[gtranslate]

मेरी बात

 

विश्व ख्याति प्राप्त ब्रिटिश लेखक चार्ल्स डिकिंस का एक उपन्यास ‘ब्लीक हाऊस’ (Bleak House) विक्टोरियन समय के ब्रिटेन की न्याय व्यवस्था पर आधारित ऐसी कृति है जो ‘जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड’ (Justice delayed is Justice denied) को रेखांकित करता है। इस उपन्यास के मुख्य पात्र एक वसीयत को लेकर कानूनी लड़ाई में फंसकर बर्बाद हो जाते हैं क्योंकि फैसला आने में कई बरस का समय लगता है और इस दौरान मुकदमें बाजी में पक्षकारों का खासा धन बर्बाद हो जाता है। 1853 में इस उपन्यास के प्रकाशित होने के बाद ब्रिटेन में न्याय व्यवस्था सुधारवादी आंदोलन की शुरुआत हुई जिसके दबाव में आकर 1870 में वहां की न्याय प्रणाली में बड़े सुधार किए गए थे। चार्ल्स डिकिंस के इस प्रसिद्ध उपन्यास की याद मुझे वर्तमान मानसून सत्र के दौरान केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू द्वारा लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर से हो आई है। केंद्रीय मंत्री ने गत् 28 जुलाई को राज्यसभा में एक लिखित उत्तर में बताया कि लगभग 59 लाख मुकदमें देश की 25 हाईकोर्ट्स में लंबित है। इससे पहले 18 जुलाई को एक न्यायिक संगोष्ठी को संबोधित करते हुए उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए ़बी ़ रमन्ना ने जानकारी दी थी कि भारतीय न्यायालयों में लगभग 4 ़5 करोड़ मुकदमें लंबित चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति मार्कंनडेय काटजू ने 2019 में ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में प्रकाशित एक लेख में लिखा था कि यदि कोई भी नया मुकदमा दर्ज न हो, तो भी वर्तमान मुकदमों में फैसला आते-आते 360 साल लग जाएंगे। जब उन्होंने यह लिखा था तब तक लंबित मुकदमें 3 ़3 करोड़ थे जो अब बढ़कर 4 ़5 करोड़ हो चले हैं। राज्यसभा में कानून मंत्री द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार इस समय 59 लाख मुकदमें देश के 25 उच्च न्यायालयों में लंबित है जिनमें अकेले इलाहाबाद होईकोर्ट में दस लाख से अधिक (10,26,417) मुकदमें हैं। न्यायमूर्ति रमन्ना ने इतनी बड़ी संख्या में मुकदमों के होने पर चिंता जताते हुए इसे ‘An India phenomenon called Luxorious Litigation’ (यह एक विशेष प्रकार की मुकदमेबाजी है जिसमें संसाधन संपन्न पक्षकार न्याय व्यवस्था को विफल करने के लिए न्यायिक प्रणाली में कई कार्यवाही दायर कर न्याय प्रक्रिया में देरी करवाते हैं) आजादी का अमृत महोत्सव बड़ी उमंग और उत्साह के साथ मना रहे देश, विशेषकर देश की सत्ता में काबिज राजनेताओं द्वारा राष्ट्रध्वज को लेकर निकाली जा रही यात्राओं, हालिया संपन्न कावड़ यात्रा के दौरान कई राज्य सरकारों द्वारा कावड़ ले जा रहे शिव भक्तों पर राजकीय खजाने का इस्तेमाल कर पुष्प वर्षा कराना, देश के सत्ता केंद्र में हजारों करोड़ खर्च कर बनाई जा रही नई संसद, प्रधानमंत्री आवास इत्यादि, कुछ अर्सा पहले सरदार वल्लभ भाई पटेल की एक विशाल प्रतिमा का निर्माण जिसकी कुल लागत लगभग तीन हजार करोड़ बताई गई है, और इन सबके बीच 140 करेड़ की जनता के दो तिहाई हिस्से का दो जून की रोटी के लिए प्रतिदिन का संघर्ष, आजाद भारत की इस यात्रा पर कई ऐसे प्रश्न खड़े कर देता है जिनका जवाब तलाशे नहीं मिलता है। ईमानदार विश्लेषण यदि किया जाए तो इससे केवल एक बात प्रमाणित हो उभरती है कि आने वाला समय, भविष्य का भारत या भारत का भविष्य वैसा तो कतई नहीं होने जा रहा है, जैसा हमें दिखाया-समझाया जा रहा है। एक तरफ आर्थिक विशेषज्ञों के आंकड़े हैं जो हमें आश्वस्त करने का प्रयास करते हैं कि ‘ऑल इज वेल’। जो हमें बताते हैं कि कोविड-19 जैसी वैश्विक आपदा के बावजूद हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और हम कुछ ही समय में विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले पहले तीन देशों में शुमार हो जाएंगे तो दूसरी तरफ बढ़ती महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी, छोटे एवं मझोले उद्योगों में तालाबंदी इत्यादि ‘आल इज अनवेल’ की तरफ इशारा कर रहे हैं। 2014 के आम चुनावों का मंजर जरा याद कीजिए। यूपीए-2 के पांच बरस बेहद निराशाजनक रहे थे। अन्ना हजारे के जनआंदोलन ने यह स्थापित कर दिया था कि तत्कालीन मनमोहन सरकार गले तक भ्रष्टाचार में धंस चुकी है। विनोद राय नामक एक आईएएस अधिकारी को 2008 में पांच बरस के लिए भारत का महालेखा नियंत्रण (कैग) मनमोहन सिंह ने नियुक्त किया था। इन साहब का कार्य था देश के खजाने से की जा रही निकासी और आ रहे राजस्व का ऑडिट करना। राय ने मोबाइल फोन सेवाओं के लिए 2-जी स्पेक्ट्रम निलामी प्रक्रिया पर बड़े सवाल अपनी ऑडिट रिपोर्ट में उठाए। उनकी रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार ने, विशेषकर तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए ़राजा ने, कुछ निजी मोबाइल सेवा देने वाली कंपनियों को लाभ पहुंचाने की नीयत से 2-जी की निलामी के लिए न्यूनतम मूल्य बेहद कम रखा जिससे केंद्र सरकार को लगभग 17 सौ खरब रुपयों का नुकसान उठाना पड़ा। इस रिपोर्ट ने भारी तहलका मचाने का काम किया था और मनमोहन सरकार के मंत्री डी ़राजा को इस्तीफा देना और जेल तक जाना पड़ा था। तब मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने इस रिपोर्ट को जमकर अपने हित में भुनाया था। यह लेकिन कभी न साबित हो सका कि वाकई यह निलामी प्रक्रिया गलत थी और वाकई 17 सौ खरब का कोई घोटाला हुआ था। इस कथित घोटाले के सभी आरोपी न्यायालय द्वारा बरी कर दिए गए थे। किंतु यह सब बहुत बाद में हुआ। अन्ना हजारे के आंदोलन और विनोद राय की ऑडिट रिपोर्ट्स तब तक अपना कमाल दिखा चुकी थीं। 2014 के आम चुनावों में भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और खराब अर्थव्यवस्था को भाजपा ने मुद्दा बना पहाड़ सरीखे वायदों का सुनहरा सपना जनता को दिखा उसे अपनी तरफ रिझाने में भारी सफलता पा ली थी। भाजपा के प्रधानमंत्री चेहरा घोषित किए गए नरेंद्र मोदी ने देशभर में प्रचंड प्रचार किया था जिसमें उन्होंने बेरोजगारों को नौकरी देने से लेकर काले धन, भ्रष्टाचार, महंगाई इत्यादि सभी समस्याओं को जड़ से समाप्त करने की बात कही थी। 2014 में प्रधानमंत्री बने मोदी 2018 आते-आते ‘पकौड़ी बेचने’ वालों की संख्या गिना कहने लगे कि भारी तादाद में स्वरोजगार उपलब्ध कराया जा चुका है। उनके इस कथन को राष्ट्रीय साख्यिंकी आयोग की उस रिपोर्ट से समझा जा सकता है जिसे जनता के सामने आने से रोक दिया गया था। जरा याद करने की कोशिश कीजिए कि क्योंकर जनवरी, 2019 में इस आयोग के अध्यक्ष पीसी मोहनन् और उनकी सहयोगी जे ़वी ़मीनाक्षी ने इस्तीफा दे दिया था? मैं याद दिला देता हूं। मोहनन् और मीनाक्षी ने यह कहते हुए पद त्याग करा था कि उन्हें बेरोजगारी का सही आंकड़ा जारी करने से रोका जा रहा है। मोहनन् ने तब ‘इंडिया टूड़े’ पत्रिका को दिए साक्षात्कार में आरोप लगाया था कि नोटबंदी के बाद किए गए नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट जो दिसंबर, 2018 में जारी की जानी थी, उसे केंद्र सरकार ने रोक दिया है। इस रिपोर्ट को 2019 के आम चुनाव बाद जारी किया गया जिससे यह बात सामने आई कि बीते 45 बरसों में सबसे अधिक बेरोजगारी नोटबंदी के फैसले बाद देश में पैदा हुई है। स्पष्ट है केंद्र सरकार इस रिपोर्ट को आम चुनावों से पहले जारी करने के लिए इसलिए तैयार नहीं थी क्योंकि इससे उसके दावों और स्वरोजगार के सच से पर्दा उठ जाता। 2016 में यकायक की गई नोटबंदी का इस बेरोजगारी से सीधा ताल्लुक है। कालाधन को जड़ से समाप्त करने के घोषित उद्देश्य से की गई इस नोटबंदी ने हमारी समानांतर अर्थव्यवस्था को पूरी तरह चौपट कर दिया। हम आज तक इस अपरिपक्व निर्णय की मार से उबर नहीं पाए हैं। केंद्र सरकार ने इसके बाद हाबड़-ताबड़ में जीएसटी स्कीम को लागू कर डाला।
 
नोटबंदी की मार से त्रस्त अर्थव्यवस्था को इस जीएसटी ने एक और आघात पहुंचाने का काम कर डाला। सरकार इतने पर भी रूकी नहीं। संविधान इस देश को कल्याणकारी राज्य का दर्जा देता है जिसका सीधा अर्थ है ऐसी शासन व्यवस्था जिसका सबसे बड़ा कर्त्तव्य आम आदमी का कल्याण करना है, एक समतामूलक समाज का निर्माण करना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही आजादी बाद बड़े स्तर पर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम स्थापित किए गए थे। इन उपक्रमों के जरिए न केवल विशाल रोजगार सृजन किया गया था बल्कि समुचित वेतन व अन्य लाभ इसके कर्मचारियों को उपलब्ध कराए गए थे। प्राइवेट सेक्टर की भांति इन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का उद्देश्य केवल मुनाफा कमाना भर नहीं होता है इसलिए इनके जरिए सरकार न केवल प्राइवेट सेक्टर की धनलिप्सा को नियंत्रित करने की ताकत रखती है, बल्कि देश के बेशकीमती संसाधनों पर भी उसका प्रभुत्व बना रहता है। वर्तमान सरकार लेकिन इस व्यवस्था को भी ध्वस्त कर ‘सब कुछ’ प्राइवेट सेक्टर के हवाले करने की तरफ तेजी से बढ़ रही है। इसका सीधा असर रोजगार सृजन पर पड़ा है। 2014 से 2020 के मध्य केंद्र सरकार के नियमित कर्मचारियों की संख्या तैंतीस लाख से घटकर 31 लाख तीस हजार रह गई है। केंद्र सरकार खाली हो रहे पदों में नई नियुक्तियां कर नहीं रही है। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में इस वक्त लगभग दस लाख पद खाली पड़े हैं। पब्लिक सेक्टर में नौकरी है लेकिन पद नहीं भरे जा रहे हैं तो दूसरी तरफ नोटबंदी और कोविड की मार से त्रस्त प्राइवेट सेक्टर में नौकरियां हैं ही नहीं। इससे युवाओं में तेजी से बेचेनी बढ़ रही है। समाज में चौतरफा बढ़ रही हिंसा इसी बेचैनी चलते है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 2019 में जारी एक रिपोर्ट में बताया गया कि 2005 से 2015 के बीच लगभग 27 करोड़ लोगों को भारत में गरीबी रेखा से ऊपर लाया गया है, खाद्य सुरक्षा में भारी उन्नति हुई है और शिक्षा, पीने का पानी, ऊर्जा इत्यादि को आमजन तक पहुंचाने में भी सराहनीय प्रयास किए गए हैं। यह सब 2005 से 2015 के मध्य हुआ जब सत्ता में यूपीए काबिज थी। इसके बाद के सात सालों का हाल हमारे सामने है। अभी पूरा देश धर्म रूपी अफीम चाट मुख्य मुद्दों से भटका हुआ है। हम बुनियादी सवालों पर चर्चा करने के बजाए श्मशान- कब्रिस्तान में उलझे हुए हैं। जब तक इस धर्म रूपी अफीम का नशा हावी रहेगा तब तक हमारा यानी आमजन का भटकाव भी बना रहेगा। लेकिन जब यह नशा बुनियादी जरूरतों, बुनियादी सवालों से टकराएगा तब हालात कितने और किस कदर विस्फोटक हो उठेंगे, यह सोचकर ही रूह कांप उठती है। आने वाले इस कल की आहट, उसकी पहचान बीते कल से और वर्तमान से की जा सकती है। रघुवीर सहाय ने तभी तो लिखा-

हर थका चेहरा तुम गौर से देखना
उसमें वह छिपा कहीं होगा गया कल
और आने वाला कल भी वहीं कहीं होगा।

वर्तमान में जिस अंधी गली भीतर हम और हमारा समय विचर रहा है, इस आने वाले कल को इसमें विचरते देख समझा जा सकता है।                         
 
क्रमशः
 
 

You may also like

MERA DDDD DDD DD