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Uttarakhand

बदहाल हैं निगम पालिकाएं और पंचायतें

उत्तराखण्ड में वर्तमान में 9 नगर निगम, 42 नगर पालिकाएं और 51 नगर पंचायतें हैं। राज्य गठन के समय एक भी नगर निगम अस्तित्व में नहीं था। सबसे पहले देहरादून नगर पालिका को नगर निगम का दर्जा दिया गया, बाद में 8 अन्य पालिकाओं को निगम में परिवर्तित किया गया था। भारत के महालेखाकार (कैग) ने राज्य की बाबत वर्ष 2020-21 की अपनी रिपोर्ट में इन नगर निगमों, पालिकाओं और पंचायतों की बदहाली की विस्तृत तस्वीर सामने रखी है जिससे स्पष्ट होता है कि कुशासन चलते ये स्थानीय प्रशासनिक ईकाइयां अपने उद्देश्य की पूर्ति कर पाने में पूरी तरह विफल रही हैं

 

प्रदेश में सरकार का जोर स्थानीय निकायों को मजबूत करने का रहा है। इसके लिए तमाम तरह के दावे और घोषणाएं की जाती रही हैं लेकिन स्वयं सरकार के ही आर्थिक सर्वेक्षण और कैग ने सरकार की सारी पोल खोल कर रख दी है। इन दोनों ही रिपोर्टों से यह साफ हो गया हे कि सरकारी तंत्र का पूरा फोकस नए-नए स्थानीय निकायों के गठन पर तो रहा है किंतु उसके सुधार और मजबूती के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए हैं। हैरानी इस बात की है कि जो नगर निकाय पहले ही अपना काम पूरी तरह से नहीं कर पा रहे थे, उनको भी नगर निगमों में तब्दील करके सरकार अपने शहरी विकास के आंकड़े बढ़ाने का ही काम करती नजर आ रही है। कैग की रिपोर्ट में जहां आज प्रदेश के सभी निकाय कर्मचारियों की भारी कमी से जूझ रहे हें तो आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट अनुसार निकायों की आमदनी से कई गुना खर्च कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि राज्य बनने से पूर्व प्रदेश में सिर्फ 62 ही नगर निकाय थे। जिनमें 31 नगर पालिकाएं और 31 नगर पंचायत थीं। राज्य बनने के बाद सबसे पहले देहरादून नगर पालिका को नगर निगम बनाया गया। 2011 में फिर से राज्य में निकायों का गठन किया गया और 6 नगर निगम, 28 नगर पालिकाएं और 38 नगर पंचायतें बना दी गईं। वर्तमान में राज्य में 9 नगर निगम 42 नगर पालिका और 51 नगर पंचायतें काम कर रही हैं।

सरकार ने शहरी क्षेत्रों की आबादी को बेहतर सुविधाएं देने के लिए निकायों का गठन किया था, राज्य सरकारों ने समय-समय पर कई नगर पालिकाओं का विस्तार कर ग्रामीण इलाकों को इनमें शामिल किया।
देहरादून नगर निगम में कई ग्राम सभाओं को शामिल करके विस्तार किया गया है तो ऋषिकेश नगर निगम जो कि पहले नगर पालिका होते हुए भी अपने क्षेत्र में सही तरीके से काम नहीं कर पा रहा था, उसे नगर निगम का दर्जा देकर उसमें कई ग्रामीण क्षेत्रों को जोड़ तो दिया है लेकिन इन क्षेत्रों के नगर निगम में शामिल होने के बाद कोई बड़ा फर्क पड़ा हो, यह भी देखने को नहीं मिला रहा है। राज्य सरकार आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार निकायों की जितनी कमाई है उससे ज्यादा खर्च किया जा रहा है। रिपोर्ट में जो आंकड़ा दिया गया है वह अपने आप में चौंकाने वाला है। ऊधमसिंह नगर जिले में नगर निकाय अपनी आमदनी से 102 प्रतिशत ज्यादा खर्च कर रहा है तो हरिद्वार में 89 प्रतिशत तथा देहरादून जिले के निकाय अपनी आमदनी से 84 फीसदी ज्यादा खर्च कर रहे हैं। इसी तरह से नैनीताल जिला भी 78 फीसदी अधिक खर्च कर रहा है। पर्वतीय जिलों के निकायों की बात करें तो उत्तरकाशी 87 प्रतिशत, रूद्रप्रयाग 80 प्रतिशत, पोड़ी 74 प्रतिशत और बागेश्वर 73 अल्मोड़ा, 88 तथा चंपावत 82 प्रतिशत, पिथौरागढ़ 83 प्रतिशत तथा चमोली 65 एवं टिहरी 75 प्रतिशत खर्च अपनी आय से अधिक कर रहे हैं।

आबादी के बीचोंबीच ऋषिकेश स्थित कूड़े का अंबार

इन सभी निकायों के गठन से यह माना जा रहा था कि प्रदेश के शहरी क्षेत्रों की आबादी को बेहतर सुविधाएं मिलेंगी और प्रदेश में विकास तेजी से होगा। लेकिन हो इसके उलट रहा है। आज निकायों के लिए अन्य सुविधाएं तो छोड़िए मूलभूत सुविधाएं जुटाना भी एक कठिन चुनौती बन चुकी है। हर निकाय में जितनी तेजी से शहरीकरण बढ़ा है उतनी ही गति से वाहनों की भी संख्या बढ़ी है। लेकिन उस अनुपात से किसी भी निकाय में पार्किंग की सुविधाएं तक नहीं बढ़ पाई है। विख्यात पर्यटन नगरी मसूरी, नैनीताल और ऋषिकेश में सबसे ज्यादा वाहनों की पार्किंग की समस्या लंबे समय से बनी हुई है। जबकि दोनों ही नगरों में प्रतिदिन हजारों पर्यटकों की आमद होती है। खास तौर पर सप्ताह के अंत में शनिवार और रविवार को। इन दोनों ही नगरों में जाम की समस्य के साथ-साथ पार्किंग की समस्या विकराल रूप ले चुकी है। पर्वतीय क्षेत्रों के निकायों की स्थिति तो और भी बदहाल है। श्रीनगर, रूद्रप्रयाग, गोपेश्वर, पोड़ी जेसे पर्यटक और धार्मिक महत्व के नगरों में वाहनों की पार्किंग नहीं होने से व्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है। गढ़वाल कमीश्नरी के मुख्यालय पौड़ी नगर में एक भी पार्किंग नहीं है। यहां सड़कों के किनारे यहां-वहां बाहर से आने वालों के साथ-साथ स्थानीय निवासियों के वाहन भी पार्क किए जाते हैं जिससे नगर में जाम की समस्या बनी रहती है। यही हाल रूद्रप्रयाग के भी हैं जहां पार्किंग तो बनाई गई है लेकिन वह ‘ऊंट के मुंह में जीरे’ की कहावत को ही चरिर्तार्थ कर रही है। देहरादून जैसे अति व्यस्ततम नगर में पार्किंग की कमी के चलते राजपुर रोड के दोनों हिस्सों को ही पार्किंग में तब्दील किया गया है।

हालांकि शहरी विकास मंत्रालय इस पर काम कर रहा है लेकिन अभी तक कोई भी योजना धरातल पर नहीं उतर पाई है। मौजूदा समय में प्रदेश के कई नगरों के लिए 91 पार्किंग की योजनाओं की डीपीआर तैयार होने का दावा किया जा रहा है जिसमें 158 अंडर ग्राउंड पार्किंग,50 मल्टीलेवल पार्किंग, 88 आटोमेडिट कार पार्किंग तथा 9 टनल पार्किंग का निर्माण किया जाना है। इनमें से 33 योजनाओं पर काम भी आरंभ हो चुका है। जिन नगरों में पार्किंग का निर्माण होना है उनमें अल्मोड़ा में 22, चमोली में 16, बागेश्वर में 8, चंपावत में 7, हरिद्वार में 5, देहरादून में 4, नैनीताल में 12, पिथौरागढ़ में 16 पौड़ी में 17 तथा ऊधमसिंह नगर में 2 पार्किंग का निर्माण किया जाना है। पार्किंग के अलावा नगर में साफ-सफाई और कूड़े के निस्तारण की भी सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। ऋषिकेश जैसे विश्व विख्यात धार्मिक और पर्यटन नगरी में तो लगभग 40 वर्षों से कूड़े के निस्तारण की कोई योजना तक नहीं बनाई जा सकी है। जबकि ऋषिकेश नगर कुंभ मेला क्षेत्र में ही आता है और प्रति 12 वर्ष में पूर्ण कुंभ और प्रति 6 वर्ष में अर्धकुंभ का आयोजन किया जाता रहा है। राज्य बनने के बाद दो पूर्ण कुंभ और 2 अर्धकुंभ का आयोजन हो चुके हैं।

इन सबके बावजूद ऋषिकेश में कूड़ा निस्तारण के लिए नगर के बीचोंबीच एक विशाल भूखंड पर ही कूड़े का निस्तरण खुले में किया जाता रहा है जो कि आज एक छोटे-मोटे पहाड़ जैसे स्वरूप में खड़ा हो चुका है। हालांकि कूड़ा निस्तारण के लिए स्थान का चयन हो चुका है और बजट भी स्वीकृत हो चुका है लेकिन स्थानीय राजनीति और नगर निगम प्रशासन की घोर उदासीनता के चलते संयंत्र का निर्माण नहीं हो पा रहा है।
अब कैग की रिपोर्ट की बात करें तो कैग के अनुसार स्थानीय निकाय 62 से 75 फीसदी कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे हैं। केंद्रीयकृत-गैर केंद्रीयकृत और आउटसोर्सिंग के 10700 पदों में से 6821 पद रिक्त हैं। इनमें केंद्रीयकृत 853 पद स्वीकृत हैं जिनमें महज 209 पद ही कार्यरत हैं और 644 पद रिक्त चल रहे हैं। जबकि गैर केंद्रीयकृत पद 1038 पद स्वीकृत हैं जिसमें 365 पद कार्यरत हैं और 673 पद रिक्त चल रहे हैं। इसी तरह से
आउटसोर्सिंग से भरे जाने वाले 8842 पद स्वीकृत हैं जिसमें 3338 पद कार्यरत हैं जबकि 5504 पद रिक्त चले आ रहे हैं।

इसके अलावा निकायों के संवर्गीय पदों में सभी स्तर के पद रिक्त चल रहे हैं। जिनमें कनिष्ठ अभियंता के 16 पद स्वीकृत हैं जिनमें 9 कार्यरत हैं जबकि 7 पद रिक्त हैं। सहायक लेखाकार के 19 पद स्वीकृत है जिनमें 9 कार्यरत हैं, शेष 13 रिक्त चल रहे हैं। स्वच्छता निरीक्षक के 43 पद स्वीकृत हैं जिसमें 22 पद कार्यरत हैं जबकि 21 रिक्त चल रहे हैं। यानी स्वच्छता अभियान के लिए बेहद जरूरी पदों में भी आधे पद खाली ही हैं। कर एवं राजस्व निरीक्षकों के 32 पदों में से 12 कार्यरत हैं, शेष रिक्त ही है। इसी तरह से लेखा लिपिक के 41 पदों के सापेक्ष में 12 कार्यरत हैं और 29 रिक्त हैं। कनिष्ठ सहायक के 93 पदों में से 20 रिक्त, कर संग्रह कर्ता के 78 में से 36 रिक्त तथा पर्यावरण पर्यवेक्षक के 138 पदों में से 92 पद रिक्त चल रहे हैं। संवर्गीय पदों में आउटसोर्सिंग से भरे जाने वाले 3683 पदों में से 584 पद रिक्त चल रहे हैं।

राज्स सरकार ने इस बजट सत्र में कई निकायों को धन की बरसात कर उनके लिए बड़ी राहत भी दी है। 664 करोड़ 67 लाख नगर पालिकाओं के लिए ओैर 114 करोड़ 70 लाख नगर पंचायतों के लिए बजट का प्रावधान रखा है। साथ ही केंद्र सरकार से स्थानीय निकायों के लिए 933 करोड़ 27 लाख के अनुदान की उम्मीद रखी है। यानी प्रदेश के निकायों के लिए फंड की कमी नहीं होने वाली। सरकार के फंड के बावजूद निकाय नागरिकां को सेवाएं देने में पीछे ही रहे हैं। कैग ने निकायों को शहरी क्षेत्रों में निवास करने वाले 93 प्रतिशत गरीब वर्ग को आवास की सुविधा नहीं दे पाने का खुलासा अपनी रिपोर्ट में किया है। राज्य में 3094 चयनित लाभार्थियों में से महज 210 को ही आवास की सुविधा मिल पाई है। यह अपने आप में चौंकाने वाला आंकड़ा है जबकि यह योजना 2015 से राज्य में लागू की गई थी और 2018 तक इसको पूरा किया जाना था।

2021 में भी इस योजना का लाभ गरीबों को नहीं मिल पाया है। निकाय प्रशासन हर मामले में लापरवाह बना रहा। कैग के अनुसार कई निकायों ने इसकी डीपीआर तक नहीं बनाई और कई निकायों में निर्माण कार्यों में काफी देरी की गई। साथ ही निकायों ने इस येजना पर गंभीरता से काम नहीं किया और मानकों के विपरीत काम किया गया। भगवान पुर, पिरान किलयर नगर पंचायत और मुनि की रेती एवं हर्बटपुर नगर पालिका परिषद में 911 चयनित लाभार्थियों में से 529 के पास भूमि स्वामित्व का प्रमाण नहीं होने के बावजूद इनको अनापत्ति प्रामाण पत्र निर्गत किए गए। इससे साफ है कि इस योजना में बड़े पैमाने पर अनियमितताएं और घपला भी हुआ है। राजनीति में त्रिस्तरीय पंचायत और निकाय चुनावों को राजनीतिक दल अपनी सत्ता और ताकत का पर्याय मानते रहे हैं इसके लिए सत्ताधारी पार्टी का पूरा फोकस इसमें लगा रहता है लेकिन इसके सुधार के लिए कोई ठोस योजना बनाने की बजाय केंद्र सरकार के फंड पर ही निगाहें लगाई जाती रही हैं।

 

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