पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के फैसलों को धामी सरकार पलट रही है। दावा किया जा रहा है कि ऐसे फैसले प्रदेश पर आर्थिक बोझ को बढ़ाने वाले हैं। ऐसा ही एक फैसला मुख्यमंत्री धामी ने ‘प्रोजेक्ट राइनो’ पर ब्रेक लगाकर किया है। त्रिवेंद्र सरकार के कार्यकाल के दौरान शुरू हुए इस प्रोजेक्ट के तहत असम से 12 गैंडे उत्तराखण्ड लाए जाने थे जिन पर चार करोड़ से अधिक प्रति वर्ष खर्च होना था। साथ ही मानव-वन्य जीव संघर्ष का भी डर था। प्रदेश में इस संघर्ष से पिछले 21 सालों में 995 लोगों की मौत हुई तथा 4,858 घायल हो चुके हैं
- अली खान
उत्तराखण्ड की तत्कालीन त्रिवेंद्र रावत सरकार के दौरान वन्यजीवों के कुनबे को बढ़ाने के लिए एक योजना बनाई गई थी। जिसके तहत असम से गैंडों को कॉर्बेट नेशनल पार्क में लाने की थी। तब इसका नाम प्रोजेक्ट राइनो दिया गया था। तब त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के दौरान राज्य वन्यजीव बोर्ड की तरफ से भी मंजूरी दे दी गई थी। उत्तराखण्ड वन विभाग की तरफ से बनाए गए प्लान के अनुसार इसको करीब 3 साल का प्रोजेक्ट बनाया गया था जिसमें 4.3 करोड़ प्रतिवर्ष खर्चा होना था। जबकि गेंडे की सुरक्षा के मद्देनजर तैनात की जाने वाली एके 47 से लेस फोर्स पर खर्चा अलग से किया जाना था। इस मामले में एनटीसीए की कुछ आपत्तियों और मानव वन्य जीव के संघर्ष की संभावना बढ़ने समेत इस प्रोजेक्ट पर लगने वाले खर्चे को देखते हुए धामी सरकार ने त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के इस प्रोजेक्ट से हाथ पीछे खींच लिए हैं।
मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक पराग धकाते ने भी इसकी पुष्टि की है। धकाते के अनुसार इस प्रोजेक्ट को तमाम वजहों से अब पूरी तरह से बंद कर दिया गया है। उसके पीछे उन्होंने वित्तीय कारणों के साथ ही दूसरी वजह भी बताई। 2019 में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की तरफ से असम के मुख्यमंत्री से भी गैंडों को उत्तराखंड लाने के संबंध में बात कर ली गई थी। इसके बाद असम सरकार की तरफ से भी इस पर हरी झंडी दे दी गई थी। तब दावा किया गया था कि 6 महीने के भीतर उनकी शिफ्टिंग कर दी जाएगी। बताया गया कि असम के काजीरंगा नेशनल पार्क से कुल 12 गैंडे लाए जाने थे। इनमें 4 नर और 8 मादा को लाया जाना था।
उस दौरान कहा गया कि उत्तराखण्ड के कॉर्बेट नेशनल पार्क में पहले भी गैंडों की अच्छी-खासी संख्या थी। लेकिन बाद में विलुप्त हो गई थी। वन्यजीव संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक कमर कुरैशी और अन्य दो विशेषज्ञों ने 2007 में कॉर्बेट नेशनल पार्क में गैंडों को बसाए जाने की वकालत की थी। उन्होंने कॉर्बेट के अलावा प्रदेश के दक्षिणी पूर्व में तराई पूर्वी वन प्रभाग के सुरई रेंज और ढिकाला रेंज के पतेरपानी के घास के मैदानों को गैंडे के लिए मुफीद बताया था लेकिन कार्बेट को सबसे बेहतर विकल्प बताया था।
अठारहवीं सदी के अंत तक उत्तराखण्ड में भी एक सींग वाला विशालकाय गैंडा विचरता था। 1788 से 1789 के बीच दो ब्रिटिश चित्रकारों थॉमस डैनियल और उनके भतीजे विलियम डेनियल ने कलकत्ता से लेकर गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर तक की यात्रा की इसी दौरान उन्होंने कोटद्वार के पास गैंडा देखा था और उसका चित्र भी बनाया था। एक सींग वाला गैंडा आईयूसीएन की रेड लिस्ट यानी खतरे में पड़े जीवों की सूची में है। दुनिया में केवल 3500 गैंडे हैं जिनमें से 2400 असम के काजीरंगा नेशनल पार्क में व 600 नेपाल के चितवन नेशनल पार्क में हैं। करीब दो सौ साल पहले उत्तराखण्ड के तराई के इलाके में गेंडा पाया जाता था।
भारतीय गैंडा एक समय सिंधु, गंगा व ब्रह्मपुत्र नदी घाटियों में यानी पाकिस्तान से लेकर भारत-म्यांमार सीमा, बांग्लादेश नेपाल व भूटान के दक्षिणी हिस्से यानी भारतीय उपमहाद्वीप के समूचे उत्तरी भाग में पाया जाता था। लेकिन लगातार शिकार के साथ ही तराई के घास के मैदानों में बढ़ती आबादी खेती के कारण उससे यह इलाका छिनता गया और 19वीं सदी तक वह केवल उत्तर प्रदेश, नेपाल के तराई, उत्तरी बिहार, उत्तरी पश्चिमी बंगाल व असम की ब्रह्मपुत्र घाटी तक सिमट गया। थॉमस सी जेर्डन में 1867 में लिखा कि कर्नल जेंटिल के नक्शे के मुताबिक वह 1770 तक उत्तरी बिहार व अवध में गैंडा बहुतायत में पाया जाता था। 1910 में भारत में गैंडे के शिकार पर पाबंदी लगा दी गई थी।
एक आकलन के मुताबिक भारतीय उपमहाद्वीप में भारतीय गैंडे की आबादी लगभग साढ़े तीन से चार हजार है जिनमें से अधिकांश गैंडे भारत के संरक्षित क्षेत्रों खासकर असम में हैं। कहीं और से गैंडों को दूसरी जगह बसाने का प्रयोग सबसे पहले पाकिस्तान में हुआ। 1983 में पाकिस्तान के लाल सुहनरा नेशनल पार्क में नेपाल के चितवन नेशनल पार्क से दो गैंडे लाकर बसाने का प्रयास किया गया था लेकिन माना जाता है कि यह प्रयोग असफल रहा। भारत में सबसे पहले 1984 में असम की पोबितोरा वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के बाहरी हिस्सों व गोलपाड़ा से पांच गैंडे उत्तर प्रदेश के दुधवा नेशनल पार्क में बसाए गए थे। इसके बाद उग्रवादी गतिविधियों के कारण असम के मानस नेशनल पार्क में गैंडे विलुप्त हो जाने के कारण उन्हें 1989 में वहां दोबारा लाया गया।