उत्तराखण्ड की राजनीति इस समय एक असमंजस और संक्रमण काल से गुजर रही है। भारतीय जनता पार्टी के लगातार सत्ता में बने रहने के बीच कांग्रेस पार्टी के भीतर असंतुलन, अंतर्कलह और नेतृत्व संकट ने उसे बार-बार पीछे धकेला है। इस परिदृश्य में कांग्रेस के दिग्गज नेता और उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत अब भी पार्टी को एकजुट करने, उसे जनमानस से जोड़ने और अपनी वैचारिक धार ‘उत्तराखंडियत को पुन: स्थापित करने के लिए संघर्षरत हैं
हरीश रावत ने हाल के वर्षों में ‘न्याय यात्रा’, ‘जन संवाद’ और लगातार सोशल मीडिया सक्रियता के माध्यम से पार्टी के जनाधार को पुनर्जीवित करने की कोशिश की है। लेकिन यह एक कड़वा सच है कि उनके नेतृत्व में भी कांग्रेस राज्य में बार-बार हार का सामना कर चुकी है। 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस भाजपा के समक्ष टिक नहीं सकी। संगठनात्मक ढांचे की कमजोरी, नीतिगत अस्पष्टता और नेतृत्व के अंदर अंतर्विरोधों ने कांग्रेस को निणार्यक शक्ति बनने से रोके रखा।
कांग्रेस के भीतर चल रही नेतृत्व की खींचतान अब किसी से छिपी नहीं है। कभी हरीश रावत के निकटतम माने जाने वाले नेता अब खुले मंचों से उनकी रणनीति, कार्यशैली और नेतृत्व पर सवाल उठाते नजर आते हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बीच संवादहीनता और युवा नेताओं के साथ समन्वय की कमी ने स्थिति को और जटिल बना दिया है। कांग्रेस के भीतर ऐसे कई समूह बन चुके हैं जो एक-दूसरे से राजनीतिक रूप से असहज हैं, और हाईकमान की निष्क्रियता ने हालात को सुधारने के बजाय और उलझाया है।
ऐसे में अब जब हरीश रावत ने सार्वजनिक रूप से अपनी वैचारिक और राजनीतिक विरासत अपने पुत्र आनंद रावत को सौंपने का संकेत दे दिया है तो इसे केवल एक पारिवारिक निर्णय नहीं, बल्कि कांग्रेस के भीतर एक नई राजनीतिक पटकथा की शुरुआत के रूप में देखा जा रहा है।
आनंद रावत केवल हरीश रावत के पुत्र नहीं हैं, बल्कि वह एक सक्रिय और वैचारिक रूप से स्पष्ट युवा नेता हैं। उन्होंने उत्तराखण्ड यूथ कांग्रेस के पहले निर्वाचित अध्यक्ष के रूप में अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत की। यह निर्वाचित पद उनकी लोकप्रियता और युवाओं में उनकी स्वीकायज़्ता का प्रमाण था। वह विश्व बैंक और अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उत्तराखण्ड से जुड़े मुद्दों को लेकर अपनी भागीदारी के जरिए वैश्विक दृष्टिकोण भी रखते हैं। हाल के दिनों में जब हरीश रावत ने उन्हें ‘उत्तराखंडियत’ का सच्चा उत्तराधिकारी बताया और कांग्रेस के युवा नेताओं को इशारों-इशारों में दिशा देने की कोशिश की, तो यह तय हो गया कि आनंद रावत अब पार्टी में केवल एक युवा नेता नहीं, बल्कि एक वैकल्पिक नेतृत्व केंद्र के रूप में उभर रहे हैं।
इस घोषणा का कांग्रेस के भीतर मिला-जुला असर देखने को मिल रहा है। जहां एक ओर कुछ युवा नेता इसे स्वागत योग्य बताते हैं, वहीं दूसरी तरफ कई वरिष्ठ और महत्वाकांक्षी युवा नेता इसे एक ‘थोपे गए उत्तराधिकारी’ के रूप में देख रहे हैं। इससे पार्टी में एक नई प्रकार की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है, जिसमें आनंद रावत को अब न केवल जनता, बल्कि अपने ही समकालीन नेताओं को भी विश्वास में लेना होगा।
कांग्रेस के भीतर नई पीढ़ी के कई नेता अब उभरकर सामने आ रहे हैं। इनमें वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा भी शामिल हैं, जो कभी हरीश रावत के काफी निकट माने जाते थे, लेकिन अब उनके सम्बंध सहज नहीं माने जाते। करण माहरा के नेतृत्व में भी कांग्रेस ने कई जिलों में संगठनात्मक स्तर पर सक्रियता दिखाई है, लेकिन चुनावी सफलता में वह अब तक निर्णायक साबित नहीं हुए हैं। वहीं दूसरी ओर स्वर्गीय इंदिरा हृदयेश के पुत्र और वर्तमान हल्द्वानी विधायक सुमित हृदयेश एक और युवा चेहरा हैं, जो न केवल अपने क्षेत्र में लोकप्रिय हैं, बल्कि संगठनात्मक कार्य शैली में भी विश्वास रखते हैं। इन दोनों नेताओं के लिए आनंद रावत एक नई चुनौती के रूप में देखे जा सकते हैं।
वर्तमान में कांग्रेस जिन परिस्थितियों से गुजर रही है, उसमें केवल वैचारिक ताकत या जनसंवाद पर्याप्त नहीं रह गया है। अब जरूरत है ठोस सांगठनिक सुधार, जमीनी कार्यकर्ताओं की ऊर्जा को दिशा देने और नेतृत्व में स्पष्टता की। हरीश रावत की न्याय यात्रा हो या उनके सोशल मीडिया संदेश, उनका जुझारूपन और जमीनी पकड़ आज भी प्रभावशाली है, लेकिन वे कांग्रेस को एकजुट कर पाने में अब तक पूरी तरह सफल नहीं दिख रहे हैं। उनके आसपास जो विश्वसनीय चेहरा होना चाहिए था, वह लंबे समय तक अनुपस्थित रहा। अब जब उन्होंने अपने पुत्र को आगे लाकर वह स्थान भरने की कोशिश की है, तो यह उत्तराखण्ड कांग्रेस के लिए एक नया प्रयोग भी है और एक नया संकट भी।
अन्य युवा नेताओं के समक्ष यह स्पष्ट संदेश है कि पार्टी अब बदलाव के दौर में है। आनंद रावत के उभार को केवल एक नाम या परिवारवाद के रूप में खारिज करना आसान नहीं होगा, क्योंकि उनकी राजनीतिक यात्रा में संघर्ष, संवाद और संगठन के साथ काम करने का अनुभव है।
फिर भी, चुनौती आसान नहीं है। उत्तराखण्ड जैसे राज्य में जहां स्थानीयता, जातीय संतुलन, क्षेत्रीय अस्मिता और पहाड़ के मुद्दे राजनीति के मूल बिंदु होते हैं, वहां किसी भी नेता को केवल विरासत के बल पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। आनंद रावत को अपनी खुद की पहचान, नेतृत्व की शैली और जनता के साथ संवाद से अपनी जगह बनानी होगी।
कांग्रेस के भीतर कई युवा चेहरे- जैसे कि पूर्व प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल, विधायक दल के कुछ सदस्य और अन्य संगठनात्मक नेता- पहले से नेतृत्व के दावेदार माने जाते रहे हैं। ऐसे में आनंद रावत के मैदान में उतरने से समीकरण बदले हैं। पार्टी के भीतर यह प्रतिस्पर्धा यदि सकारात्मक रही, तो संगठन को नई ऊर्जा मिल सकती है। लेकिन यदि यह खींचतान में बदल गई, तो कांग्रेस एक और विघटन की ओर बढ़ सकती है। इस परिप्रेक्ष्य में आनंद रावत के आगामी कदम निर्णायक होंगे। क्या वे अपने पिता के प्रभाव से बाहर निकलकर अपना स्वतंत्र नेतृत्व खड़ा कर पाएंगे? क्या वे युवाओं को एकजुट कर सकेंगे और वरिष्ठों को विश्वास में ले सकेंगे? क्या वे उत्तराखण्ड की जनता के लिए केवल एक नाम बनेंगे या एक विकल्प भी?
उत्तराखण्ड कांग्रेस इस समय दोराहे पर खड़ी है। एक ओर उसे भाजपा के सशक्त संगठन और शासन तंत्र से मुकाबला करना है, दूसरी तरफ अपने ही भीतर नेतृत्व, दिशा और उद्देश्य को लेकर स्पष्टता लानी है। आनंद रावत का उभार इस द्वंद्व का एक उत्तर हो सकता है, बशर्ते वह संगठन, जनमानस और विचारधारा- तीनों को साथ लेकर चलें।
आनंद रावत को राजनीतिक विरासत सौंपने का संकेत
कांग्रेस को अब केवल चेहरों की नहीं, चरित्र और चेतना की जरूरत है। अगर आनंद रावत इस कसौटी पर खरे उतरते हैं, तो वे न केवल हरीश रावत की विरासत को आगे ले जाएंगे, बल्कि उत्तराखण्ड में कांग्रेस की राजनीति को नई दिशा भी दे सकते हैं।
इस पूरी राजनीतिक हलचल के बीच यह सवाल भी गहराता जा रहा है कि क्या उत्तराखण्ड कांग्रेस भविष्य में दोधारी गुटों में विभाजित हो जाएगी, एक वह जो पारम्परिक नेतृत्व के इर्द-गिर्द संगठित है और दूसरा वह जो युवाओं के बीच से उभरते नेतृत्व के साथ आगे बढ़ना चाहता है। आनंद रावत की स्थिति इन दोनों ध्रुवों के बीच एक पुल बन सकती है, बशर्ते वे अपनी भूमिका को केवल ‘पुत्र’ की छाया में न जीकर, एक सक्रिय और सबको साथ लेने वाले नेता की तरह निभाएं। उनके लिए यह जरूरी होगा कि वे सिर्फ विपक्ष की भाषा बोलने के बजाय कांग्रेस के भीतर भी उन आवाजों से संवाद करें जो बदलाव चाहती हैं, लेकिन असहमति के साथ। उनके संवाद का दायरा युवाओं तक ही नहीं, बल्कि गांव, पर्वतीय क्षेत्र, महिलाओं और पारम्परिक मतदाताओं तक भी विस्तारित होना चाहिए। उत्तराखण्ड की राजनीति भावनाओं और व्यक्तित्वों से गहरे प्रभावित होती है। यहां नेता के प्रति निष्ठा केवल उसकी नीतियों से नहीं, बल्कि उसकी जीवनशैली, जमीन से जुड़े पन और संघर्षशीलता से जुड़ती है। हरीश रावत इस पहचान को दशकों तक जिंदा रखने में सफल रहे। अब यही चुनौती आनंद रावत के सामने है कि क्या वे अपने पिता की जमीनी सादगी, जनता से संवाद और संघर्ष की परम्परा को आत्मसात कर पाएंगे? या फिर वे केवल डिजिटल सक्रियता और विचारधारात्मक घोषणाओं तक सीमित रह जाएंगे?
राज्य की नई पीढ़ी उन नेताओं को खोज रही है जो आधुनिक सोच रखते हुए भी अपनी जड़ों से कटे नहीं हैं। जो विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मंचों की भाषा तो जानते हों, लेकिन गांव की चौपाल पर बैठकर उत्तराखण्ड के जल, जंगल और पलायन जैसे मसलों पर भी बात कर सकें। आनंद रावत यदि इस दोहरी भूमिका में खुद को स्थापित कर लेते हैं तो वह न केवल कांग्रेस के भीतर, बल्कि राज्य की राजनीति में भी एक दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ सकते हैं। अंतत: यह तय करना कांग्रेस के संगठन और कार्यकर्ताओं का होगा कि वे किस नेतृत्व के साथ भविष्य की राजनीति को परिभाषित करना चाहते हैं। लेकिन यह निश्चित है कि अब उत्तराखण्ड कांग्रेस की राजनीति में सिर्फ अनुभव या उम्र ही मापदंड नहीं रहेंगे, अब नेतृत्व की नई परिभाषा गढ़ी जा रही है और आनंद रावत उस परिभाषा के केंद्र में खड़े हैं।