उत्तराखंड के आठवें मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत ने 17 मार्च 2018 को प्रचंड बहुमत वाली सरकार की कमान संभाली थी। राज्य के राजनीतिक इतिहास में पहली बार किसी पार्टी को दो तिहाई से भी ज्यादा बहुमत देकर जनता ने सत्ता पर काबिज करवाया था। ऐसे में विपक्ष के कमजोर होने के चलते माना जा रहा था कि प्रदेश के विकास के लिए मुख्यमंत्री की राह में न तो पार्टी के भीतर से कोई चुनौती है और न ही विपक्ष की तरफ से कोई रुकावटें। इसके बावजूद कई ऐसे साईड इफेक्ट प्रदेश की राजनीति में देखने को मिले हैं जिनका असर विगत तीन वर्ष में लगातार बना रहा। कई राजनीेतिक समीकरण बने और बिखरे हैं। जिनसे सरकार और मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत को जूझना पड़ा है। अपनों की नाराजगी खास तौर पर कैबिनेट के कुछ मंत्रियों के सार्वजनिक बयानों और देहरादून से दिल्ली की लगातार दौड़ों से यह तीन वर्ष खूब चर्चाओं में रहे।
मुख्यमंत्री के खिलाफ नाराजगी का सबसे पहला अवसर सरकार के कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत के एक बयान से तब सामने आया जब उन्होंने उत्तराखण्ड का सबसे बेहतर मुख्यमंत्री हरीश रावत को बता दिया। इस बयान से राजनीतिक हलकों में खासी चर्चाएं हुई और इसे मुख्यमंत्री और हरक सिंह रावत के बीच रार के तौर पर देखा गया। इसके बाद तो गाहे-बगाहे इस तरह की चर्चाएं होने लगी। सरकार के एक वर्ष पूरा होने के बाद सीधे तौर पर मुख्यमंत्री के बदले जाने की चर्चाएं होने लगी। तब से लगातार मुख्यमंत्री बदलने जाने के कयासों से प्रदेश की राजनीति में हलचल-सी मची रही। पिछले माह जिस तरह से अचानक मुख्यमंत्री बदले जाने की चर्चाएं तेजी से सामने आई उससे तो एकबारगी यह लगने लगा कि अब त्रिवेंद्र रावत का हटना तय है। इस बार की चर्चाएं इस कदर रही कि नए मुख्यमंत्री के तौर पर कई नाम सामने आने लगे। इससे राजनीतिक जानकारों, मीडिया तथा सोशल मीडिया में जमकर चर्चाएं और विमर्श के दौर होने लगे।
हालांकि यह चर्चाएं भी पूर्व की ही भांति जिस तरह से उठी उसी तरह से शांत हो गई, लेकिन इस पर पूरी तरह से लगाम लग गई हो ऐसा भी नहीं देखने को मिल रहा है। अभी इस तरह के कयासों के लिए जरूरी ईंधन की भरमार बनी हुई है जिसमें आने वाले समय में मुख्यमंत्री को जूझना पड़ सकता है। इसका एक बड़ा कारण यह माना जा रहा है कि अभी तक मुख्यमंत्री अपनी कैबिनेट के तीन मंत्री पदांे पर किसी की नियुक्ति करने से परहेज कर रहे हैं। राजनीतिक जानकारों की मानंे तो शायद राज्य के राजनीतिक इतिहास में पहली बार होगा कि प्रदेश की सरकार में तीन कैबिनेट मंत्रियों के पदांे को खाली ही रखा जाएगा। अगर यह होता है तो वास्तव में यह मुख्यमंत्री के भीतर या तो राजनीतिक साहस की कमी होगी या फिर वे नया कीर्तिमान रचने के मूड में हैं। इन तीन वर्षों में त्रिवेंद्र रावत को लगातार अपनों से ही जूझना पड़ा है। विधायकों की नाराजगी और नौकरशाहों की कार्यशैली के चलते कई विधायकों ने अपनी ही सरकार पर सवाल खड़े करने से गुरेज तक नहीं किया।
सरकार ओैर मुख्यमंत्री असली भाजपा और आयातीत भाजपा के बीच मचे घमासान में ही उलझे दिखाई दिए। यह बड़ा अंतद्र्वंद देखने में आया है कि भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं और कांग्रेस से भाजपा में आए नेताओं के समर्थकों के बीच बड़ी खटास देखने को मिली। इस खटास को ऊर्जा देने का काम विभागों और संस्थानों मैं पदों के बंटवारे ने भी खूब किया। कई ऐसे पदों पर कांग्रेस से भाजपा में आए नेताओं के खास समर्थकों को तैनात किया गया जिन पर भाजपा के मूल कार्यकर्ता निगाहंे लगाए हुए थे। बदलते राजनीतिक समीकरणों के चलते उनकी मुरादं पूरी नहीं हो पाई ओैर विरोध कम होने के बजाए बढ़ता ही रहा।
तीन वर्ष के कार्यकाल में कई ऐसे मामले भी सामने आए जिनसे मुख्यमंत्री और प्रदेश भाजपा संगठन के बीच भी खटास देखने को मिली। हालांकि इसमें मुख्यमंत्री ही संगठन पर हावी दिखाई दिए। दायित्व बंटवारे में देरी के चलते प्रदेश भाजपा संगठन द्वारा कई बार नाराजगी भी जताई गई, लेकिन मुख्यमंत्री ने अपनी आवश्यकता और अवसर को देखते हुए ही दायित्वों का बंटवारा किया। यहां तक कि दायित्व पाने वालों को जमकर सरकारी खजाने से सुविधाएं देने का नया रिकाॅर्ड बना डाला।
मुख्यमंत्री कार्यालय में भी मुख्यमंत्री ने अपने लिए जम्बो फौज रखी। खास बात यह रही कि इसमें मुख्यमंत्री ने अपने और अपनी पसंद के व्यक्तियों को ही तैनात किया, जबकि सूत्रों की मानंे तो कई भाजपा के बड़े नेताओं यहां तक कि मंत्रियों तक की सिफारिशों को दरकिनार करते हुए अपने स्टाफ में तकरीबन 40 लोगों को तैनात किया।
इसके अलावा मुख्यमंत्री पर अपने कैबिनेट मंत्रियों के कामकाज पर सीधे हस्तक्षेप के आरोप भी लगते रहे। आज भी कई मंत्री नाराज बताए जाते हैं। हाल ही में प्रदेश में पदोन्नति में आरक्षण और सीधी भर्तियों में आरक्षण रोस्टर में बदलाव से मंत्री यशपाल आर्य इतने नाराज रहे कि उनके त्यागपत्र देने की बात सामने आ चुकी है। बताया जाता है कि रोस्टर में बदलाव करने से पूर्व यशपाल आर्य को कोई जानकारी तक नहीं दी गई जिसके चलते आर्य सरकार से खासे नाराज थे और उनकी यह नाराजगी खुलेआम देखने को मिली।
शिक्षा मंत्री अरविंद पाण्डे और मुख्यमंत्री के बीच की नाराजगी भी सामने आ चुकी है। शिक्षा मंत्री के आदेशों को सीधे मुख्यमंत्री से मिलकर शिक्षकों के एक समूह द्वारा बदले जाने से अरविंद पाण्डे भारी नाराज रहे। साथ ही उत्तरकाशी की शिक्षिका उत्तरा पंत बहुगुुणा और मुख्यमंत्री के बीच हुए विवाद को सुलझाने के लिए अरविंद पाण्डे द्वारा प्रयास किए जाने लगे तो उनको रोक दिया गया। माना जा रहा हेै कि इस विवाद में मुख्यमंत्री की छवि को खास नुकसान हुआ। अरविंद पाण्डे ने विवाद को समाप्त करने और शिक्षिका की नाराजगी को दूर करने के लिए उनसे मिलने का कर्यक्रम बनाया, लेकिन उसे अचानक रद्द करना पड़ा। सूत्रांे के अनुसार मुख्यमंत्री कार्यालय से ही उनको ऐसा करने से रोका गया। हालांकि इस बात की कोई पुष्टि नहीं हुई है, लेकिन तत्कालीन समय में इस तरह की चर्चाएं खूब हुई।
स्वर्गीय प्रकाश पंत और मुख्यमंत्री के बीच कई मामलों को लेकर नाराजगी की खबरंे भी चर्चाओं में रही। यहां तक कि दोनों के बीच कई मसलांे को लेकर ईमेज बिल्डिंग किए जाने के प्रयास तक किए गए। जिसमें तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री के साथ बीटीसी को लेकर अपने प्रयास में पंत सफल रहे थे। इस मामले में प्रकाश पंत मुख्यमंत्री पर भारी रहे और सीधे उत्तर प्रदेश की तरह ही उत्तराखण्ड को बड़ी राहत दिलवाने में कामयाब रहे, जबकि मुख्यमंत्री भी इस पर पहल कर चुके थे, लेकिन प्रदेश को कोई आश्वासन नहीं मिला था।
मंत्री सतपाल महाराज और मुख्यमंत्री के बीच भी नाराजगी देखने को मिलती रही है। पर्यटन मंत्री होने के बावजूद सतपाल महाराज को चारधाम यात्रा कार्यक्रम से अलग रखा गयाजबकि उनके भाई भोले जी महाराज को सरकार और खासतौर पर मुख्यमंत्री द्वारा अधिक तवज्जो दी गई। आज भी सतपाल महाराज और मुख्यमंत्री के बीच खटास की खबरं सबसे ज्यादा सुनाई पड़ती हैं।
इस नाराजगी का असर मंत्री मदन कौशिक और सतपाल महाराज के बीच के विवाद में भी देखने को मिल चुका है। इससे न सिर्फ सरकार की छवि को नुकसान हुआ, बल्कि मुख्यमंत्री के राजनीतिक कौशल पर भी सवाल खड़े हुए। खानपुर के विधायक कंुवर प्रणव चैम्पियन और झबरेड़ा के भाजपा विधायक देशराज कर्णवाल के बीच हुए विवाद में भी भाजपा के प्रदेश संगठन के साथ-साथ मुख्यमंत्री के राजनीतिक कौशल पर कई सवाल छोड़ता रहा। इस मामले को सुलझाने में भाजपा संगठन को तमाम तरह के पापड़ बेलने पड़े, जबकि मुख्यमंत्री कार्यालय इसे पार्टी संगठन का मामला बताकर अपने को बचाता रहा। लेकिन इस विवाद की छाया से न तो सरकार बच पाई ओैर न ही प्रदेश भाजपा संगठन बच पाया। इतना जरूर हुआ कि इस विवाद के इतर अन्य मामले को लेकर विधायक कुंवर प्रणव चैम्पियन को भाजपा से निलंबित होना पड़ा।
कई ऐसे मामले भी सामने आ चुके हैं जिसमें मुख्यमंत्री के इकबाल पर ही सवाल खड़े करने वाले विपक्ष के बजाय भाजपा के नेता या विधायक रहे हैं। सबसे चर्चित मामला धर्मपुर के भाजपा विधायक विनोद चमोली और मुख्यमंत्री के बीच विधायकों के सम्मान को लेकर सामने आया था। विधायक विनोद चमोली जो कि तत्कालीन समय में नगर निगम देहरादून के अध्यक्ष भी थे, उनके क्षेत्र दौड़वाला में शराब के ठेकों को खोलने पर जनता की नाराजगी को देखते हुए जिलाधिकारी से मिलने पहुंचे।
डीएम कार्यालय में नहीं थे जिस पर उनके द्वारा नाराजगी जताई गई। इस पर जिलाधिकारी ने कहा कि विधायक को उनसे मिलने का समय लेना चाहिए था। इस पर विनोद चमाली भड़क गए और जिलाधिकारी कार्यालय में ही धरने पर बैठ गए।
इस मामले में विनोद चमोली द्वारा मुख्यमंत्री कि टेलीफोन पर बातचीत करने का वीडियो भी सामने आया था जिसमें वे मुख्यमंत्री को एक तरह से धमकाते हुए दिखाई दे रहे थे। वे अपने 29 वर्ष के राजनीतिक जीवन के अनुभव को बताते हुए प्रदेश की बेलगाम नौकरशाही पर सवाल खड़े कर रहे थे। इस मामले में भी किसी तरह से चमोली को मनाया गया। यह मामला सरकार और नौकरशाही के कामकाज पर गंभीर सवाल खड़ा कर गया। इससे पूर्व हरिद्वार के भाजपा विधायक यतीश्वरानंद गिरी के अपने क्षेत्र मंे शराब के ठेके के विरोध में सरकार के खिलाफ आंदोलन करने और शराब के ठेके पर पथराव करने के मामले भी सामने आए। इस प्रकरण में भी विधायक और जिलाधिाकारी हरिद्वार आमने-सामने आ चुके हैं।
ऐसे ही कई मामले और भी सामने आ चुके हैं जिसमें नौकरशाही की कार्यशैली को लेकर विवाद हुए हैं। हेमंत द्विवेदी और अपर मुख्य सचिव ओम प्रकाश के बीच हुए विवाद में तो हेमंत द्विवेदी द्वारा ओम प्रकाश से अपनी जान को खतरा तक बताया गया था। इस संबंध में उन्होंने मुख्यमत्री के अलावा केंद्रीय भाजपा नेताओं को पत्र लिखे थे। इसके अलावा हरक सिंह रावत द्वारा वन विभाग के अधिकारियों की लापरवाही पर उनके खिलाफ कार्यवाही करने की बात को मुख्यमंत्री द्वारा हरक सिंह रावत के ही सामने अधिकारियों पर काम का बोझ ज्यादा होने की बात कहना जैसे मामले भी सामने आए हैं जिससे यह अरोप लगता रहा कि राज्य की नौकरशाही सरकार पर पूरी तरह से हावी है और जिसके चलते विधायकों के क्षेत्रों में काम नहीं हो पा रहे हं।
कुल मिलाकर मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत अपने तीन वर्ष के कार्यकाल में राजनीतिक तौर पर कमजोर ही दिखाई दिए हैं। मंत्रियों और विधायकों के विवादांे की छाया सरकार के तीन वर्ष के कार्यकाल पर छाई रही। भाजपा के प्रदेश संगठन और सरकार के बीच मतभेद की खबरे भी खूब चर्चाओं में रही। हालांकि मुख्यमंत्री अपने राजनीतिक कौशल से संगठन पर हमेशा बीस ही रहे।