचुनाव में तो कांग्रेस ने भाजपा को वाॅक ओवर ही दे दिया है। पंचायतों और निकाय चुनावों में कमजोर रणनीति के चलते कांग्रेस उम्मीदवार निर्दलियों के सामने भी बौने साबित हुए

गौेर करने वाली बात यह है कि मयूख महर के उपचुनाव नहीं लड़ने की स्थिति में कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता मथुरादत्त जोशी ने नेतृत्व के सामने कई विकल्प रखे। उन्होंने कहा कि अगर मयूख महर चुनाव नहीं लड़ते हैं तो उनकी पत्नी को चुनाव में उतारा जाए। अगर वे भी तैयार नहीं हैं तो स्वयं मथुरादत्त जोशी चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं। कांग्रेस ने न तो मथुरादत्त जोशी की सलाह पर कोई ध्यान दिया ओैर न ही उपचुनाव के लिए कोई प्रत्याशी तैयार करने में रुचि दिखाई। जब उपचुनाव के लिए नामांकन की प्रक्रिया आरंभ हुई तब भी कांग्रेस का प्रदेश नेतृत्व पूरी तरह से हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। अचानक ही नामांकन के आखिरी दिन से कुछ पहले कांग्रेस ने पूर्व ब्लाॅक प्रमुख रही अंजु लुंठी को अपना उम्मीदवार घोषित किया, जबकि अंजु लुंठी का कोई खास राजनीतिक प्रोफाइल भी नहीं है। ब्लाॅक प्रमुख के चुनाव में हाईकोर्ट से राहत पाकर ढाई वर्ष ब्लाॅक प्रमुख होने के आलावा लुंठी के खाते में कोई खास उपलब्धि नहीं है।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व ने पहली बार अपनी चुनावी रणनीति में गंभीर उदासीनता दिखाई हो। विगत ढाई साल में पार्टी ने कई बार यही किया है। थराली विधानसभा उपचुनाव में भी कांग्रेस की कमजोर रणनीति देखने को मिली। भाजपा ने मगनलाल शाह के निधन के बाद उपचुनाव में उनकी धर्मपत्नी मुन्नी देवी को अपना उम्मीदवार बनाया जिसकी काट के लिए कांग्रेस ने पूर्व विधायक जीतराम आर्य को मैदान में उतरा, लेकिन कांग्रेस के प्रचार पर स्वयं पार्टी के भीतर ही सवाल खड़े होने लगे। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत थराली विधानसभा क्षेत्र में पूरी तरह से प्रचार में  लगे रहे, जबकि प्रदेश नेतृत्व की कमी साफ तोैर पर देखने को मिली। नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदेश अपनी सीमित भूमिका में ही रहीं। इसका असर यह रहा कि महज 1800 वोटों से कांग्रेस उपचुनाव हार गई। राजनीतिक जानकारों का मानना था कि अगर कांग्रेस पूरी तरह से एक होकर उपचुनाव में उतरती तो थराली सीट उसे मिल सकती थी। जीतराम आर्य क्षेत्र के बड़े नेता माने जाते रहे हैं। 2012 का विधानसभा चुनाव  वह बड़े अंतर से जीत चुके थे। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व की कमजोर चुनावी रणनीति के चलते आर्य को हार नसीब हुई।
कांग्रेस में एकजुटठ होकर कोई रणनीति नहीं बन पा रही है। नतीजा यह है कि किशोर उपाध्याय और हरीश रावत जैसे नेता अपने-अपने हिसाब से कार्यक्रम देने को मजबूर हुए हैं। स्थानीय निकाय चुनाव में भी कांग्रेस पूरे पांच वर्ष तक नया नेतृत्व पैदा नहीं कर पाई और जब निकाय चुनाव की घोषणा हो गई तो अचानक नींद से जागते हुए  बगैर किसी मजबूत रणनीति के चुनावी मैदान में उतर गई। जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। कांग्रेस निकाय चुनाव में भाजपा से तो पिछड़ी ही, लेकिन निर्दलीय उम्मीदवारों से भी पूरी तरह से पिछड़ गई। निकाय चुनाव कई माह तक हाईकोर्ट और सरकार के बीच फंसे रहे। इस दैारान कांग्रेस का प्रदेश नेतृत्व चुनाव के लिए गंभीर होता तो आसानी से अपने जिताऊ उम्मीदवारों के चयन के लिए काम कर सकता था, लेकिन कांग्रेस की नजर पहले तो निकाय चुनाव की तिथियों और फिर हाईकोर्ट के निर्णय पर ही लगी रही। जब यह स्पष्ट हो गया कि निकाय चुनाव होना तय हो गया और चुनाव की घोषणा भी हो गई तो तब भी कांग्रेस अपने उम्मीदवारों का चयन भाजपा उम्मीदवारों और रणनीति को परखने और देखने में ही लगी रही।
देहरादून नगर निगम में  मेयर उम्मीदवार के चयन को लेकर कांग्रेस के भीतर असमंजस बना रहा। जबकि भाजपा दो वर्ष पहले से ही सुनील उनियाल गामा को लेकर निश्चित थी। नामांकन के आखिरी दौर में कांग्रेस किसी तरह से सक्रिय हुई और पूर्व मंत्री दिनेश अग्रवाल को मेयर का टिकट थमा दिया। नतीजतन वे हार गए। इसी तरह ऋषिकेश नगर निगम में भी मेयर उम्मीदवार के चयन में देखने को मिला। ऋषिकेश में तो कांग्रेस ने नैतिकता को ताक पर रखकर भाजपा नेता ज्योति सजवाण को दो दिन पहले कांग्रेस में शामिल कर उनकी पत्नी लक्ष्मी सजवाण को मेयर का टिकट थमा दिया। जबकि ऋषिकेश में कांगे्रस नेताओं की भरी पूरी जमात मौजूद थी। इसका यह असर रहा कि कांग्रेस की उम्मीदवार तीसरे स्थान पर सिमट गईं। इससे भी बुरी स्थिति यह रही कि कांग्रेस टिकट पर चुनाव हारने वाली उम्मीदवार लक्ष्मी सजवाण और ज्योति सजवाण कांग्रेस को ही बाय-बाय कर चुके हंै।
राजनीतिक तौर पर माना जा रहा हैे कि जिस तरह से कांग्रेस का प्रदेश नेतृत्व कमजोर रणनीति के तहत चुनाव में अपनी भागीदारी कर रहा है उसके पीछे कांग्रेस के बड़े नेताओं के अपने- अपने राजनीतिक हित हैं। पिथौरागढ़ उपचुनाव में जिस तरह से नामांकन के आखिरी दिन से एक दिन पूर्व अंजु लुंठी को अपना उम्मीदवार बनाया गया है वह एक तरह से भाजपा को वाॅकओवर देने का ही काम कर रहा है। छह माह तक कांग्रेस का नेतृत्व पूरी तरह से निष्क्रिय रहा, जबकि मथुरादत्त जोशी कई बार प्रदेश नेतृत्व को अपनी उम्मीदवारी के लिए बता चुके थे। यहां तक कि जोशी जिला पंचायत चुनाव में अपनी पत्नी को पूरे जिले में  सबसे ज्यादा मतों से जिला पंचायत सदस्य का चुनाव जितवा चुके हैं। बावजूद इसके उनकी दावेदारी को नकारते हुए एक ऐसे परिवार की सदस्य को टिकट दे दिया गया जो परिवार शराब और खनन के कारोबार से जुड़ा हुआ है।
अगर कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रांे की मानें तो इसके पीछे नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदेश और प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह की जुगलबंदी की रणनीति काम करती रही है। कांग्रेस प्रदेश सरकार और भाजपा पर शराब और खनन कारोबारियों से संाठ-गांठ का आरोप लगाकर उन्हें घेरने का काम तो कर रही है, लेकिन दूसरी तरफ खुद शराब और खनन का करोबार करने वाले परिवार को ही उपचुनाव में अपना उम्मीदवार बना रही है। इससे भी बड़ा आरोप कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता लगा रहे हंै कि कांग्रेस ने भाजपा के लिए उपचुनाव की राह जानबूझकर आसान की है। नाम न छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने कहा कि पिथोैरागढ़ उपचुनाव में टिकट दिए जाने के पीछे प्रदेश नेतृत्व के व्यक्तिगत राजनीतिक हित छुपे हुए हैं। इसी तरह से इंदिरा हृदयेश पर भी आरोप लगाए जा रहे हैं कि वे अपने व्यक्तिगत हितांे के लिए कांग्रेस को कमजोर करने का षड्यंत्र कर रही हैं।
कांग्रेस नेताओं के इन आरोपांे का क्या आधार है, यह तो पता नहीं है लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि जिस तरह से विगत ढाई वर्षों में कांग्रेस का प्रदेश नेतृत्व एक मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने में असफल रहा है और चुनावी रणनीति में अपने को कमजोर करता रहा है वह जरूर गंभीर सवाल खड़े करता है। यह बात तब और भी प्रासंगिक होती है कि सदन में कांग्रेस को सबसे अनुभवी और वरिष्ठ नेता इंदिरा हृदयेश का नेतृत्व नेता प्रतिपक्ष के तौर पर हैं, लेकिन पार्टी सरकार पर हावी नहीं हो पाई। जबकि सदन से बाहर इंदिरा हृदयेश के हर बयान सरकार को घेरने के बारे में आते रहे हैं। मुख्यमंत्री के परिवार और मित्रों के भ्रष्टाचार को लेकर सामने आए स्टिंग आॅपरेशन को लेकर इंदिरा हृदयेश कई स्टिंग वीडियो अपने पास होने का दावा करती रही हैं, लेकिन उनके द्वारा एक भी वीडियो सार्वजनिक नहीं किया गया।
इसी तरह से प्रदेश कांग्रेस की कमान प्रीतम सिंह के हाथों में है। वे विधायक भी हैं, लेकिन जिन सवालांे पर कांग्रेस सड़क पर सरकार के खिलाफ आवाज उठाती रही है प्रीतम सिंह ने उन सवालों पर सदन में सरकार को कभी परेशान नहीं किया है। यहां तक कि चुनावी रणनीति में प्रदेश नेतृत्व कमजोर ही बना रहा, तो सवाल उठना लाॅजिमी है कि क्या यह कोई लापरवाही है या फिर कोई नया राजनीतिक समीकरण जिसमें कांग्रेस के सिद्धांत और कार्यकर्ता फंसते हुए दिखाई दे रहे हैं।

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