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Uttarakhand

ग्राम देवताओं की दिव्यता : लोक आस्था के आधार स्तम्भ पैथल भगवान

उत्तराखण्ड एक आध्यात्मिक खोज-20
 

मुझे आज भी याद है जब मैं बचपन में पहली बार मंदिर गया था। वहां की शांति और देवता के पत्थर की मूर्ति मौन उपस्थिति ने एक गहरा प्रभाव छोड़ा। यहां आकर मन में एक अदृश्य सुरक्षा की भावना भर जाती थी – मानो कोई शक्ति मेरे सिर पर हाथ रखे हुए है। पैथल भगवान का मंदिर मेरे लिए केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि मेरे अस्तित्व के गहरे प्रश्नों का केंद्र है। मैं अक्सर अस्तित्व और नास्तिकता के मध्य भ्रम की स्थिति में रहता हूं। कभी लगता है यह केवल परम्परा है, कभी लगता है यह परम्परा ही वह डोर है जो मुझे जीवन से जोड़ती है। डाॅ. ब्रायन एल. वीस की पुस्तक Many Lives, Many Masters में एक पंक्ति मेरे भीतर के द्वंद्व को बखूबी व्यक्त करती है कि “We must believe… We must believe. And I doubt. I choose to doubt rather than to believe.” (हमें विश्वास करना चाहिए… अवश्य करना चाहिए। लेकिन मैं संदेह करता हूं। मैं विश्वास के स्थान पर संदेह को चुनता हूं।) यह वाक्य मेरे अंदर चल रही आध्यात्मिक यात्रा का सार है- एक ओर लोक आस्था और पारिवारिक अनुभवों की विरासत, दूसरी तरफ तर्क और आधुनिक बोध। शायद यह द्वंद्व ही मुझे बार-बार उस मंदिर की ओर खींचता है जहां उत्तर नहीं, लेकिन एक शांत अनुभव अवश्य मिलता है। मेरे बड़े भाई अनुपम आज भी नियमित रूप से गांव जाते हैं। उनका कहना है कि जब वे पैथल भगवान के मंदिर में पूजा करते हैं तो उन्हें एक अपूर्व मानसिक शांति मिलती है

”देवता सिर्फ मंदिरों में नहीं होते – वे हमारे गांव की मिट्टी, हवा और रिश्तों में निवास करते हैं।’’

उत्तराखण्ड को देवभूमि कहे जाने का आधार केवल उसके भव्य तीर्थस्थल नहीं, बल्कि गांव-गांव में बसे वे ग्राम देवता हैं जो लोक आस्था के आधारस्तम्भ हैं। इन देवताओं का कोई ग्रंथ नहीं, कोई ऐतिहासिक तिथि नहीं, लेकिन हजारों वर्षों की श्रद्धा और अनुभव ने उन्हें एक जीवंत आध्यात्मिक सत्ता बना दिया है। मेरे गांव ओलियागांव में ऐसे ही एक ग्राम देवता की उपस्थिति है – पैथल भगवान। उनका मंदिर हमारे गांव और आस-पास के 9 गांवों की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धुरी है। पैथल भगवान का यह मंदिर सामान्य नहीं है। यह एक स्वयंभू स्थल है, यानी यह किसी मानव निर्मित मूर्ति की नहीं, बल्कि एक प्राकृतिक पत्थर में प्रकट दिव्य शक्ति की आराधना का केंद्र है। मान्यता है कि यह पत्थर समय के साथ धीरे-धीरे बड़ा होता जा रहा है। यह केवल एक कथा नहीं, बल्कि गांव वालों की पीढ़ियों से संजोई गई अनुभूति है।

लोकमान्यता है कि पैथल भगवान ने अपने अनेक भक्तों को चमत्कारी रूप से संकट से उबारा है। एक प्राचीन कथा के अनुसार, एक समय गांव में भीषण महामारी फैली थी और जब सभी उपचार विफल हो गए, तो मंदिर में विशेष पूजा कर देवता से प्रार्थना की गई। उसी रात एक ग्रामीण को स्वप्न में देवता ने एक विशेष जड़ी बूटी का संकेत दिया, जिसके उपयोग से पूरा गांव धीरे-धीरे रोगमुक्त हो गया। ऐसी अनेक कथाएं बुजुर्गों की स्मृति में आज भी जीवंत हैं। पैथल भगवान केवल ओलियागांव के नहीं, बल्कि आस-पास के 9 गांवों – ओलिया गांव, निराई, बैजल  सिमखोला, सूपाकोट, ओकाली, कोटली, सुनादी और रनमन भोनरी के कुलदेवता हैं। यह मंदिर इन गांवों की आपसी एकता, सहयोग और सामूहिक चेतना का प्रतीक है। हर वर्ष मंदिर के निकट स्थित धूनी स्थल पर ‘जागर’ होती है – यह एक लोक अनुष्ठान है जिसमें गायक, ढोल-दमाऊ और देवगीतों के जरिए देवता का आवाहन करते हैं। रातभर गीत गाए जाते हैं और देवता कभी-कभी गौर में उतरकर अपनी उपस्थिति जताते हैं। यह परम्परा न केवल धार्मिक है, बल्कि हमारी लोक स्मृति और सांस्कृतिक ज्ञान का जीवंत रूप है।

अल्मोड़ा जिले की तहसील सोमेश्वर में बसा ओलियागांव न केवल प्राकृतिक रूप से समृद्ध है, बल्कि यह उत्तराखण्डी साहित्य, सेना और प्रशासनिक सेवाओं में योगदान के लिए भी जाना जाता है। यहीं जन्मे हैं हिंदी के महान कथाकार शेखर जोशी, जो रिश्ते में मेरे ताऊजी लगते थे। उन्होंने अपने उपन्यास ‘ओलियागांव’ में इस गांव की स्मृति, संस्कृति और सामाजिक बदलाव को बड़े आत्मीय और सजीव ढंग से चित्रित किया है। यह उपन्यास केवल किसी गांव की कहानी नहीं है, बल्कि एक पूरी सभ्यता की आत्मकथा है। लेखक ने गांव की आत्मा को केवल भूगोल से नहीं, बल्कि वहां के देवी-देवताओं, रिश्तों और आस्था से जोड़ा है। पैथल भगवान उपन्यास में भले ही नाम से न आए हों, लेकिन गांववासियों के संकटों, विश्वासों और धार्मिक चेतना में उनकी मौन उपस्थिति हर जगह महसूस होती है।

शेखर जोशी जी से मेरा व्यक्तिगत सम्बंध रहा है। एक निजी संवाद में उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘गांव की पहचान केवल भूगोल में नहीं, उन स्मृतियों में है जो पीढ़ियों से पीढ़ियों तक भीतर उतरती चली जाती हैं। ये स्मृतियां कभी मंदिर की सीढ़ियों पर मिलती हैं, कभी देवता की प्रतिमा के आगे चढ़े चावल के दानों में।’ उनके यह शब्द आज भी मेरे भीतर प्रतिध्वनित होते हैं और मुझे बार-बार यह एहसास कराते हैं कि पैथल भगवान जैसे ग्राम देवता केवल आस्था नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व की निरंतरता हैं। मेरे दादाजी राय साहब कैप्टन पद्मादत्त जोशी, जिन्होंने भारत का कैंटोनमेंट एक्ट तैयार किया और जिन्हें 1935 में ‘राय साहब’ की उपाधि मिली, अपने सेवा-निवृत्ति के बाद गांव लौटे और गांव तथा मंदिर के प्रति गहरा जुड़ाव बनाए रखा।

विश्वास और संदेह के बीच: एक वैचारिक दृष्टिकोण
मुझे आज भी याद है जब मैं बचपन में पहली बार मंदिर गया था। वहां की शांति और देवता के पत्थर की मूर्ति की मौन उपस्थिति ने एक गहरा प्रभाव छोड़ा। यहां आकर मन में एक अदृश्य सुरक्षा की भावना भर जाती थी – मानो कोई शक्ति मेरे सिर पर हाथ रखे हुए है। पैथल भगवान का मंदिर मेरे लिए केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि मेरे अस्तित्व के गहरे प्रश्नों का केंद्र है। मैं अक्सर अस्तित्व और नास्तिकता के मध्य भ्रम की स्थिति में रहता हूं। कभी लगता है यह केवल परम्परा है, कभी लगता है यह परम्परा ही वह डोर है जो मुझे जीवन से जोड़ती है। डाॅ. ब्रायन एल. वीस की पुस्तक Many Lives, Many Masters में एक पंक्ति मेरे भीतर के द्वंद्व को बखूबी व्यक्त करती है कि “We must believe… We must believe. And I doubt. I choose to doubt rather than to believe.” (हमें विश्वास करना चाहिए… अवश्य करना चाहिए। लेकिन मैं संदेह करता हूं। मैं विश्वास के स्थान पर संदेह को चुनता हूं।) यह वाक्य मेरे अंदर चल रही आध्यात्मिक यात्रा का सार है – एक ओर लोक आस्था और पारिवारिक अनुभवों की विरासत, दूसरी तरफ तर्क और आधुनिक बोध। शायद यह द्वंद्व ही मुझे बार-बार उस मंदिर की ओर खींचता है जहां उत्तर नहीं, लेकिन एक शांत अनुभव अवश्य मिलता है। मेरे बड़े भाई अनुपम आज भी नियमित रूप से गांव जाते हैं। उनका कहना है कि जब वे पैथल भगवान के मंदिर में पूजा करते हैं तो उन्हें एक अपूर्व मानसिक शांति मिलती है। उनका दृढ़ विश्वास है कि भगवान ने हर संकट में उनकी रक्षा की है। उनके जीवन के कई पड़ावों पर यह अनुभूति रही है कि पैथल देवता एक सजीव शक्ति की तरह उन्हें मार्गदर्शन देते हैं।

ग्राम देवताओं पर केंद्रित लोक साहित्य
उत्तराखण्ड की लोककथाओं, गीतों और गाथाओं में ग्राम देवता बार-बार आते हैं। ‘देवी जागर’, ‘गोलू गीत’, ‘नंदा जात’ जैसी परम्पराएं देवताओं की कहानियों को गीतों के माध्यम से पीढ़ियों तक पहुंचाती हैं। इन्हीं गीतों के माध्यम से बच्चों को यह सिखाया जाता है कि देवता केवल शक्ति नहीं, बल्कि सदाचार, न्याय और संवेदनशीलता के प्रतीक हैं। ग्राम देवता केवल पूजनीय नहीं, वे न्याय के देवता भी होते हैं। उत्तराखण्ड में देवताओं की पंचायतें लगती हैं, जिन्हें ‘थान’ कहा जाता है। वहां देवता, माध्यम (गौर) के जरिए प्रकट होते हैं और सच-झूठ का निर्णय देते हैं।

गड़ानाथ मंदिर और शिव की छाया
पैथल भगवान के मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित है गड़ानाथ मंदिर, जो भगवान शिव को समर्पित एक पुरातन मंदिर है। इस मंदिर की स्थापना 17वीं शताब्दी में श्री वल्लभ उपाध्याय द्वारा की गई थी। वर्तमान में 1008 संध्या गिरी जी महाराज यहां के मठाधीश है – यहां का वातावरण इतना शांत और रहस्यमय है कि कई साधक इस स्थान पर ध्यान और साधना के लिए जाते हैं। गड़ानाथ मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहां शिव ने गुफाओं में निवास किया था और यह मंदिर एक अज्ञात गुफा के ऊपर निर्मित है। इसकी ऊर्जा, वास्तु और वातावरण आज भी श्रद्धालुओं को आत्मा से जोड़ देता है।

आधुनिकता और शहरीकरण के चलते आज कई युवा गांव से कट गए हैं। कुछ मंदिर उपेक्षित हो गए हैं तो कहीं-कहीं देवताओं की पुरानी परम्पराएं केवल रस्म बनकर रह गई हैं। लेकिन साथ ही एक नई चेतना भी उभर रही है – गांव लौटने, मंदिरों की मरम्मत करने, जागर की परम्परा को पुनर्जीवित करने की। पैथल भगवान का मंदिर आज भी जीवंत है, लेकिन हमें इसे केवल धार्मिक नहीं, सांस्कृतिक और आत्मिक विरासत के रूप में भी देखना होगा। आज की पीढ़ी, जिसमें मैं भी शामिल हूं, अपने गांव से थोड़ा कट चुकी है – लेकिन देवता से हमारा रिश्ता कभी नहीं टूटा। शहरों की आपाधापी में भी जब संकट आता है तो पैथल भगवान की स्मृति सहारा देती है। नई पीढ़ी के लिए यह समझना जरूरी है कि गांव सिर्फ भूमि नहीं, वह स्मृति और आस्था की निरंतरता है। अगर हम इन ग्राम देवताओं को केवल परम्परा का हिस्सा समझ कर भुला देंगे तो हम उस ऊर्जा स्रोत से कट जाएंगे जो हमारे अस्तित्व को गहराई देता है।

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