पाॅट्सडैम इंस्टीटयूट फाॅर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च (पीआईके) व द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टीईआरआई) की एक संयुक्त अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन से उत्तराखण्ड के ऊंचाई वाले इलाके प्रभावित होंगे। इससे लोगों के पलायन और जमीन को बंजर छोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ेगी और अगले 30 साल में ऊंचाई वाले इलाकों के लोगों को खेती छोड़कर मैदानी इलाकों की तरफ आना मजबूरी बन जाएगी। उल्लेखनीय है कि पहाड़ छोड़कर मैदानी क्षेत्रों में आने की प्रक्रिया में अभी से तेजी आने लगी है। जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाली क्लाइमेट टेªंड्स की रिपोर्ट कहती है कि हार्टिकल्चर और फल उत्पादन में इसका असर देखने को मिल रहा है। पहले पहाड़ी इलाकों में नीबू, लीची, अखरोट, आडू, सेब, नाशपाती, माल्टा, नारंगी आदि फलों का भरपूर उत्पादन होता था। अब सही जलवायु न होने से उत्पादन में कमी आ रही है
- उत्तराखण्ड में जलवायु परिवर्तन से प्रभावित मौसम की चरम स्थितियों ने कई पर्यावरणीय चुनौतियां पैदा कर दी हैं। इसने मानव स्वास्थ्य, आजीविका, कृषि व जैव विविधता को प्रभावित किया है। जो पहाड़ कभी जलवायु को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे वह आज जलवायु परिवर्तन की गंभीर चपेट में हैं। अब इसके पर्यावणीय, आर्थिक, सामाजिक व स्वास्थ्यगत दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। यहां जलवायु स्थानांतरित हो रही है। वर्षा का चक्र बदल रहा है। भीषण गर्मी पड़ रही है। हैंगिग ग्लेशियरों का बेस कमजोर हो रहा है। एवलांच की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। हिम रेखाएं निरन्तर सिकुड़ रही हैं। नदियों के जल प्रवाह में परिवर्तन हो रहा है। जैव विविधता प्रभावित हो रही है। खरपतवारों में वृद्धि, सीजनल ग्लेशियरों का न बनना, नदियों का सूखना, फसलों में परिवर्तन, गड़बड़ाता पारिस्थितिकी संतुलन अब एक बड़ी चुनौती बन चुका है। समय से पहले ब्रह्मा कमल का खिलना, काफल का समय से पहले पकना, 6500 मीटर की ऊंचाई पर मोर के दिखने व मोनाल, कस्तूरी मृग जैसे अन्य जीवों के भोजन पर आ रहे संकट के पीछे पर्यावरण विशेषज्ञ जलवायु परिवर्तन को इसका कारण मान रहे हैं।
कृषि पर दुष्परिणाम
- पानी की कमी
- सुखाड़ में तीव्रता
- मिट्टी में मौजूद जैविक तत्वों की कमी
- कम पैदावार
- मिट्टी की उर्वरा शक्ति में कमी
- फसल अवधि का छोटा होना
- प्रकाश संश्लेषण में बदलाव
- फसल श्वसन दर में इजाफा
- कीटाणुओं की आबादी का प्रभावित होना
- कम व अधिक वर्षा का होना
- अत्यधिक नमी का होना
- फसलों पर कीड़े लगना
- बैमोसम बारिस, बाढ़, सूखा
- भूस्खलन की घटनाओं में मृदा का बहाव
- असमय औलों की बौछार
पाॅट्सडैम इंस्टीटयूट फाॅर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च (पीआईके) व द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टीईआरआई) की एक संयुक्त अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन से उत्तराखण्ड के ऊंचाई वाले इलाके प्रभावित होंगे। इससे लोगों के पलायन और जमीन को बंजर छोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ेगी और अगले 30 साल में ऊंचाई वाले इलाकों के लोगों को खेती छोड़कर मैदानी इलाकों की तरफ आना मजबूरी बन जाएगी। उल्लेखनीय है कि पहाड़ छोड़कर मैदानी क्षेत्रों में आने की प्रक्रिया में अभी से तेजी आने लगी है। जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाली क्लाइमेट टेªंड्स की रिपोर्ट कहती है कि हार्टिकल्चर और फल उत्पादन में इसका असर देखने को मिल रहा है। पहले पहाड़ी इलाकों में नीबू, लीची, अखरोट, आडू, सेब, नाशपाती, माल्टा, नारंगी आदि फलों का भरपूर उत्पादन होता था। अब सही जलवायु न होने से उत्पादन में कमी आ रही है। बढ़ते तापमान ने बागवानी को सीधे तौर पर प्रभावित किया है। इसका प्रभाव फलों की गुणवत्ता पर भी पड़ रहा है। विषय विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिर्वतन के चलते जलस्रोत भी प्रभावित हो रहे हैं। जिसके परिणाम स्वरूप पौधों में परागण, बीजों के जमने का समय व फलों के पकने के समय में अंतर आने से
पारिस्थितिकी तंत्र व जीव-जंतुओं का जीवन चक्र सीधे प्रभावित हो रहा है। कम बर्फबारी के चलते अल्पलाइन वनस्पति भी प्रभावित हो रही है। वायु मंडल में तापमान की वृद्धि जंगलों में आग का कारण बन रही है। वन, वनस्पतियां व पारिस्थितिकी प्रभावित हो रही है।
प्रदेश में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सरकार कार्ययोजना तैयार करने जा रही है। सरकार जलवायु संरक्षण की दिशा में प्राथमिकता से कार्य कर रही है। पर्यावरण संतुलन और जैव विविधता बनाए रखने के लिए इकोनाॅमी और इकोलाॅजी के बीच समन्वय बनाकर कार्य किए जा रहे हैं। राज्य में जीडीपी की भाॅति जीईपी इंडेक्स तैयार कर जल, वन, भूमि और पर्वतों के पर्यावणीय योगदान का आकलन किया जा रहा है। जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिकी संकट से समस्याओं के समाधान के लिए राज्य में अनेक कार्य किए जा रहे हैं।
पुष्कर सिंह धामी, मुख्यमंत्री उत्तराखण्ड
आईपीसीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन वन पारिस्थितिकी प्रणालियों को प्रभावित कर रहा है। बसंत ऋतु में तापमान सामान्य से अधिक होना, वनस्पतियों में समय पूर्व फूल खिलना यानी समय से पूर्व हो रही यह तमाम प्रक्रियाएं बदलते मौसम चक्र व इसके प्रभावों का संकेत दे रही हैं। जलवायु विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर तीन डिग्री तापमान बढ़ा तो हिमालय के 90 प्रतिशत हिस्से में सूखा पड़ेगा। ग्लोबल वार्मिग से जलवायु परिवर्तन के जोखिम और उससे मानव और प्राकृतिक प्रणाली पर पड़ने वाले प्रभाव गंभीर होते जा रहे हैं। जैसे-जैसे तापमान में वृद्धि हो रही है उससे सूखे व बाढ़ का जोखिम बढ़ता जा रहा है। यह सीधे तौर पर फसलों को काफी नुकसान पहुंचा रहा है। जैव विविधता प्रभावित हो रही है। जलवायु परिर्वतन पर शोध करने वाली तमाम संस्थाओं का यह मानना रहा है कि यदि ग्लोबल वार्मिग की सीमा 1.5 डिग्री तक सीमित रहेगी तो आधे नुकसान को रोका जा सकता है। सरकारों व विज्ञानियों के समक्ष यही एक बड़ी चुनौती बन गई है। अब सोचने वाली बात यह है कि जब बढ़ते तापमान के साथ जलवायु परिवर्तन का असर पेड़-पौधों एवं वनस्पतियों पर लगातार पड़ रहा है। मौसम चक्र में बदलाव आ रहा है। तमाम फल-फूल समय से पहले पकना शुरू हो गए हैं। फसलों पर प्रभाव पड़ना शुरू हो गया हो। पैदावार में लगातार कमी आने लगी हो। नदियों का जलस्तर कम होता जा रहा हो। पेयजल स्रोत सूखने लगे हों। शीतकाल में ही धूप-गर्मी बढ़ने लगी हो। उच्च हिमालय की बर्फीली चोटियां बर्फविहीन होने लगी हों तो फिर अगर तापमान लगातार बढ़ता रहा तो क्या स्थिति हो सकती है, यही एक बड़ी चिंता का विषय बन चुका है।
कृषि पर प्रभाव
आज के दौर में जलवायु परिवर्तन एक ऐसा शब्द है जिसने हर किसी को प्रभावित किया है। यह ऐसी चोट पहुंचा रहा है जिसने आम आदमी से लेकर सरकारों की नींद तक उड़ा दी है। आज कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जो इससे प्रभावित नहीं हुआ है। इसका सर्वाधिक असर कृषि पर पड़ रहा है। विशेषकर पहाड़ी कृषि इससे सर्वाधिक प्रभावित हो रही है। पूरे पहाड़ की कृषि मौसम आधारित रही है। अब जलवायु परिवर्तन की सबसे पहली मार मौसम पर पड़ी है जिसकी वजह से मौसम में बदलाव आना शुरू हो गया है। इसने सीधे कृषि को प्रभावित किया है। चूंकि कृषि की उत्पादकता मौसम, जलवायु और पानी की उपलब्धता पर निर्भर होती है। इसमें से किसी एक में परिवर्तन कृषि की उत्पादकता को सीधा प्रभावित करता है। जलवायु परिवर्तन के चलते फसलों के लगातार प्रभावित होने से पहाड़ी किसान खेती का मोह छोड़ रहे हैं। सूखे सहित तमाम तरह की मौसमी घटनाओं से किसानों की आय भी प्रभावित हो रही है। खेती से होने वाली उनकी आय घट रही है। आय घटने से उनकी आजीविका भी प्रभावित हो रही है। आय प्रभावित होने से उनका जीवन निर्वहन भी कठिन होता चला जा रहा है।
सरकार के प्रयास
उत्तराखण्ड सरकार ने अपने हालिया बजट में जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए 60 करोड़ रुपयों का प्राविधान किया है। इसके अलावा पर्यावरण संरक्षण के लिए सकल घरेलू उत्पाद की तर्ज पर सकल पर्यावरणीय उत्पाद का आंकलन करने की तरफ भी सरकार बढ़ी है। सरकार ने जलवायु बजट की जो व्यवस्था की है वह राज्य के पर्यावरणीय सेवाओं को बढ़ाने में खर्च होनी है। उत्तराखण्ड सकल पर्यावरण उत्पाद (जीईपी) आधारित व्यवस्था लागू करने वाला राज्य भी बन चुका है। इससे पहले पूर्ववर्ती कांगे्रस सरकार में एक जलवायु परिवर्तन टूल किट भी प्रारम्भ किया था। इसके लिए कहा गया था कि यह टूल किट प्रकृति पर मानवीय गतिविधियों के प्रभावों का विवरण देगा। पर्यावरण संरक्षण के लिए सर्वश्रेष्ठ वैश्विक और स्थानीय प्रयासों की जानकारी देने में सक्षम होगा। यह भी कहा गया था कि यह एक हरित भविष्य का रोडमैप देता है। जलवायु परिर्वतन से उत्पन्न खतरों और निरंतर आ रही प्राकृतिक आपदाओं को लेकर प्रदेश की राजधानी देहरादून में छठवें विश्व आपदा सम्मेलन का आयोजन भी किया जा चुका है, जिसमें 70 देशों के प्रतिनिधियों ने भागीदारी की थी। सम्मेलन के बाद एक घोषणा पत्र जारी हुआ। इसमें कुछ महत्वपूर्ण सुझाव सामने आए थे। जिनमें आपदा जोखिम न्यूनीकरण को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना, आपदा प्रतिरोध के लिए बजट आवंटन, पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना, पर्वतीय समुदायों का सशक्तीकरण करना प्रमुख थे। कुल मिलाकर जिस तरह से जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं, इसे देखकर सरकारों को कागजों के बजाय धरातल पर कार्य करने की सख्त जरूरत है। जलवायु व पर्यावरण विज्ञानियों की चेतावनी को भी गंभीरता से लेने की जरूरत है। पर्यावरण विज्ञानी लगातार कहते आ रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के खतरों को देखते हुए हिमालय के जल व जंगल के संरक्षण की दिशा में मिलकर प्रयास जरूरी है। हिमालय में आर्थिकी एवं पारिस्थितिकी में संतुलन बनाकर काम किए जाने की जरूरत है। पर्यावरण संरक्षण के दृष्टिकोण से हिमालय संरक्षण की जरूरत है। अगर समय रहते ठोस नीतियों के साथ काम नहीं किया गया तो जलवायु परिवर्तन एक बड़ी समस्या बन सकती है, जिससे निपटना फिर आसान नहीं हो पाएगा।
बात अपनी-अपनी
देश में तीन बड़े इको सिस्टम यानी हिमालय, तटीय क्षेत्र व मरूस्थल को लेकर लगातार चर्चा होनी चाहिए। जीडीपी की तर्ज पर जीईपी यानी ग्रास इनवायरनमेंट की तर्ज पर आंकलन होना चाहिए। जिस प्रकार
आर्थिकी के लिए हम चिंतित होते हैं ठीक उसी तरह हमें पारिस्थितिकी को लेकर भी चर्चा करनी चाहिए।
डाॅ. अनिल जोशी, पर्यावरणविद्
जलवायु परिवर्तन वर्तमान में एक गंभीर समस्या है। हमें ऐसे गंभीर विषय पर चिंतन कर इसका निदान खोजना होगा। प्रदेश में पर्यावरण संरक्षण पर जोर देना होगा।
डाॅ. नंदन सिंह बिष्ट, वरिष्ठ विज्ञानी
ग्लोबल वार्मिंग मौसम के पैटर्न को प्रभावित कर रही है, जिससे हीटवेव तीव्र हो रही है और बारिश का पैटर्न अनियमित हो रहा है।
महेश पलावत, उपाध्यक्ष, स्काईमेट वेदर
जलवायु परिवर्तन को कम करने का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि लोगों में निचले स्तर पर जागरूकता लाई जाय। लोगों को इन प्रयासों में शामिल किया जाय क्योंकि जलवायु परिवर्तन हम सभी को प्रभावित कर रहा है।
डाॅ. एस. फारूख, पूर्व अध्यक्ष, सी.आई.आई.सी. उत्तराखण्ड राज्य परिषद