उत्तराखण्ड में जमीनों की लूट/भाग-2
उत्तराखण्ड के अस्तित्व में आने से पहले ही देहरादून की उपजाऊ जमीनों पर माफियाओं की गिद्ध दृष्टि रही। तब से लेकर अब तक सैकड़ों एकड़ जमीनों की नियम-कानूनों के विपरीत खरीद-फरोख्त की गई। कई मामलों की जांच भी हुई। कुछ पर कार्यवाही हुई तो कुछ रसूखदारों के बल पर आज भी अवैध कब्जों में हैं। पिछले दिनों जब प्रदेश की धामी सरकार ने बहुप्रतिक्षित भू-कानून लागू किया तो एक बार फिर सूबे के लोगों को उम्मीद जगी है कि अब जमीनों की लूट की छूट पर रोक लग सकेगी
उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद जिस तरह से प्रदेश के हर जिले में जमीनों की लूट-खसोट का खेल खेला गया, वह अपने आप में बेहद चैंकाने वाला है। एक संगठित गिरोह की तरफ से प्रदेश की जमीनों को स्थानीय और बाहरी राज्यों के भू-कारोबारियों तथा भू-माफियाओं द्वारा सभी नियमों और कानूनों को ताक पर रख जमीनें खरीदी गई या फिर कब्जा कर इन पर बड़े पैमाने में अवैध काॅलोनियों का जाल खड़ा कर दिया गया। राज्य बनने से पूर्व और राज्य बनने के बाद अनेक ऐसी योजनाएं बनाई गईं जिससे इस पर लगाम लगाई जा सके। लेकिन उनकी कार्यशैली पर शुरू से ही सवाल खड़े होते रहे हैं।
देहरादून जिले की ही बात करें तो यहां कृषि भूमि करीब-करीब समाप्त हो चुकी है। हाल ही में मसूरी देहरादून विकास प्राधिकारण द्वारा आंकड़े जारी किए गए जिसके अनुसार अकेले देहरादून जिले में 120 अवैध काॅलोनियां हैं। गौर करने वाली बात यह है कि यह अवैध आवासीय काॅलोनियां कृषि भूमि पर बनाई गई हैं। जहोड़ी, कंडोली, गल्जवाड़ी, फुलसैणी, बगराल, नकरोंदा, किरसाली क्षेत्र पूरी तरह से ग्रामीण क्षेत्र हैं। इसके अलावा शिमला बाइपास के आस-पास कई गांवों की कृषि भूमि पर अवैध काॅलोनियां बन चुकी हैं।
इसी तरह से नूरीवाला, दीप नगर, धोरणखास, नगरबल, हटनाला, किरमाली, अपर तुनवाला, नवादा क्षेत्र जो कभी ग्रामीण थे और कालांतर में देहरादून के समीप होने के चलते नगरीय क्षेत्र बन गए हैं। इन क्षेत्रों में भी अवैध काॅलोनियां खेती की जमीनों पर बना दी गई हैं। गौर करने वाली बात यह है कि यह सभी क्षेत्र मसूरी देहरादून विकास प्राधिकारण के अधीन हैं। जिसके तहत इस तरह के निर्माण नहीं हो सकते।
देहरादून जिले के डोईवाला, भानियावाला, रानी पोखरी, डांड़ी भोगपुर, रायुपर, बड़ासी, थानो यहां तक धारकोट जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में भी खेती की जमीनों पर प्लाॅटिंग करके भवनों का निर्माण के साथ-साथ होटल एवं रिसोर्ट का निर्माण धड़ल्ले से चल रहा है। इन क्षेत्रों में अब खेती लगभग समाप्ति के कगार पर पहुंच चुकी है। पिछले 25 वर्षों में देहरादून में ही 12 हजार से भी अधिक हेक्टेयर कृषि भूमि आवासीय काॅलोनियां, भवनों और कारोबारी प्रतिष्ठानों के हत्थे चढ़ चुकी है। स्वयं मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण के नए मास्टर प्लान के अनुसार देहरादून क्षेत्र में कृषि भूमि महज 10 प्रतिशत ही बची है। वर्ष 2018 में यहां कृषि भूमि 40 फीसदी थी जो कि पिछले 6 वर्ष में सिमटकर 10 फीसदी ही रह गई है।
सरकारी जमीन भी सुरक्षित नहीं
प्रदेश में निजी जमीनों पर अवैध कब्जे और फर्जी दस्तावेजों के जरिए जमीनें कब्जाने का खेल तो हो ही रहा है लेकिन सरकारी जमीनें भी इससे अछूती नहीं हैं। विगत कुछ वर्षों में सरकारी जमीनों के ऐसे कई मामले प्रशासन के संज्ञान में आ चुके हैं। इस बाबत 2023 में धामी सरकार द्वारा जांच के लिए एक एसआईटी का गठन किया गया था। जिसमें यह साबित हो गया कि सरकारी जमीनों को बड़े स्तर पर खुर्द-बुर्द किया गया है।
दून हाउसिंग कम्पनी का भूमि घोटाला
देहरादून के आरकेडिया ग्रांट के चंद्रबनी क्षेत्र में वर्ष 1969 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 700 एकड़ भूमि दून हाउसिंग कम्पनी से आवासीय परियोजना के निर्माण के लिए अधिग्रहित की गई थी। जमीन के अधिग्रहण के बाद भी इस पर काम नहीं हुआ जिसके चलते कालांतर में यह जमीन पूरी तरह से खुर्द-बुर्द कर दी गई।
प्राप्त जानकारी के अनुसार स्वतंत्रता से पूर्व दून हाउसिंग कम्पनी को राज्य सरकार द्वारा आवासीय परियोजनाओं के लिए उक्त भूमि दी गई थी। जिसमें यह शर्त थी कि अगर कम्पनी जमीन का उपयोग आवासीय के लिए नहीं करती है तो सरकार उक्त भूमि को वापस ले लेगी। कम्पनी ने इस भूमि का उपयोग आवासीय के लिए नहीं किया जिसके चलते राज्य सरकार द्वारा वर्ष 1969 में यह भूमि कम्पनी से अधिग्रहण कर ली गई। सरकार ने जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 के तहत अधिसूचना भी जारी करके उसका प्रकाशन तक कर दिया था।
हैरत की बात यह है कि अधिसूचना जारी होने के बाद यह आज तक किसी को पता नहीं है कि उक्त भूमि को राजस्व विभाग ने अपने कब्जे में लिया है या नहीं? यहां तक कि पृथक राज्य बनने के बाद भी राजस्व विभाग के पास इसकी जानकारी नहीं है। 1 सितम्बर 1969 को प्रकाशित अधिसूचना भी जिलाधिकारी, तहसील कार्यालय में उपलब्ध नहीं है। एसआईअी की जांच के बाद पूरा सरकारी अमला हरकत में आया है। एसआईटी ने अपनी जांच रिपोर्ट वित्त सचिव को सौंप दी थी।
गोल्डन फॉरेस्ट भूमि घोटाला
अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय में एक नामी इंवेस्टमेंट कम्पनी गोल्डन फाॅरेस्ट ने निवेशकों के पैसे से वर्ष 1997 में देहरादून जिले में करीब 12 हजार बीघा भूमि खरीदी। इसमें सेवी के नियमों का पालन नहीं किया गया। कम्पनी द्वारा भूमि में प्लांटेशन करके निवेशकों को कम समय में धन दोगुना देने का वादा किया गया। जिससे लाखों निवेशकों ने अपनी गाढ़ी कमाई इस कम्पनी में निवेश की। इस कम्पनी पर धोखाधड़ी के गम्भीर आरोप चलते सुप्रीम कोर्ट ने निवेशकों द्वारा जमा धनराशि को जमीनों की नीलामी के जरिए वापस लौटाने का निर्णय दिया था।
पृथक उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद उक्त सभी जमीनें प्रदेश सरकार के खाते में आ गई लेकिन सरकार और प्रशासन की उदासीनता के चलते गोल्डन फाॅरेस्ट की जमीनों की खरीद-फरोख्त होने लगी। इस फर्जीवाड़े के बाद सरकार ने एसआईटी जांच कराई तो गोल्डन फाॅरेस्ट की जमीनों को खुर्द-बुर्द करने का बड़ा खेल सामने आया जिसमें स्वयं गोल्डन फाॅरेस्ट द्वारा खरीदी गई जमीनों में 205 एकड़ भूमि सरकारी भूमि होने का मामला सामने आया था। चैंकाने वाली बात यह है कि कम्पनी ने फर्जीवाड़ा करके सरकारी भमि को भी अपने खाते में कर लिया था।
इससे भी ज्यादा हैरत की बात यह है कि इस 205 एकड़ भमि की जानकारी सरकारी विभागों को भी नहीं है। जबकि एसआईटी ने अपनी रिपोर्ट में सरकारी भूमि का चिन्हीकरण तक किया है। साथ ही यह भी उल्लेख किया है कि अधिकांश जमीन को खुर्द-बुर्द कर दिया गया है।
आरोप है कि धोरणखास में 5 एकड़ गोल्डन फाॅरेस्ट की भूमि को कूट रचित दास्तावेजों के जरिए बेच दिया गया है। एसआईटी ने इस मामले में पांच लोगों के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज करवाया है।
एसआईटी ने अपने फाइनल रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि उसे 25 जुलाई 2023 से लेकर 28 फरवरी 2025 तक फर्जीवाड़े की कुल 379 शिकायतें मिली जिसमें 110 मामले में ही रिपोर्ट दर्ज करवाने के लिए भेजे गए लेकिन केवल 61 मामलों में रिपोर्ट दर्ज की गई है। साथ ही 20 लोगों को जेल भेजा गया है। एसआईटी के अनुसार इस प्रकार फर्जी दास्तावेजों के आधार पर करीब 2000 एकड़ सरकारी और निजी भूमि पर कब्जे किए गए हैं।
सहकारिता विभाग जमीन घोटाला
जिलाधिकारी देहरादून के जनसुवाई कार्यक्रम में यह मामला पकड़ में आया था। इस मामले में सहसपुर क्षेत्र के शीशमबाड़ा में सहकारिता विभाग की 19 बीघा भूमि को कुछ लोगों द्वारा बेच दिया गया है। वर्ष 2013 मे ंजिला प्रशासन द्वारा कार्यवाही करके अवैध कब्जे को हटाया गया था। इसके बाद प्रशासन और सहकारिता विभाग पूरी तरह से उदासीन हो गया और समस्त भूमि फर्जी कागजातों के जरिए बेच दी गई। जिलाधिकारी द्वारा कार्यवाही का आदेश देने के बाद सहकारिता विभाग हरकत में आया। इस मामले में मुकदमा दर्ज करने की बात कही जा रही है।
रायपुर चाय बागान भूमि घोटाला
देहरादून के रायपुर, चक रायपुर और लाडपुर व परवादून के चाय बागान का भूमि घोटाला भी बेहद चर्चाओं में रहा है। दून के अधिवक्ता विकेश नेगी द्वारा सूचना के अधिकार के तहत इस मामले के प्रमाण एकत्र किए और इसकी शिकायत जिला प्रशासन से की। इस मामले की जांच हुई तो बेहद चौंकाने वाले खुलासे हुए। चाय बागान के लिए सीलिंग से मुक्त भूमि को बड़े पैमाने पर खरीदा औेर बेचा जाता रहा लेकिन राजस्व विभाग इस मामले में आंखें मूंदे रहा। इस चाय बागान की भूमि को खरीदने में भारतीय जनता पार्टी भी एक प्रमुख खरीददार थी। 16 बीघा भूमि भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष बिशन सिंह चुफाल के नाम पर खरीदी गई और 17 अक्टूबर 2020 को इस भूमि पर भाजपा प्रदेश मुख्यालय का शिलान्यास राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा द्वारा किया गया।
वर्ष 1960 में देश भर में सीलिंग कानून लागू किया गया और लाखों एकड़ भूमि इस एक्ट के तहत सरकार में निहित की जाने लगी। तब अपनी बेशकीमती जमीनों को बचाए रखने के लिए जाइमींदारों द्वारा तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार के साथ एक समझौता किया। इस समझौते के अनुसार सीलिंग की जद में आ रही भूमि पर रबड़, काॅफी और चाय बागान लगाने का प्रस्ताव सरकार को दिया गया। सरकार द्वारा कई शर्तों के साथ इस समझौते को मान लिया गया और भूमि को सीलिंग से मुक्त कर दिया गया। समझौते के अनुसार सीलिंग से मुक्त रखी गई भूमि का उपयोग रबड़, काॅफी और चाय बागान के अलावा किसी अन्य उपयोग के लिए नहीं किया जा सकेगा। अगर इसका उपयोग किसी अन्य कार्य के लिए किया जाएगा तो उक्त जमीन सरकार में निहित कर दी जाएगी। यानी उक्त चाय बागन के लिए मुक्त की गई जमीन का मालिकाना हक सरकार का होगा। लेकिन इस शर्त का उल्लंघन होता रहा।
1975 में दून निवासी कुवर चंद्र बहादुर ने भी अपनी परवादून फरगने में स्थित रायपुर, चक रायपुर और लाडपुर में सैकड़ों एकड़ भूमि को चाय बागन के लिए सीलिंग से मुक्त करवा दिया इस पर चाय बागान नहीं लगाया, बल्कि भूमि को अपने रिश्तेदारों को तोहफे में देने के साथ ही और कुछ को बेच दिया गया। उनके रिश्तेदारों ने भी इस भूमि को अलग-अलग लोगों को बेचना शुरू कर दिया। इसी तरह से इस भूमि को राज्य से बाहर के असम, बंगाल और अन्य प्रदेशों के लोगों को आसानी से बेच दिया गया। जब यह मामला सामने आया तो इस पर कार्यवाही करते हुए एडीएम प्रशासन शिव कुमार वरनवाल द्वारा 10 अक्टूबर 1975 के बाद इस भूमि पर किसी भी प्रकार के बैनामे निरस्त करने का आदेश जारी कर भूमि को सरकार में निहित करने की कार्यवाही करने के आदेश जारी कर दिए।
यह मामला एडीएम प्रशासन शिव कुमार वरनवाल पर इस कदर भारी पड़ा कि इस फैसले के बाद उनका स्थानांतरण ही कर दिया गया। फिलहाल यह मामला अभी शासन और जिला प्रशासन के बीच घूम रहा है। इस पर क्या निर्णय होगा यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन इस मामले ने यह साफ कर दिया कि सरकारी सिस्टम के संरक्षण से ही सैकड़ों एकड़ सरकारी भूमि को खुर्द-बुर्द किया जाता रहा है।
सिटूर्जिया भूमि घोटाला
उत्तराखण्ड की राजनीति में भूचाल लाने वाला यह सबसे बड़ा घोटाला माना जाता है। जिस तरह से रायुपर चाय बागान भूमि को सीलिंग से मुक्त करके उक्त भूमि को बेचा गया ठीक उसी तरह से ऋषिकेश स्थित सिटूर्जिया भूमि घोटाला भी हुआ। वर्ष 1960 के दशक में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा विख्यात उद्योग पति नुस्ली वाडिया को ऋषिकेश के रामनगर स्थित गांव में उद्योग स्थापित करने के लिए भूमि दी गई। करीब 300 एकड़ भूमि पर केमिकल उद्योग लगाने के लिए भूमि खरीदने की अनुमति राज्य सरकार ने इस शर्त पर दी कि इस भूमि पर उद्योग के अलावा कोई अन्य उपयोग नहीं किया जाएगा। अगर उद्योग किसी कारणवश बंद होता है या उसका उपयोग नहीं होता है तो उक्त समस्त भूमि राज्य सरकार में निहित हो जाएगी। कई दशकांे तक उद्योग सुचारू तौर पर चलता रहा लेकिन दून घाटी पर सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश पर जिप्सम और चूना-पत्थरों की खदानों पर रोक लगने के बाद इस कारखाने पर संकट के बादल मंडराने लगे और 90 के दशक के अंत में पूरी तरह से बंद कर दिया गया।
इस भूमि को बेचने का प्रस्ताव 2003 में तत्कालीन नारायण दत्त तिवारी सरकार को दिया लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार के समझौते अनुसार उक्त भूमि को बेचा नहीं जा सकता था। जिसके चलते तिवारी सरकार ने इस प्रस्ताव को आगे नहीं बढ़ाया। भाजपा की खण्डूड़ी सरकार के समय में फिर से यह प्रस्ताव रखा गया लेकिन खण्डूड़ी सरकार भी इस पर कोई निर्णय नहीं ले पाई। 2010 में भाजपा की निशंक सरकार के सामने फिर से यह प्रस्ताव रखा गया। निशंक सरकार द्वारा सभी शर्तों और नियमों को ताक पर रखते हुए विचलन के माध्यम से कम्पनी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
निशंक सरकार के इस निर्णय से प्रदेश की राजनीति में खासा हंगामा हुआ और सरकार पर प्रदेश के संसाधनों को लूटवाने के आरोप लगाए गए। ‘दि संडे पोस्ट’ ने इस बड़े भूमि घोटाले पर पुख्ता प्रमाणों के साथ ‘रेहन पर सूबे का भविष्य’ शीर्षक से समाचार प्रकाशित किया था। ‘दि संडे पोस्ट’ के समाचार के बाद निशंक सरकार की खासी फजीहत हुई और विधानसभा में जबर्दस्त हंगामा हुआ। यहां तक कि सदन में ‘दि संडे पोस्ट’ समाचार की प्रतियां लहराई गईं। मजबूरन सदन को स्थगित तक करना पड़ा। इस मामले को लेकर हाईकोर्ट नैनीताल में जनहित याचिकाएं भी दायर हुईं। ‘दि संडे पोस्ट’ के प्रकाशन संस्थान इंडिपेंडेंट मीडिया इनिशिएटिव सोसायटी के जनहित याचिका पर हाईकोर्ट द्वारा सुनवाई की गई। इस जनहित याचिका पर अपना निर्णय सुनाते हुए हाईकोर्ट ने समस्त जमीन को सरकार के नाम करने के आदेश दिए थे।
बीएस सिद्धू प्रकरण
कुछ वर्ष पूर्व फर्जी तरीके से सरकारी जमीन कब्जाने के चर्चित मामलों में प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक बीएस सिद्धू का नाम भी शामिल हो गया। उन पर राजपुर के पुराना मसूरी मार्ग स्थित वीरगिरवाली में नौ बीघा भूमि को फर्जी तरीके से खरीदने और उस पर संरक्षित प्रजाति साल के वृक्षों को कटवाने के आरोप लगे थे। जिस पर बाद में एसआईटी ने आरोप पत्र भी दायर कर दिया है।
दरअसल, यह मामला मृत हो चुके एक व्यक्ति नाथूराम की भूमि का है। नकली नत्थूराम नाम से एक व्यक्ति को जिंदा बनाकर उक्त व्यक्ति से तत्कालीन अपर पुलिस महानिदेश कानून-व्यवस्था बीएस सिद्धू ने जमीन खरीदी और उसकी रजिस्ट्री भी अपने नाम करवा ली। उक्त जमीन पर संरक्षित प्रजाति साल के पेड़ों का कटान किया गया तो वन विभाग हरकत में आया। जांच में पता चला कि उक्त जमीन बीएस सिद्धू की है। इस मामले में पुलिस और वन विभाग दोनों आमने-सामने आ गए। एक-दूसरे के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया गया। मामले की गम्भीरता को देखते हुए सरकार ने इस प्रकरण में एसआईटी का गठन किया और जांच आरम्भ हुई। करीब पांच वर्ष बाद एसआईटी ने अपनी चार्जशीट दाखिल कर दी जिसमें बीएस सिद्धू के साथ ही चार अन्य आरोपियों को नामित किया गया है।
सहसपुर का चर्चित भूमि घोटाला
वर्ष 2010 में पूर्व कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत और उनके करीबियों पर फर्जी पावर ऑफ़ अटार्नी के जरिए 101 बीघा भूमि कब्जाने का आरोप लगा था। यह मामला काफी चर्चाओं में रहा। तत्कालीन भाजपा की निशंक सरकार ने इस मामले में कार्यवाही के आदेश भी दिए और इसकी जांच भी की गई। ‘दि संडे पोस्ट’ ने इस मामले में ‘लावारिस का वारिस’ शीर्षक से समाचार भी प्रकाशित किया था। पिछले वर्ष फरवरी में प्रवर्तन निदेशालय ने इस मामले की जांच आरम्भ की और उक्त 101 बीघा भूमि को एटैच कर लिया।
जानकारी के अनुसार इस भूमि पर न्यायालय में वाद चल रहा है। बताया जाता है कि स्वर्गीय सुशीला रानी ने विरेंद्र कंडारी जो कि हरक सिंह रावत के निजी सहायक हैं तथा नरेंद्र कुमार वालिया जो कि हरक सिंह रावत के खास हैं, के नाम पावर ऑफ़ अटार्नी की। विरेंद्र सिंह कंडारी ने इस पावर ऑफ़ अटार्नी के जरिए यह भूमि दिप्ती रावत तथा लक्ष्मी राणा को बेहद मामूली कीमत पर बेच दी गई। इस भूमि के एक बड़े हिस्से में भव्य दून मेडिकल और साइंस मेडिकल संस्थान बन चुका है जिसका संचालन हरक सिंह रावत के परिजनों द्वारा किया जाता है। फिलहाल मामला ईडी की जांच तक पहुंच चुका है। ईडी के अनुसार मौजूदा समय में उक्त भूमि का बाजारी भाव 70 करोड़ के आस-पास बताया जा रहा है।
सैनिक सहकारी समिति डिफेंस काॅलोनी भूमि घोटाला
भारतीय सेना का जितना सम्मान आम जनता में है शायद उतना सम्मान किसी अन्य संस्था का नहीं होगा। इसके चलते रिटायर्ड सैन्य कर्मचारियों को भी आज ईमानदार और कानून का पालन करने वाला समझा जाता है लेकिन अब जमीनों के आसमान छूते भावों ने रिटायर्ड सैन्य कर्मचारियों में भी घोर लालच और कमाई करने का भाव इस कदर पैदा हो चुके हैं कि रिटायर्ड सैनिकों के लिए बनी काॅलोनियों में भी जमीन घोटाले सामने आने लगे हैं। फरवरी 2025 में देहरादून स्थित पूव सैनिकों की आवासीय डिफेंस काॅलोनी में जमीनों का एक बड़ा घोटाला सामने आया है जिसमें प्रस्तावति लेआउट से कहीं ज्यादा भू-खंडों को बेचने और पार्क के लिए आरक्षित भूमि को समिति के अधिकारियों द्वारा बेचे जाने के आरोप लग रहे हैं।
इस मामले में देहरादून की दि सैनिक सहकारी आवास समिति लिमिटेड डिफेंस काॅलेनी के15 सेवानिवृत सैन्य अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया है। यह सभी रिटायर्ड सैन्य अधिकारी समय-समय पर समिति के पदाधिकारी रहे हैं। इन पर आरोप है कि इनके कार्यकाल में समिति की भूमि को नियम विरुद्ध बेचा गया है। आरोप है कि इन अधिकारियों की समिति ने पार्क और हरित क्षेत्र के भी कागजातों में हेर-फेर करके प्लाॅट काटकर बेचे हैं। स्वीकृत लेआउट से अधिक करीब 100 प्लाॅट काट कर बेच दिए गए हैं।